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अहिंसा और कृषि
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होनी चाहिए थी। पर, शास्त्र तो यह बताता है कि उन्होंने प्रजा के हित के लिए ही शिक्षा दी थी । ऐसी स्थिति में शुभयोग आ गया।
__ जब कोई शास्त्र-श्रवण करेगा या भगवान् की स्तुति करेगा, तब भी आश्रव का होना अनिवार्य है, परन्तु वह होगा शुभ अंश में ही। साथ ही यह भी ध्यान में रखना होगा कि ऐसा करते समय धर्म का अंश कितना है ?
आशय यही है कि जब कोई भी क्रिया की जाए, या किसी भी क्रिया के सम्बन्ध में कहा जाए, तो उसके दोनों ही पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए।
साधु जब कृषि के सम्बन्ध में कुछ कहते हैं तो वे कृषि का समर्थन या अनुमोदन नहीं करते हैं । वे तो केवल वस्तु-स्वरूप का ही विवेचन करते हैं। वे यही बतलाते हैं कि खेती अल्पारम्भ है, महारम्भ नहीं है । जानवरों को मार कर जीवननिर्वाह करना महारम्भ है और खेती करना उसकी अपेक्षा अल्पारम्भ है। श्रावक के लिए महारम्भ त्याज्य है और अल्पारम्भ का त्याग उसकी भूमिका में सर्वथा अनिवार्य नहीं है । सभी जगह साधुओं की भाषा का ऐसा ही अर्थ होता है। यह व्याख्यानश्रवण तो समर्थन पाने के योग्य करते हैं, किन्तु तदर्थ आने-जाने का समर्थन नहीं होना चाहिए।
एक मनुष्य तीर्थकर के दर्शन के लिए जा रहा है और दूसरा वेश्या के यहाँ जा रहा है, तो कहाँ शुभ योग है और कहां अशुभयोग ? जाने की दृष्टि से तो दोनों ही जा रहे हैं, किन्तु एक के जाने में शुभयोग है और दूसरे के जाने में अशुभयोग है । हाँ, तो जाना-आना मुख्य नहीं है, शुभयोग या अशुभयोग ही मुख्य हैं। अतः इस प्रकार प्रवृत्ति करना, न करना मुख्य नहीं है, किन्तु उस प्रवृत्ति के पीछे यदि शुभ योग है तो वह शुभाश्रव है, पुण्य है, और प्रवृत्ति न करने पर भी यदि योग अशुभ है तो वहाँ अशुभाश्रव है, पाप-बंध है । महारंभ और धावकत्त्व
देहातों में अग्रवाल, ओसवाल, पोरवाल, जाट आदि अनेक जातियाँ जैन हैं । उनमें बहुत से व्रतधारी श्रावक भी हैं, और वे खेती का व्यवसाय करते हैं। तो क्या वे श्रावक कहे जा सकते हैं, या नहीं ? अत: अब मुख्य प्रश्न एक ही है, कि-क्या श्रावकत्व और खेती का परस्पर ऐसा सम्बन्ध है कि जहाँ खेती है, वहाँ श्रावकत्व नहीं रह सकता ? और जहाँ श्रावकत्व है, वहाँ खेती नहीं रह सकती ? यदि ऐसा ही है तो एक बात अवश्य आएगी कि उन जैन-परम्पराओं के अनुयायियों को स्पष्टरूप से कह देना होगा कि आपको इस भूमिका में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि खेती करना महारम्भ है। और जहाँ महारम्भ विद्यमान है वहाँ श्रावकत्व स्थिर नहीं रह सकता।
किन्तु उपासकदशांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि-'पन्द्रह कर्मादानों में मर्यादा नहीं है।
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