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अहिंसा - दर्शन
शास्त्रकार, इसीलिए तो कहते हैं कि जो भी सत्कर्म करना हो, उसे यथाशीघ्र कर लो किन्तु उसके फल में आसक्ति मत रखो। यह बावड़ी मेरी है, इसका पानी मेरे अतिरिक्त दूसरे क्यों पीएं ? इस पर पैर रखने का भी दूसरों को क्या अधिकार है ? हम जिसे चाहें, उसे ही पानी लेने देंगे और जिसे नहीं चाहें, उसे नहीं लेने देंगे ! इस प्रकार की क्षुद्र ममता ही मेंढक बनाने वाली है । ज्ञातासूत्र या कोई दूसरा सूत्र उठा कर देखो । पर उसमें भी एक ही बात पाएँगे कि - मनुष्य तू सत्कर्म कर ! पर ममता और आसक्ति मत रख । नन्दन मणियार को कुंए ने मेंढक नहीं बनाया, उसके सत्कर्म ने मी मेंढक नहीं बनाया । यदि ऐसा होता तो चक्रवर्ती सम्राटों ने देश के हित के लिए जलाशय का निर्माण आदि अनेक काम किए हैं, तो उन सबको भी मेंढक और मछली बनना चाहिए था । परन्तु वे तो मेंढक नहीं बने। इससे प्रमाणित होता है कि मेंढक बनाने वाला कारण कुछ और ही है, सत्कर्म नहीं ।
इस प्रकरण में कृषि के संबंध में कतिपय प्रश्नों पर चर्चा की गई है और इससे पहले भी काफी विवेचन हो चुका है । जो कुछ कहा गया है, उस पर निष्पक्ष बुद्धि से वास्तविकता को समझने की विशुद्ध भावना से विचार करना चाहिए जिससे भ्रम दूर होगा और सत्य का सुनिश्चित मार्ग उत्तरोत्तर सरल होता जाएगा ।
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