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अहिंसा-दर्शन
चाण्डालपुत्र मुनि हरिकेशी
हरिकेशी मुनि के सम्बन्ध में आगमों में जो सुन्दर वर्णन है, वह जैनों के पास बहुत बड़ी सम्पत्ति है, एक बड़ी नियामत है और एक सुन्दर खजाना है ! हमने कितनी ही गलतियां की हैं और अब भी उनकी पुनरावृत्ति करते जा रहे हैं, किन्तु हमारे पूर्वज उन गलतियों के शिकार नहीं बने थे। उन्होंने मनुष्य को मनुष्य के रूप में पहचाना था, मनुष्य के गुणों की ही प्रशंसा की थी, धनवान् होने के नाते कभी किसी का आदर नहीं किया और जात-पाँत के लिहाज से भी कभी किसी का सत्कार-सम्मान नहीं किया। तभी तो उत्तराध्ययन में कहा गया है-हरिकेशी मुनि श्रेष्ठ गुणों के धारक और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले आदर्श भिक्षु थे। उनके गुणों का उल्लेख करने के साथ ही साथ शास्त्रकार इस बात का भी उल्लेख करने से नहीं चूके कि वह मुनि 'श्वपाक चाण्डाल' कुल में उत्पन्न हुए थे, बल्कि सबसे पहले इसी बात का उल्लेख किया है। यह उल्लेख हमें शास्त्रकार के हृदय तक ले जाता है और इसके द्वारा हम समझ सकते हैं कि शास्त्रकार के मन में क्या भावना रही होगी ! जिनके नेत्र निर्मल हैं, वे इस उल्लेख में सम्पूर्ण भारतवर्ष की और विशेषतः जैनों की प्राचीन संस्कृति को भलीभाँति देख समझ सकते हैं।
___जीवन-यात्रा में कभी-कभी बड़ी अटपटी घटनाएँ आती हैं, सावधान रहने पर भी मनुष्य कदाचित् ठोकर खा ही जाता है और गिर भी पड़ता है, किन्तु सच्चा बहादुर वही है, जो गिर कर भी उठ खड़ा होता है और होश-हवास को दुरुस्त कर लेता है। हरिकेशी उन्हीं वीरों में से एक थे । कहीं भूल हो गई और गिर गए; यानी पूर्व-संस्कारों के कारण उन्हें चाण्डालकुल में जन्म लेना पड़ा, किन्तु उन्होंने अपने जीवन को और आत्मा को फिर संभाला और ऊपर उठ गए । जब वे गृहस्थ थे, सब ओर से उन्हें अनादर और धिक्कार मिला, किसी ने भी उनका सम्मान-सत्कार नहीं किया, किन्तु जब उन्होंने मन को साफ किया तो वही श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले जितेन्द्रिय भिक्षु बन गए।
इस सन्दर्भ में एक बार पण्डित लोग वाद-विवाद करते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं और जन्मगत जाति की उच्चता का यह दावा करते हैं कि मानव-सृष्टि में केवल ब्राह्मण ही पवित्र और श्रेष्ठ है । शास्त्रार्थ लम्बा चलता है और अन्त में हरिकेशी का गुणकृत ब्राह्मणत्व ही श्रेष्ठ प्रमाणित होता है । फलतः देव-दुन्दुभियाँ बजने लगती हैं
और देवगण जय-जयकार की ध्वनि से पृथ्वी और आकाश को गुंजा देते है । रत्नों की वर्षा होती है, और साथ ही साथ सुन्दर विचारों की भी अमृतवर्षा होती है । उसी जयघोष के स्वरों में भगवान् महावीर ने कहा है-"प्रत्यक्ष में तुम देख सकते हो कि
१ सोवागकुलसंमूओ, गुणुत्तरधरो मुणी।
हरिएसबलो नाम, आसी भिक्खू जिइंदिओ॥
-उत्त० १२, १
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