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अहिंसा-दर्शन
है और संसार से क्या पाया है ? क्या तुमने मनुष्य के साथ मनुष्योचित व्यवहार किया है ? इन्सान हो कर भी इन्सान जैसा उठना, बैठना, बोलना और चलना सीखा है या नहीं ? यदि सीख लिया है और सदाचरण की परीक्षा में उत्तीर्ण भी हो चुके हों तो इन मनुष्योचित सद्गुणों की तुलना में तुम्हारी निर्धनता को बिल्कुल नगण्य मानकर हम तुम्हारा सम्मान करते हैं । इसके विपरीत यदि जिन्दगी में गरीब या अमीर रहते हुए भी इन्सानियत का पाठ नहीं सीखा और इन्सान के साथ इन्सान के जैसा मानवीय व्यवहार करना नहीं सीखा, तो हम सम्राट और गरीब दोनों से ही कहेंगे कि तुम्हारा व्यावहारिक जीवन गलत और दोषपूर्ण है और तुम हमारी ओर से अंशमात्र भी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकते ! जैन-धर्म तुम्हारे लिए प्रशंसा का एक शब्द भी नहीं कह सकता। भगवान् महावीर ने साधुओं से कहा है---- यदि तुमको एक भाग्यशाली सम्राट् सेठ या साहूकार मिल जाए तो तुम दृढ़तापूर्वक, अपने मन में किसी भी प्रकार का दबाव न रखते हुए, स्पष्टभाव से उपदेश दे सकते हो; और यदि कोई निर्धन मिले तो वही उपदेश उसे भी उसी भाव से दो। जिस प्रेम एवं स्नेह से चक्रवर्ती सम्राट को उपदेश देते हो, वही प्रेम और स्नेह किसी गरीब के लिए भी रखो । अपने अन्तःकरण में दोनों के लिए समान प्रेम और समान स्नेह का आदर्श सन्देश लेकर चलो।"२
हमें समाज से नहीं, किन्तु समाज के अन्तःस्तल में बैठे हुए और समाज को सही मार्ग से विचलित कर कुपथ पर ले जाने वाले कुविचारों से लड़ना है ।
भगवान् महावीर के युग में ब्राह्मणजाति की समस्या कितनी उलझी हुई थी ? जगह-जगह याज्ञिक हिंसा हो रही थी, संहार का नंगा नाच हो रहा था और खून की नदियाँ बह रही थीं। परन्तु भगवान् महावीर ने ब्राह्मण जाति का अंशमात्र भी विरोध नहीं किया, वरन् उस समय फैली हुई कुरीतियों को सुरीति में एवं दुर्नीति को सुनीति में परिणत करने के लिए स्पष्टोक्ति से काम लिया। उनके पास यदि राजा श्रीणिक या कूणिक आए तो भी, और निर्धन लकड़हारे आए तो भी, उन्होंने समानभाव और अदम्य साहस के साथ देश में फैली हुई बुराइयों के विरोध में जोरों से आन्दोलन चालू रखा । इसी प्रकार यदि कभी प्रशंसा का अवसर आया तो राजा की भी प्रशंसा की, और गरीब की भी की।
ऐसा अशोभनीय वर्ग-भेद एक अंश में भी प्रकट नहीं हुआ कि किसी राजा की राज्य-प्रभुता भगवान् महावीर को प्रभावित कर सकी हो और तदनुसार उन्होंने किसी रंक के प्रति भर्त्सनापूर्ण व्यवहार किया हो। उनकी निर्मल दृष्टि में किसी भी प्रकार का भेद-मूलक अपवाद अन्तिम क्षण तक पैदा नहीं हुआ था।
२ जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ ।
जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ।
-आचारांग, प्र० श्रु०
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