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कृषि : अल्पारम्भ और आर्यकर्म है
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मुझे अब आने वाले साधकों के मार्ग-प्रदर्शनार्थ भोजन ग्रहण कर लेना चाहिए । यदि भगवान् चाहते तो क्या एक वर्ष के बदले दो वर्ष और तपः साधना नहीं कर सकते थे ? पर, अन्य साधारण साधकों के हित की दृष्टि से ही वे आहार के लिए चले क्योंकि जनता महापुरुष का पदानुसरण करती है। गीता में भी योगेश्वर कृष्ण ने कहा है-“श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करता है, जनता उसी को प्रमाण मान लेती है और उसी का अनुकरण करने लगती है ?" तप की मर्यादा
ग्रंथों में वर्णन आता है कि जिस तीर्थंकर ने अपने जीवन-काल में जितना अधिक समय का तप किया है, उसके अनुयायी साधक भी उतनी ही सीमा पर तप कर सकते हैं । भगवान् महावीर ने सबसे ज्यादा छह महीने तक सुदीर्घ तप किया था; अतः उनके शिष्य भी छह मास तक का तप कर सकते हैं, उससे ज्यादा नहीं । भगवान् ऋषभदेव ने सबसे बड़ा तप ; अर्थात् एक वर्ष तक का तप किया था । यदि एक वर्ष तक के तप की मर्यादा न होती तो आज वह 'वर्षी' तप कैसे प्रचलित होता ? क्या, भगवान् महावीर सात महीने की तपस्या नहीं कर सकते थे ? अवश्य कर सकते थे। पर, उन्होंने सोचा-'मैं जितना ही आगे बढ़गा, मेरे शिष्य भी मेरा आग्रहमूलक अनुकरण करेंगे और वे व्यर्थ क्लेश में पड़ जाएंगे। ऐसा सोचकर भगवान् महावीर ने छह महीने का तप किया ।
इसी प्रकार भगवान् ऋषभदेव ने भी एक वर्ष का ही तप किया था । आहार के लिए भटकते नहीं रहे । यदि प्रतिदिन आहार के लिए झांकते-फिरते तो वह तप ही कैसे कहलाता ? यह अन्तरय था या तप था ? यह बात अब तक स्पष्ट हो गई होगी, ऐसा समझा जा सकता है।
इतने विस्तृत विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् ऋषभदेव ने खेती. बाड़ी आदि के जो भी उद्योग-धन्धे सिखलाए, वे सभी कार्य आर्य-कर्म थे । अनार्य-कर्म नहीं उन्होंने विवाह-प्रथा तो चलाई पर वेश्यावृत्ति नहीं। खेती सिखाई, पर शिकार नहीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने जो कुछ भी सिखाया, वह सब प्रजा के हित के लिए ही था।
५ गृह णामि यदि नाहारं, पुनरद्याऽप्यभिग्रहम्,
तनोमि तपसैव स्यात्, प्रशमः कर्मणामिति । तदा कच्छादय इव, निराहारतयाऽदिताः, भग्नव्रता भविष्यन्ति भविष्यन्तोऽपि साधवः । एवं विचिन्त्य चित्तेन, चिरं प्रचलितः प्रभुः, निर्दोषभिक्षामाकाङ्क्षन् पुरं गजपुरं ययौ ।
पद्मानंद महाकाव्य १३ । २००-२०२
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