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अहिंसा-दर्शन
प्रकृति शोक से विह्वल हो रही है। हाय, हम मनुष्यों से तो ये पशु-पक्षी ही अच्छे हैं । कहाँ हमारी निष्ठुरता और कहाँ इनकी दयालुता और कोमलता !"3_
__ मनुष्य का मनुष्य के प्रति, यहाँ तक कि पति का पत्नी के प्रति और पिता का पुत्र के प्रति, पुत्र का पिता के प्रति जो अशोभनीय व्यवहार देखा जाता है, उसे देखते हुए लक्ष्मण यदि मनुष्यों की अपेक्षा पशुओं को श्रेष्ठ कहते हैं तो कोई आश्चर्य न होगा। पशु कम से कम एक मर्यादा में तो रहते हैं। वे अपनी जाति के पशु पर तो अत्याचार नहीं करते । सिंह कितना ही क्रूर क्यों न हो, पर वह भी अपने सजातीय सिंह को तो कभी नहीं खाता । एक भेड़िया दूसरे भेड़िये को तो नहीं मारता । पर, क्या मनुष्य ने इस पवित्र मर्यादा को कभी स्वीकार करने का स्वप्न में भी विचार किया है ?
दूसरी ओर पशु, जब पशु पर आक्रमण करता है तो वह पर्दे के पीछे से वार नहीं करता, सीधा आक्रमण कर देता है। किन्तु मनुष्य, मनुष्य को धोखा देता है, भुलावे में डालता है, विश्वासघात करता है और पीठ में छुरा भोंकता है ।
सच पूछो तो मनुष्य ही मनुष्य के लिए सबसे ज्यादा भयंकर है। मनुष्य को मनुष्य से जितना भय है, उतना शायद और किसी भी हिंसक पशु से नहीं है ।
महाभारत का आदि से अन्त तक पारायण कर जाने पर पता लगता है कि एक के हृदय में लोभ उत्पन्न होता है, तृष्णा जागती है और उसी का कुपरिणाम महाभारत के रूप में आता है, जिसने सारे भारत को वीरान बना दिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि क्या रामायणकाल में, क्या महाभारतकाल में और क्या वर्तमान में; केवल मनुष्य ही मनुष्य पर दुःखों और मुसीबतों का पहाड़ लादता रहा है । मनुष्य ही मनुष्य के सामने राक्षस और दैत्य बन कर आता है और उसका मनमाना शोषण करता है।
कहा जाता है कि कुछ अंग्रेज लोग एक चिड़िया-घर देखने गए, वहाँ उन्होंने शेरों और भेड़ियों को गरजते देखा । वे आपस में कहने लगे-- 'इन्होंने न जाने कितनी शताब्दियाँ गुजार दी, फिर भी ये हैवान के हैवान ही रहे । इन्होंने अपनी पुरानी आदतें नहीं छोड़ी। इनका कैसे विकास होगा ?' इस प्रकार शेरों और भेड़ियों की आलोचना करते-करते ज्यों ही वे बाहर आते हैं तो देखते हैं कि उनकी जेब काट ली गई है। जिनकी जेब काट ली गई थी, वे कहने लगे- "हम शेरों और भेड़ियों की आलोचना करते-करते नहीं अघाते थे, पर उन्होंने जेब काटना तो नहीं सीखा। किन्तु विकासप्राप्त आदमी ने तो आदमी की जेब काटने की कला भी सीख ली है।"
३ "एते रुदन्ति हरिणा हरितं विमुच्य, हंसाश्च शोकविधुराः करुणं रुदन्ति । नृत्यं त्यजन्ति शिखिनोऽपि विलोक्य देवी, तिर्यग्गता वरममी, न परं मनुष्याः ॥"
-कुन्दमाला
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