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अहिंसा-दर्शन
मान लिया कि एक मनुष्य नदी में डूब रहा है । वह तैरना नहीं जानता, किन्तु दूसरा तैरना जानता है और झटपट उसे निकाल देता है । इस प्रकार वह जब-तब डूबते हुओं का उद्धार करता रहता है, किन्तु किसी को तैरना नहीं सिखलाता है । एक दूसरा व्यक्ति है, जो तैराक है और डूबते हुए को देखते ही निकाल लेता है, साथ ही उसे तैरने की कला भी सिखाता है । इन दोनों में किसका कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण है ?
'तैरना सिखाने वाले का !'
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बिल्कुल ठीक है; क्योंकि तैराक अपने सामने डूबते को तो निकाल सकता है, परन्तु यदि वह व्यक्ति फिर कहीं अन्यत्र डूब जाए तो कौन निकालने आएगा ? वह कहाँ-कहाँ उसके पीछे लगा रहेगा ? यदि वह तैरने की कला भी उसे सिखा देता है और स्वावलम्बी बना देता है तो वह कहीं नहीं डूबेगा और सदैव निर्भय रहेगा । वह स्वयं तैर सकेगा, दूसरों को तैरना सिखाएगा और यथावसर यत्र-तत्र डूबते हुए अन्य व्यक्तिों को भी बचा सकेगा । यदि कोई तैराक दूसरों को तैरना न सिखाएगा और सिर्फ डूबने वालों को पकड़-पकड़ कर निकाला ही करेगा तो डूबने वालों को बचाने की जटिल समस्या कभी हल न होगी ।
इसलिए देश के नेतागण प्रायः अपने भाषणों में नवयुवकों को अपने देश के महत्त्वपूर्ण उद्योग सीखने की प्रेरणा देते हैं, उद्योगों का विकास करते हैं । और वैसे ही देश की आर्थिक तथा खाद्य समस्याओं को हल करते हैं । इसी को कहते हैं तैरने की कला सिखलाना ।
संग्रहवृत्ति
वस्तुतः भगवान् ऋषभदेव ने भी उन युगलियों को तैरने की कला सिखाई थी । उनके समय में मनुष्यों की संख्या बढ़ रही थी । इधर माँ-बाप भी जीवित रहते थे और उधर सन्तान की संख्या में भी निरन्तर वृद्धि हो रही थी । केवल एक जोड़ा सन्तान उत्पन्न होने का प्राकृतिक नियम उस समय टूट गया था; फलतः सन्तानें बढ़ चली थीं । स्वयं ऋषभदेव भगवान् के सौ पुत्र और बहुत से प्रपुत्र थे । परन्तु दूसरी ओर कल्पवृक्षों ; अर्थात् - उत्पादन के साधन में कमी होती जा रही थी । उस समय का इतिहास पढ़ने से मालूम होता है कि जिन युगलियों को पहले वैर-विरोध ने कभी छुआ तक न था, वे भी खाद्य के लिए आपस में गाली-गलौज करने लगे, जिससे परस्पर द्वन्द्व होने लगे थे । लाखों वर्षों तक कल्प वृक्षों का बँटवारा नहीं हुआ था, किन्तु अब वह भी होने लगा और वृक्षों पर अपना-अपना पहरा बिठाया जाने लगा । एक जत्था दूसरे झत्थे के कल्प वृक्ष से फल लेने आता तो संघर्ष हो जाता । एक वर्ग कहता — यह कल्प वृक्ष मेरा है, मेरे सिवा इसे दूसरा कौन छू सकता है ? दूसरा वर्ग कहता - यह मेरा है, अन्य कोई इसके फल नहीं ले सकता । उस समय सब के मुख पर यही स्वर गूंज रहा था --- मैं पहले खाऊँगा । यदि तू इसे ले लेगा, तो मैं क्या खाऊँगा ? इस प्रकार संग्रह-वृत्ति बढ़ने लगी थी ।
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