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अहिंसा दर्शन
है, दूसरों को नीचा समझ लेने से वास्तव में वे नीचे नहीं हो जाते, अपितु नीचा समझने वाला ही नीचा बन जाता है, क्योंकि वह जीवन की वास्तविक उच्चता को प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करता । वह तो अपनी कल्पित ऊँचाई में भूला रहता है । अतएव जिसे वास्तव में ऊपर उठना है उसे अपनी यह भूल सुधार लेनी चाहिए। इसके बिना न तो कोई व्यक्ति श्रेष्ठत्व पा सकता है, और न समाज अथवा कोई देश ही उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है ।
जैन धर्म कहता है कि मनुष्य जाति अपने आप में पवित्र है, फलतः सभी मनुष्य पवित्र हैं । जो भूलें हैं, गलतियाँ हैं, वे ही अपवित्र हैं । इसलिए वह दुराचारी से भी घृणा करना नहीं सिखाता । उसने बताया है कि चोर से घृणा मत करो, अपितु चोरी से घृणा करो । चोर तो आत्मा है और आत्मा कभी बुरा नहीं होता । जो तत्त्व तुम्हारे अन्दर है, वही चोर के अन्दर भी है । जो अच्छाइयाँ अपने में मानते हो, वही चोर में भी विद्यमान हैं। उसकी अच्छाइयाँ यदि चोरी के कारण छिप गई हैं, तो आप अपनी अच्छाइयों को घृणा और द्वेष से छिपाने का, दबाने का क्यों प्रयत्न करते हो ? इसके द्वारा आपके अन्दर कोई पवित्रता आने वाली नहीं है । हाँ, यदि आप चोरी को बुरा समझेंगे और चोर को घृणा की नहीं, किन्तु दया की दृष्टि से देखेंगे तो आप में अवश्य ही पवित्रता जागृत हो उठेगी ।
अच्छाई-बुराई का आधार व्यक्ति नहीं, कार्य
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एक आदमी शराब पीता है । आपकी दृष्टि में वह गिर जाता है, किन्तु कल शराब छोड़ देता है और सभ्यता एवं शिष्टता के सही मार्ग पर आ जाता है, अपने जीवन को ठीक रूप से गुजारने लगता है तो वह अच्छाई की दृष्टि से देखा जाता है या नहीं ? अवश्य ही, जब वह बुराई को छोड़ देता है तो ऊँची निगाह से देखा जाता है । वास्तव में शराब बुरी चीज है, वह कभी अच्छी होने वाली नहीं है । चाहे वह ब्राह्मण के हाथ में हो या शूद्र के हाथ में, महल में रखी हो या झोंपड़ी में; बुरी वस्तु, बुरी ही रहेगी । वह पवित्र बनने वाली नहीं है । किन्तु शराब पीना छोड़ कर आदमी पवित्र बन सकता है । चोर यदि चोरी करना छोड़ देता है तो पवित्र बन जाता है । इसी प्रकार दुराचारी भी दुराचार को त्याग कर पवित्र बन सकता है ।
इस तरह जैन-धर्म ने बताया कि मनुष्य की घृणा व्यक्ति के गलत कार्यों पर हो, व्यक्ति पर नहीं । चोर ने चोरी करना छोड़ दिया है, शराबी ने शराब पीना त्याग दिया है और दुराचारी भी दुराचार से दूर हो गया है, फिर भी उसके प्रति जो घृणा का भाव है उसे नहीं त्यागा जा सकता है तो समझ लेना चाहिए कि इससे अहिंसा के मार्ग पर अनुगमन नहीं हो रहा है । अहिंसा की दृष्टि तो इतनी विशाल है कि हम पापी से पापी और दुराचारी से दुराचारी के प्रति भी अपने मन में घृणा का भाव नहीं ला सकते । किन्तु दुर्भाग्य से आज समाज के पास अहिंसा की वह दृष्टि नहीं है ; फलत: ऐसी बुराइयाँ पैदा हो गई हैं जिनके उन्मूलन के लिए हमें घोर संघर्ष करना पड़ रहा है, और यह संघर्ष सफलताप्राप्ति के अन्तिम क्षण तक जारी रहेगा ।
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