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आर्य-कर्म और अनार्य-कर्म
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संकीर्ण बना लिया है। वे समझ बैठे है कि जो काम साधु करे, उसी में धर्म है; और जो काम साधु न करे, उसमें पाप के सिवाय और कुछ नहीं है। बहुतेरे लोगों के दिमाग में ऐसी भ्रान्त धारणा बैठ गई है। इसलिए उनका विश्वास हो गया है कि रोटियाँ खाई तो जाएँ, पर उनके लिए कमाई न की जाए; कपड़ा पहना तो जाए, पर बुना न जाए; पति-पत्नी बना तो जाए, परन्तु एक-दूसरे की सेवा न की जाए: माता का पद तो लिया जाए, पर माता का काम न किया जाए; पिता बनने में सौभाग्य समझते हैं, परन्तु पिता के दायित्व से बचना चाहते हैं !
__इन भ्रमपूर्ण धारणाओं ने आ कर गृहस्थ-जीवन को विकृत कर दिया है। आखिर यह उल्टी गाड़ी कब तक चलेगी? क्या जैन-धर्म ऐसी उलटी गाड़ी चलाने का आदेश देता है ? वह ऐसा तो कभी नहीं कहता कि जो कुछ तुम बनना चाहते हो, उसके दायित्व से बचने की कोशिश करो।
जैन-धर्म जीवन की आवश्यक प्रकृतियों को एकान्ततः बन्द करने के लिए नहीं आया है। वह इस सम्बन्ध में एक सुन्दर सन्देश देता है, जो सर्वतोभावेन अभिनन्दनीय है। त्याग नहीं, सुधार
खेती-बाड़ी, व्यापार-वाणिज्य आदि जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं, उन सबको बन्द करके कोई जीवन के पथ पर चलना चाहे तो एक दिन भी टिक नहीं सकता। यही नहीं, अकर्मण्य हो कर, आलसियों की पंक्ति में बैठ जाने मात्र से ही वह प्रवृत्तियों से छुटकारा नहीं पा सकता। उसका मन, जो कि प्रवृत्तियों का मूल स्रोत है, अपनी उधेड़-बुन में निरन्तर लगा ही रहता है । उसकी दुकानदारी कभी बन्द नहीं होती। उसे कहीं ले जा कर बिठाया नहीं जा सकता, और किस कोने में भला छिपाया जा सकता है ? ऐसी स्थिति में जैन-धर्म कहता है-प्रवृत्तियाँ भले ही हों, पर उनमें जो विष का पुट है, उसे हटा दो । उनके पीछे क्ष द्र स्वार्थ एवं आसक्ति की जो विषाक्त भावनाएं हैं उन्हें धक्का दे कर बाहर निकाल दो। यदि तुम दुकान पर बैठे हो तो अन्याय से धन न बटोरो, किसी गरीब का खून मत चूसो, दूसरों को मूडने की ही दुर्वृत्ति मत रखो। तुम्हारी प्रवृत्ति से यदि अनीति और धोखाधड़ी का विष निकल जाएगा, तो वह तुम्हारे जीवन की प्रगति में बाधक नहीं बनेगा, अपितु विकास की नई प्रेरणा प्रदान करेगा।
___ खेती-बाड़ी करने वाले को भी जैन-धर्म यही कहता है कि यदि तुम खेती करते हो तो उसमें अन्धाधुन्धी से प्रवृत्ति मत करो। खेती की प्रवृत्ति में से अज्ञान और अविवेक का जहर निकाल दो। अपने उत्पादन किए अन्न को ऊंचे दामों में बेचने के लिए दुर्भिक्ष पड़ने की गन्दी कामना न करो, बल्कि दूसरों के जीवननिर्वाह में सहायक बनने की करुणामयी पवित्र भावना रखो। बस, वही खेती आर्यकर्म कहलाएगी। पवित्र एवं करुणामयी भावना के अनुरूप कुछ अंश में पुण्य का उपार्जन भी किया जा सकेगा।
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