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अहिंसा-दर्शन
ऊंचाई और नीचाई भले ही रहे, परन्तु उसी को व्यर्थ की चर्चा का आधार बनाने में कोई महत्त्व नहीं है । नीचे की भूमिकाओं को पार करके ऊँची भूमिका में प्रतिष्ठित होना ही महत्त्वपूर्ण बात है । अस्तु, देखना चाहिए कि जीवन ऊपर की ओर गतिशील है या नीचे की ओर ? साधक कहीं नीचे की ओर तो नहीं खिसक रहा है ?
श्रावक मिथ्यात्व के प्रगाढ़ अंधकार का भेदन कर, अनन्तानुबंधीरूप तीव्र कषाय की फौलादी दीवार को लाँघ कर, अव्रत के असीम सागर को पार करके और अपरिमित भोगों की लिप्साओं से ऊँचा उठता है । वह मिथ्यात्व की दुर्भेद्य ग्रन्थियों को तोड़ता है और अहिंसा एवं सत्य के प्रशस्तमार्ग पर यथाशक्ति प्रगति करता है । यह बात दूसरी है कि वह उच्च साधक की तरह तीव्र गति से दौड़ नहीं सकता, मन्द गति से टहलता हुआ ही चलता है। एकान्त आर्यस्थान
__सूत्रकृतांगसूत्र में अधर्म और धर्म-जीवन के सम्बन्ध में एक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण चर्चा चली है । वहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जो मिथ्यात्व और अविरति आदि में पड़े हैं, वे आर्य-जीवन वाले नहीं हैं, किन्तु जिन्होंने हिंसा और असत्य के बन्धन कुछ अंशों में तोड़ डाले हैं, जो अहिंसा और सत्य को हितकारी समझते हैं, असत्य आदि के बन्धनों को पूरी तरह तोड़ने की उच्च भावना रखते हैं और क्रमश: तोड़ते भी जाते हैं, वे गृहस्थ श्रावक भी आर्य हैं। उनका कदम संसार के शृखलाबद्ध मार्ग की ओर है या मोक्ष के मुक्तिमार्ग की ओर ! सहज विवेक-बुद्धि से विचार करने वाला तो अवश्य ही कहेगा-मोक्ष की ओर । ऐसे गृहस्थ के विषय में ही सूत्रकृतांग कहता है
__ जो यह गृहस्थ-धर्म की प्रशंसा में आर्य एवं एकान्त सम्यक आदि की बात कही है, वही सर्व विरति साधु के लिए भी कही गई है।
कदाचित् कोई कह सकता है कहाँ गृहस्थ और कहाँ साधु ? साधु की तरह गृहस्थ एकान्त आर्य कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए एक अन्य प्रश्न करना अनिवार्य है । गृहस्थ श्रावक मर कर कहाँ जाता है ?
'देवलोक में ! 'और साधु ?'
'छठे से ग्यारहवें गुणस्थान वाला साधु भी मरने के बाद देवलोक में ही जाता है।'
इस प्रकार जैसे दोनों की गति देवलोक की है, उसी प्रकार दोनों में एकान्त
१ "एस ठाणे आरिए जाव सव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्म साहू।"
सूत्रकृतांग, द्वि० श्रु तस्कन्ध अ० २, सू० ३६
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