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आर्य-कर्म और अनार्य-कर्म
है कि उस साधक को खेत मिलेगा ! उसे खेत की उपजाऊ भूमि मिलेगी, जिसमें वह सोने से भी बढ़ कर जीवनकण अन्न उत्पन्न करेगा ।"
यहाँ सोने और चाँदी से भी पहले खेत की गणना की गई है । जैन परम्परा खेती-बाड़ी को पुण्य का फल मानती है । खेती-बाड़ी, खेत और जमीन यदि पाप के फल होते तो शास्त्रकार उसे पुण्य का फल क्यों बतलाते ?
उत्तराध्ययन सूत्र में आगे भी कहा है-कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र भी होता है कौन - सा कर्म ?
यहाँ कर्म से वैश्य होना बतलाया गया है, परन्तु उस कर्म का निर्णय आप कैसे करेंगे ? कौन-सी दया, पौषध आदि क्रिया है, जो आपमें से किसी को ब्राह्मण, किसी को क्षत्रिय, किसी को वैश्य और किसी को शूद्र बनाती है ? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में बाँटने वाला कर्म कौन-सा है ? धार्मिक नियम और मर्यादाएँ तो सभी " के लिए समान हैं और उनका फल भी सभी के लिए समान ही बताया गया है । कोई धार्मिक नियम या व्रत कर्म ऐसा नहीं, जो किसी एक को ब्राह्मण और किसी दूसरे को वैश्य बनाता हो ।
तब फिर यहाँ 'कर्म' से क्या अभिप्राय है ? इसे समझने के लिए प्राचीन टीकाकारों की ओर नजर डालनी होगी । उत्तराध्ययन पर विस्तृत और प्रांजल टीका लिखने वाले वादि- वेताल शान्त्याचार्य विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में हो गए हैं । उन्होंने अपना स्पष्ट चिन्तन जैन जनता के सामने रखा है । उन्होंने 'कम्मुणा वइसो होइ' पद पर टीका लिखते हुए कहा है :
"कृषि - पशु-पालन - वाणिज्यादि कर्मणा वैश्यो भवति ।" भगवद्गीता में भी यही बात स्पष्टरूप से कही गई है :“कृषि-गोरक्ष-वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।”
लोग प्रामाणिक शास्त्रों का दिव्य प्रकाश उपलब्ध होते हुए भी आज गलतफहमी के कारण कर्मों को समझने में भी भ्रमित हो गए हैं, लेकिन प्राचीन जैन और
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खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पसवो दास -- पोरुसं । चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जइ ॥ मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं । अप्पायं के महापण्णे, अभिजाए जसो बले ।
८ "कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होइ खत्तिओ । इसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्णा ||"
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- उत्तरा० ३, १७-१८
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