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अहिंसा - दर्शन
वाले, परश्रमोपजीवी गृहस्थों को भिक्षा से निर्वाह करने का अधिकार कब और कहाँ दिया है ? ऐसे सामान्य गृहस्थों के लिए भिक्षा का विधान ही कहाँ है ? जो हट्टे-कट्टे हो कर भी दूसरों के श्रम के सहारे माल उड़ाते हैं और भिक्षा करके सुखी जीवन बताते हैं, उनकी भिक्षा को हमारे यहाँ 'पोरुषघ्नी' भिक्षा बतलाया गया है । सामान्य गृहस्थ की भूमिका, श्रम करने की है, भिक्षा माँग कर खाने की नहीं ।
प्रवृत्ति का प्राबल्य
इस प्रकार जीवन तो चाहे साधु का हो या गृहस्थ का, प्रवृत्ति के बिना चल नहीं सकता । इतना ही नहीं, प्रवृत्ति के बिना संसार में क्षणभर भी नहीं रहा जा सकता । इस सम्बन्ध में गीताकार कितनी आदर्शपूर्ण बात कहते हैं— कोई भी व्यक्ति क्षणभर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता ।
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यदि सारा संसार भिक्षा पात्र ले कर निकल पड़े तो रोटियाँ आएँगी भी कहाँ से ? क्या रोटियाँ आकाश से बरसने लगेंगी ? कोई देव आकाश से रोटियाँ नहीं बरसाएगा । उनके लिए तो यथोचित प्रवृत्ति और पुरुषार्थ करना ही पड़ेगा । प्रवृत्ति को कोई छोड़ ही नहीं सकता, वह तो सहज भूमिका आने पर और काल-लब्धि पूरी हो जाने पर, स्वतः ही छूट जाएगी। जब प्रवृत्ति छूटने का दिन आएगा, तब वह अपने आप छूटेगी ।
भगवान् शान्तिनाथ आदि ने चक्रवर्तीराज्य को स्वयं छोड़ा या भोग्यकर्म समाप्त होने पर वह यथासमय अनायास ही छूट गया ?
यह तो मानना ही पड़ेगा कि छोड़ने की भूमिका आने पर ही वह छोड़ा गया । जब तक छोड़ने की भूमिका नहीं आती, तब तक छोड़ा नहीं जाता । यदि छोड़ना ही था, तो पहले ही क्यों नहीं छोड़ दिया ? क्या पहले राज्य में आसक्ति की प्रधानता थी ? या उनमें छोड़ने की ताकत नहीं थी ? या उन्हें धर्म-निष्ठ जीवन की वास्तविकता ज्ञात नहीं थी ? नहीं, यह सब कुछ नहीं था । तब तक केवल काल-लब्धि परिपक्व नहीं हुई थी, इसलिए पहले नहीं छोड़ा गया ।
वृक्ष में फल लगता है । परन्तु जब तक वह कच्चा रहता है, तब तक डंठल से बँधा रहता है - झड़ता नहीं है । जब वह पक जाता है तो अपने आप टूट कर गिर जाता है, उसे बलात् तोड़ने की आवश्यकता नहीं रहती ।
९ देखिए, आचार्य हरिभद्र का भिक्षाष्टक
" न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
३ जैन-धर्म में काल - लब्धि का अर्थ है - " किसी भी स्थिति परिवर्तन के योग्य समय का पूर्ण हो जाना । स्थिति परिवर्तन में स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ आदि अनेक हेतु है, उनमें काल भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है ।"
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