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कृषि : अल्पारम्भ और आर्यकर्म है
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आर्यत्व भी है। इसका मूल कारण यही है कि श्रावक का दृष्टिकोण साधु की भाँति परम सत्य की ओर है, बंधनों के पाश को तोड़ने की ओर ही है ।
सूत्रकृतांग में भी क्रियास्थानक में, जहाँ क्रियाओं का वर्णन है, गृहस्थ को साधु की भाँति ही एकान्त आर्य बताया है। ऐसी स्थिति में यदि साधु भोजनादि क्रियाएँ करे तो पाप नहीं, और यदि श्रावक वही विवेक-पूर्वक भोजनादि क्रियाएँ करे तो एकान्त पाप ही पाप चिल्लाना, भला किस प्रकारशास्त्र संगत हो सकता है ? वही कार्य करता हुआ श्रावक पापी और कुपात्र कैसे हो गया ? इस पर निष्पक्षतापूर्वक विचार करना चाहिए। पाप करना और होना
पाप करना एक चीज है और पाप हो जाना दूसरी चीज है । पाप तो साधु से भी होना सम्भव है । वह भी कभी किसी प्रवृत्ति में भूल कर बैठता है । पर, यह नहीं कहा जा सकता कि साधु जान-बूझ कर पाप करता है । वास्तव में वह पाप करता नहीं है, अपितु हो जाता है। इसी प्रकार श्रावक भी कुछ अंशों में तटस्थवृत्ति ले कर चलता है । परिस्थिति-वश उसे आरंभ करना भी होता है, परन्तु वह प्रसन्नभाव से नहीं, उदासीनभाव से, मूल में उसे हेय समझता हुआ करता है। यद्यपि कोई गृहस्थ आसक्तिभाव से आरंभादि पापकर्म करता है पाप-कर्म के लिए उत्साहित हो कर कदम रखता है तो वह अनार्य है, तथापि जो गृहस्थ काम तो करता है, पर उसमें मिथ्यादृष्टि जैसी आसक्ति नहीं रखता, वह उसमें से आसक्ति के विष को कुछ अंशों कम में करता जाता है, तो वह अनार्य नहीं कहा जा सकता । यदि ऐसा न होता तो भगवान् उसे एकान्त सम्यक् एवं आर्य क्यों कहते । श्रावक की भूमिका
___ एक ओर भगवान् ने श्रावक के जीवन को एकान्त सम्यक् आर्य-जीवन कहा है और दूसरी ओर आप खेती-वाड़ी का धन्धा करने वाले श्रावक को अनार्य समझते हैं । ये दोनों एक-दूसरे के परस्पर विरोधी बातें कैसे मेल खा सकती हैं ? यदि दिन को कोई व्यक्ति दिन भी कहे और साथ ही उसे रात भी कहता जाए, भला यह असंगत बात, बुद्धि कैसे स्वीकार कर सकती है ? श्रावक की भूमिका अल्पारंभ की है, महारंभ की नहीं । महारंभ का मतलब है-घोर हिंसा और घोर पाप । महारंभी की गति नरक है, यह बात शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कही है।
यहाँ नरक-गति के चार कारणों में पहला कारण महारंभ है। एक ओर तो श्रावक को अल्पारंभी स्वीकार किया जाता और दूसरी तरफ खेती-बाड़ी करने के
२ “महारंभयाए, महापरिग्गहयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं ।"
-औपपातिक सूत्र
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