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अहिंसा-दर्शन
जो भी काम करता है उसमें विवेक की दृष्टि अवश्य रखता है। श्रावक का हाथ वह अद्भुत हाथ है कि जिसे वह छू ले, बस, सोना बन जाए। श्रावक की भूमिका वह भूमिका है, जिसमें विवेक का जादू है । यही जादू उसके कार्य को अल्पारंभ बना देता है।
असली चीज तो विवेक है । जहाँ विवेक नहीं है, वहाँ खेती भी सावद्यकर्म है। यहाँ तक कि विवेक के अभाव में लेखन तथा वस्त्र आदि का व्यवसाय करना भी अल्पारंभ नहीं होगा।
इस तरह जीवन के प्रत्येक प्रश्न पर आर्यकर्म और अनार्यकर्म तथा अल्पारंभ और महारंभ का निर्णय कर लेना चाहिए। विवेक को त्याग कर यदि किसी एक ही पक्ष के खूटे को पकड़ कर चिल्लाते रहेंगे तो हमारी समझ में कुछ भी नहीं आएगा और साथ ही जैनधर्म भी विश्व की दृष्टि में हेय सिद्ध हो जाएगा।
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