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आर्य-कर्म और अनार्य-कर्म
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का कारण है; यदि उनमें विवेक नहीं है, ज्ञान की सुगंध नहीं है, सावधानी नहीं है, तो वे प्रवृत्तियाँ 'आश्रव' का कारण बन जाती हैं । श्रावक एवं साधु बन जाना संवर है, किन्तु कर्त्तव्य की पवित्र भावना यदि न रही, सत्-असत् का विवेक न रखा गया, तो वह ऊपर से दिखाई देने वाला संवर भी आश्रव है। वह रंग-रोगन किया हुआ कागज का फूल है, जिसकी कलियों में प्रेम, शील आदि सद्गुणों की सुवास नहीं है।
यह है 'आश्रव' और 'संवर' के विषय में जैन धर्म का स्पष्ट दृष्टिकोण ! यह है 'आस्रव' और 'संवर' को नापने का जैन-धर्म का विशाल गज ! जिस धर्म ने इतना महान् मंगल-सूत्र सिखाया हो, उसके अनुयायी-वर्ग में जब धर्म के प्रति संकुचित और गलत दृष्टिकोण पाए जाते हैं तो किसी के भी मन में इसके प्रति निराशा की लहर उठ सकती है । हम सोचते हैं कि जब जैन-धर्म ने अपने साधकों को मार्ग खोजने के लिए प्रकाशमान रत्न दे दिया है, फिर तो यह उन साधकों की ही अपनी गलती है, जो ऐसा अमूल्य रत्न पा कर भी अन्धश्रद्धा की दीवार से सिर टकराएँ और व्यर्थ का वितण्डावाद बढ़ाएँ । सचमुच जैन-धर्म ने 'आश्रव' और 'संवर' के कार्यों की लम्बी सूची नहीं बनाई है, सूची पूरी बनाई भी नहीं जा सकती। उसने थोड़े से भेद गिना कर उनके बाद विराम नहीं लगा दिया है। आर्य-अनार्य कर्मों के सम्बन्ध में भी उसने कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य गिना कर ही समाप्ति की घोषणा नहीं कर दी है। उसने तो 'जे यावन्न तहप्पगारा' लिख कर स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकार के जो भी अन्य कार्य हैं, वे सभी आर्य-कर्म हैं । इसी प्रकार ‘आश्रव' और 'संवर' के विषय में भी उसने कहा है"विवेकी पुरुष आश्रव में भी संवर की स्थिति प्राप्त कर सकता है, और अविवेकी पुरुष संवर के कार्य में भी आश्रव ग्रहण कर लेता है। यह दृष्टिकोण कितना व्यापक एवं शाश्वत है ! सबसे बड़ा प्रमाण
सामान्यतया कहा जा सकता है कि खेती आर्य-कर्म है, इस विषय में प्रमाण क्या है ? इसके उत्तर में सबसे पहले यही कहा जा सकता है कि प्रश्नकार का विवेक ही प्रमाण है, उसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ ही प्रमाण हैं। सबसे बड़ा प्रमाण मनुष्य का अपना अनुभव ही है। क्या तीर्थंकर किसी बात के निर्णय के लिए किसी ग्रंथ, शास्त्र या महापुरुष के किसी वाक्य को खोजते-फिरते हैं ? नहीं। उनके पास तो ज्ञान का वह अनुपम सर्चलाइट है, जिसके समक्ष सभी प्रकाश फीके पड़ जाते हैं । उन्हें किसी भी ग्रंथ या पोथे को टटोलने की जरूरत ही नहीं होती।।
इसी प्रकार जिसके पास विवेक-बुद्धि है, उसे कहीं भी भटकने की आवश्यकता नहीं है । जिसकी दृष्टि सम्यक् है और सत्य के प्रति सच्ची निष्ठा है तो वह किसी भी चीज के औचित्य-अनौचित्य का निर्णय स्वयं कर सकता है । 'केवल-ज्ञान' से भी पहला नम्बर आत्मा के 'सहज-विवेक का है, क्योंकि वही तो सबसे पहले जाग्रत होता है और
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