Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 307
________________ २६० अहिंसा-दर्शन प्राप्त हो सकती है और हमारा सात्विक जीवन उन पर निर्भर हो सकता है। जब कृषि जैसे सात्विक कर्म को अपनाया जायेगा, तभी मांसाहार जैसे भयंकर पाप से हम बच सकेंगे। मांसाहार को छोड़ना हमारी सांस्कृतिक जीवन-यात्रा का प्रारम्भिक उद्देश्य है. और इस उद्देश्य की पूर्ति कृषि-कर्म से ही हो सकती है। इसी आधार पर जैनसंस्कृति में कृषिकर्म को अल्पारम्भ और आर्यकर्म कहा गया है। अभिप्राय यह है कि जितनी हमारी अहिंसा की स्मृति आगे बढ़ी, उसके साथसाथ उसमें एक धुंधलापन भी आगे बढ़ता गया, और उसमें हमारा जो मूल अभिप्राय था, वह समय के साथ क्षीण होता चला गया। इसलिए आगे चल कर कुछ लोगों ने कृषि को महारम्भ स्वीकार कर लिया, और जब उसे महारम्भ स्वीकार कर लिया, तो उसे छोड़ने की बात भी लोगों के ध्यान में आने लगी। लोग अपनी बात सिद्ध करने के लिए आगम का आधार तलाश करने लगे, परन्तु आगम में कहीं पर भी कृषि को महारम्भ नहीं कहा गया । क्योंकि आगम में जो महारम्भ का फल बताया है, उसमें कहा गया है, कि महारम्भ नरक में जाने का कारण बनता है । अब विचार कीजिए कि जब कृषि को महारम्भ बताया गया, तब उसकी फलश्रुति के अनुसार नरक में जाने की बात भी लोगों के सामने आयी । लोगों ने विचार किया, परिश्रम भी करें और नरक में भी जाना पड़े तो इस प्रकार का गलत धन्धा क्यों करें ? इस प्रकार के मिथ्या तर्कों से जनता के मानस को बदलने का प्रयत्न किया गया। परिणामतः जैनों ने कृषिकर्म का परित्याग कर दिया। अन्यथा भारतीय संस्कृति और विशेषत: जैनसंस्कृति में मूलतः अहिंसा का दृष्टिकोण ले कर चला था, यह कृषिकर्म । साधक जीवन के दो भाग यहाँ हमें शास्त्रों की ओर भी दृष्टिपात कर लेना चाहिए कि वे क्या कहते हैं। साधारणतया साधकों के जीवन के दो भाग होते हैं-एक गृहस्थ-जीवन और दूसरा साधु-जीवन । गृहस्थ को अपने आदर्श गृहस्थ-जीवन की ऊँचाइयाँ प्राप्त करनी चाहिए और साधु को अपने शाश्वत क्षेत्र में जीवन के सर्वोच्च शिखर का स्पर्श करना चाहिए । ऐसी बात नहीं है कि साधु बनते ही उसके जीवन में पूर्णता आ जाती है । महाव्रतों को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करते ही जीवन में पूर्णता आ जाती है, ऐसा समझना सर्वथा भ्रमपूर्ण होना है। साधु अपने आप में अपूर्ण होता है और उसे शाश्वत जीवन की पूर्णता प्राप्त करने का प्रयास करना पड़ता है। वस्तुतः पूर्णता हिमालय की सर्वोच्च चोटी है और साधु को वहाँ तक पहुंचने के लिए कठिन साधना अपेक्षित है। ___ यह ठीक है कि साधु, श्रावक की अपेक्षा कुछ आगे बढ़ा होता है, कुछ ऊँचा भी चढ़ा होता है, मंजिल की राह पर दूर तक आगे बढ़ चुका होता है और दूसरी ओर गृहस्थ अपने क्षेत्र में चलना प्रारम्भ करता है । फिर भी साधु का जीवन ऊँचा-नीचा है । उसकी भी अनेक श्रेणियाँ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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