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अहिंसा-दर्शन
रूप से लगा हुआ है । चलना अवश्य है, किन्तु असावधानी या प्रमाद से नहीं, बल्कि यतना से चलना है। ऐसा करना ही शुभ में प्रवृत्ति है और अशुभ से निवृत्ति है। बस, अशुभ अंश को निकाल देना चाहिए और शुभ अंश को जीवन-व्यापार का लक्ष्यबिन्दु बनाना चाहिए। फिर भी जीवन की अभीष्ट सफलता अभिनन्दन करती हुई दिखलाई देती है।
भाषा-समिति में बोलना बन्द नहीं किया गया है। वहाँ भी बहत-से नकारों के साथ 'हकार' मौजूद है। क्रोध, मान, माया, लोभ और आवेश आदि से मिश्रित वचन कभी मत बोलो, कर्कश शब्द मत बोलो, कठोर और मर्मवेधी शब्द भी मत बोलो। किन्तु बोलो अवश्य, बोलने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है । परन्तु बोलना विवेकपूर्ण होना चाहिए, दूसरों का हितसाधक होना चाहिए। भाषा-समिति का अर्थ है'साधक का भाषण हर हालत में हित, मित एवं सत्य हो।'
अब क्रमशः एषणा-समिति आती है। यदि जीवन है तो उसके साथ आहार का भी सम्बन्ध है । शास्त्र में यह नहीं कहा गया है कि आहार के लिए प्रवृत्ति ही न करो। यद्यपि उसके साथ हजारों 'ना' लग रहे हैं कि-ऐसा मत लो, वैसा मत लो। किन्तु फिर भी लेने के लिए. तो कहा ही गया है। जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक सामग्री जनता से ग्रहण की जा सकती है, किन्तु ध्यान रहे-वह ग्रहण शोषणहीन हो, सद्भावनापूर्ण हो । 'स्व' की सुविधा के साथ 'पर' की सुविधा का सुविचार भी सतत जागृत रहना चाहिए।
इसी प्रकार आवश्यकता-पूर्ति के लिए काम आने वाली चीजों का रखना और उठाना बन्द नहीं किया गया है। साधु भी अपने पात्र को उठाते हैं और रखते हैं । कदाचित् दूसरी आवश्यक चीजों को उठाना-रखना बन्द भी कर दें, तब भी शरीर को तो उठाए और रखे बिना काम नहीं चल सकता। इसलिए न तो उठाने की कोई रोकटोक है और न रखने की ही। पाबन्दी तो केवल असावधानी से उठाने पर, और असावधानी से रखने पर है। यदि किसी वस्तु को सावधानी के साथ उठाया या रखा जाए तो उसके लिए कोई निषेध नहीं है । इस प्रकार यदि बहुत-से 'ना' लगे हैं तो विवेक के साथ उठाने-धरने का एक 'हाँ' भी अवश्य लगा हुआ है। यह 'आदान-निक्षेपणसमिति' हुई।
अब 'परिष्ठापनसमिति' को लीजिए । जब आहार किया जाएगा तो शौच भी अवश्य लगेगा । इसी प्रकार जब पानी पिया जाएगा तो पेशाब भी अवश्य लगेगा। यह तो कदापि सम्भव नहीं है कि कोई नियमित रूप से खाता भी चला जाए और पीता भी चला जाए, किन्तु उसके शरीर में मलमूत्र न बने और यथावसर उसका त्याग न करना पड़े। जब मल-मूत्र आदि का त्याग आवश्यक है, तो वह करना ही चाहिए। किन्तु अविवेक या असावधानी से नहीं, अपितु विवेक के साथ । मल-मूत्र आदि विसर्जन-योग्य पदार्थों का परिष्ठापन करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है
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