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जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत
भी पड़ जाते हैं । बहुतेरे ऐसे व्यक्ति भी होते है कि उनके लिए चाहे कैसा ही वातावरण तैयार किया जाए, वे उसमें आते ही नहीं, अपितु सदैव उसके प्रतिकूल ही चलते हैं ।
सका,
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को बदलने के लिए भरसक प्रयत्न किये थे । उसने सोचा था कि जैसा नास्तिक और राक्षस मैं हूँ, प्रह्लाद को भी वैसा ही बना लूं । इसे ईश्वर का नाम सुनने को भी न मिले। इसके लिए हिरण्यकश्यप ने कितना अथक प्रयत्न किया ? किन्तु प्रह्लाद ऐसे प्रगाढ़ संस्कार ले कर आया था कि वह बदल नहीं उसकी ईश्वर भक्ति में कोई दखल नहीं दे सका और वह अपनी दिशा की ओर निरन्तर बढ़ता ही गया । इस प्रकार प्रह्लाद उस दैत्य के कुल में भी देवता के रूप में आया था । उग्रसेन के यहाँ कंस का जन्म लेना प्रह्लाद के सर्वथा विपरीत उदाहरण है । कंस के समान और भी अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं, जिनके माता-पिता के यहाँ का वातावरण बहुत उत्तम रहा, उत्तमता बनाए रखने के लिए अथक प्रयत्न भी किए गए, किन्तु फिर भी ऐसे बालकों ने जन्म लिया कि उन्होंने अपने आचरण से सब को अपवित्र बना दिया और अपनी जाति और कुल के उज्ज्वल मस्तक पर कालिमा पोत दी । अस्तु, अभिप्राय यही है कि मातृ पक्ष ( ननिहाल ) और कुल (पितृ पक्ष ) का वातावरण यदि पवित्र है तो व्यक्ति जल्दी प्रगति कर सकता है । यही 'जातिसम्पन्न ' और 'कुलसम्पन्न' का रहस्य है ।
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शास्त्र में जीवों का वर्गीकरण करने के लिए भी 'जाति' शब्द का प्रयोग किया गया है । जिसके अनुसार शास्त्रकारों ने संसार के समस्त जीवों को पाँच जातियों में विभक्त किया है । वे जातियाँ हैं— एकेन्द्रिय-जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रिय-जाति, चतुरिन्द्रिय-जाति और पंचेन्द्रिय जाति । शास्त्र के इस वर्गीकरण के हिसाब से प्रत्येक मनुष्य, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र हो, एक ही पंचेन्द्रिय-जाति में आता है ।
इस प्रकार जब शास्त्रीय दृष्टिकोण से विचार किया जाता है तो मनुष्यमनुष्य के बीच कोई भेदभाव नहीं रह जाता। फिर भी कुछ लोगों ने एक वर्ग को जन्म से ही पवित्र और श्रेष्ठ समझ लिया है, चाहे उसका आचरण कितना ही निम्न स्तर का क्यों न हो ! दूसरे वर्ग को जन्म से ही अपवित्र और नीच मान लिया गया है, चाहे उसका आचरण कितना ही उत्तम क्यों न रहा हो। इस प्रकार जो वांछनीय उच्चता सदाचार में रहनी चाहिए थी, उसे जाति वा वर्ण में कैद कर दिया गया है । वस्तुतः यही सामाजिक हिंसा है । इस प्रकार की सामाजिक हिंसा व्यक्ति से किसी भी अंश में कम भयानक नहीं है । आज भी अधिकांश लोग इस हिंसा के शिकार देखे जाते हैं । हिंसा के स्वरूप का विचार करते समय इस सामाजिक हिंसा को भूल नहीं जाना चाहिए । अन्यथा, यह भयंकर हिंसा साधक जीवन को खोखला कर देगी और अहिंसा के पालन का भ्रम रहेगा, अहिंसा के नाम पर वहाँ आन्तरिक (संकल्पी) हिंसा हो जायगी ।
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