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वर्ण-व्यवस्थागत सामाजिक हिंसा
सत्य है और संसार के अन्य सब रूप मिथ्या हैं ।" ७ दूसरी ओर अछूत की छाया - मात्र से उनका ईश्वर और धर्म भागता है ।
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वेदान्त तो यह कहता है-पानी से भरे हजार घड़े रखे हैं । उनमें कुछ सोने के हैं, कुछ चाँदी के हैं, कुछ पीतल और ताँबे के हैं और कुछ मिट्टी के हैं । परन्तु उन सब में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब एक समान ही पड़ता है । इसी प्रकार संसार के सारे पदार्थों में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब समानरूप से पड़ रहा I
हमारे साथी कितने प्रगतिवादी हैं ? जब कभी वे धर्म-सम्बन्धी बातें करते हैं। और उमङ्ग में आते हैं तो ऐसा मालूम पड़ता है कि सच्चा ब्रह्म-ज्ञान इन्हीं को मिल गया है और वे हिमालय के ऊपर बैठ गए हैं । किन्तु जब खान-पान की बात सामने आती है तो उनका ब्रह्म-ज्ञान न जाने कौन- सी कन्दरा में छिप जाता है ? उस समय ऐसा लगता है, मानो उनकी एक टाँग हिमालय की ऊँची चोटी पर है और दूसरी पाताललोक के अतल गह्वर में । वास्तविक प्रगति की ऐसी स्थिति नहीं होती । जीवन इस तरह प्रगति नहीं कर सकता ।
इस प्रकार एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर या एक समूह का दूसरे समूह पर घृणाद्वेष प्रदर्शित करना, सामाजिक हिंसा है । यह कितने आश्चर्य की बात है कि आज बहुतेरे लोग सामाजिक हिंसा को पाप या अधर्म नहीं, बल्कि धर्म मानते हैं । गृहस्थों की तो बात दूर रही, साधु-समाज भी इस सामाजिक अपवाद से अछूता नहीं रहा है । उनकी गोचरी के विषय में भी यह खटराग चल रहा है। शास्त्रों की दिव्य सूचनाएँ हमें प्रकाश पर प्रकाश दे रही हैं, फिर भी सारा समाज कल्पित मान्यताओं के अन्धकार में बुरी तरह भटका हुआ है ।
किसका पानी ?
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मेरे एक ब्राह्मणभक्त हैं । वे मिल मालिक भी हैं। पहले वे जैन-धर्म के कट्टर विरोधी समझे जाते थे, किन्तु जब वे मेरे सम्पर्क में आए तो उनका वह विरोध नहीं रहा । कार्यक्रम के अनुसार मैं जहाँ कहीं होता हूँ, बहुधा वे भेंट के लिए आया करते हैं । जब वे एक बार बिहारप्रान्त से लौट कर आये तो बोले – “महाराज, धर्म का तो नाश हो गया ! धर्म नाम का कोई चिन्ह अब रहा ही नहीं !"
बात हुई ?"
मैंने पूछा - " क्या वे बोले - " कुछ
पूछिए ही नहीं ! स्टेशन पर मैंने पानी माँगा तो पानी वाले ने कहा - लीजिए ! मैंने पूछा- कैसा पानी है ? तब उसने कहा—-पीने का साफ पानी है । मैंने फिर पूछा- अरे भाई, साफ तो है, पर है कैसा ? वह बोला-ठंडा है साहब !' विवश हो कर मुझे पूछना ही पड़ा- 'किसका पानी है ?' उसने धीरे से कह दिया कि कुएँ का है और ताजा है। फिर मुझे साफ शब्दों में कहना ही पड़ा - मैंने
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'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ।'
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