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अहिंसा-दर्शन
यदि तीर्थकर ने एक वर्ष तक एक दान दिया तो बड़ा भारी पुण्य किया, सत्कर्म किया, किन्तु समस्त आगम-साहित्य में एक भी ऐसा शब्द नहीं है कि उन्होंने किस उद्देश्य से दिया । कोई विशेष स्पष्टीकरण भी नहीं है कि उस दान के पीछे उनका क्या लक्ष्य था, कौन-सा संकल्प था और क्या भावनाएँ थी? अस्तु आगम और आगमेतर साहित्य के विश्लेषण द्वारा जाँच कर जाना जा सकता है कि उक्त वर्षीदान की पृष्ठ-भूमि में भगवान् की सद्भावना ही थी, दुर्भावना नहीं। और जब यह कहा जाता है कि भगवान् के दान के पीछे जनता के हित की भावना थी, तो यह जैनधर्म की प्रकृति के अनुरूप प्रामाणिक अनुमान बन जाता है, परन्तु कृषि के सम्बन्ध में तो आगम में स्पष्ट ही उल्लेख किया गया है। स्पष्टीकरण
इस सम्बन्ध में जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति का पाठ भी देखा जा चुका है। भगवान् ने प्रजा के हित के लिए सुख सुविधा के लिए कृषि आदि का उपदेश दिया था ।२ फिर भी कुछ लोग कृषि को महापाप में गिनते हैं ? ऐसी स्थिति में शास्त्र की आवाज कुछ और है तथा जनता की आवाज कुछ दूसरे ही ढंग की है।
अभिप्राय यह है कि तीर्थंकरदत्त दान के सम्बन्ध में आगम में कोई ऐसा स्पष्टीकरण नहीं है कि-वह किसलिए दिया गया ? फिर भी उसे सत्कर्म या धर्म समझा जाता है । किन्तु कृषि के सम्बन्ध में जबकि प्रामाणिक स्पष्टीकरण मौजूद है, तब भी कुछ लोग उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते । यदि वैसे लोगों का निर्णय यही है कि तीर्थंकरों ने छद्मस्थदशा में जो कुछ भी किया था, वह सब पाप था, अधर्म था और प्रजा के हित के लिए की हुई उनकी प्रवृत्ति भी पापमय थी, तब तो उन्हें निश्चितरूप से दूसरी कतार में खड़ा हो जाना चाहिए । वामपक्ष वालों के लिए इसके सिवाय और कोई मार्ग नहीं है । भीषण अज्ञान
परन्तु यह निर्णय निष्पक्ष निर्णय नहीं कहलाएगा। ऐसा मनमाना निर्णय कर लेना तीर्थंकर भगवान् की पवित्र प्रेरणा पर प्रतिक्रियावादी प्रतिबन्ध लगाना है और उनकी विशुद्ध ज्ञानात्मा को अपमानित करना है। विचार विषमता और संकीर्णताओं से अपने मन एवं मस्तिष्क को शुद्ध बनाकर आस्तिक भाव से यह जान लेना चाहिए कि तीर्थंकर की आत्मा अनेक जन्मों के संचित पवित्र संस्कारों को ले कर ही अवतीर्ण होती है ; अस्तु, उनके सम्बन्ध में यह समझ लेना कि जनता के अहित के लिए वे प्रवृत्ति करते हैं या जगत् को पाप सिखाने के लिए कोई कुत्सित कार्य करते हैं, भीषण अज्ञान है । यह तीर्थंकर का अवर्णवाद है।
गृहस्थावस्था में उनके राजा बनने को एकान्त पाप बतलाना भी गलत है।
१ ‘पयाहियाए उवदिसई ।'
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