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अहिंसा दर्शन
आपकी दृष्टि में सत्य को समझने की शक्ति है, तो आप समझेंगे कि जल अपने आप में क्या चीज है ? जल स्वभावतः पवित्र है या मलिन ? वह मलिनता और गन्दगी जल की है या मिट्टी आदि की ? यदि आप इस विश्लेषण पर गौर करेंगे तो यह समझ लेंगे कि जल जल है, गन्दगी गन्दगी है । दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए भी, अभिन्न सम्पर्क में रहते हुए भी दोनों अलग-अलग हैं । इसी प्रकार अनन्त अनन्त काल से आत्मा के साथ कर्म का सम्पर्क चला आ रहा है, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध जुड़ा आ रहा है, पर वास्तव में आत्मा आत्मा है, वह कर्म नहीं है । और, कर्म जो पहले था, वह अपनी उसी धुरी पर आज भी है, उसी स्थिति में है, वह कभी आत्मा नहीं बन सका है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि मूलस्वरूप की दृष्टि से विश्व की प्रत्येक आत्मा पवित्र है, शुद्ध है । वह जल के समान है, उसमें जो अपवित्रता दिखाई पड़ रही है, वह उसकी स्वयं की नहीं, अपितु कर्म के कारण है—असत् कर्म, असत् आचरण और असत् संकल्पों के कारण है ।
आत्मा परम पवित्र है
यह बात जब हम समझ रहे हैं कि आत्मा की अपवित्रता मूल आत्मा की दृष्टि से कर्म के कारण है, तब हमें यह भी सोचना होगा कि वह अपवित्र क्यों होती है और फिर पवित्र कैसे बनती है ?
हमारे मन में जो असत् संकल्प की लहरें उठ रही हैं, दुर्विचार जन्म ले रहे हैं, घृणा, वैर और विद्वेष की भावनाएँ जग रही हैं, वे असत्कर्म की ओर प्रवृत्त करती हैं। अपने अहंकार की पूर्ति के लिए मनुष्य संघर्ष करता है, इधर-उधर घृणा फैलाता है । इस प्रकार लोभ और स्वार्थ जब टकराते हैं, तब विग्रह और युद्ध जन्म लेते हैं । वासना और व्यक्तिगत भोगेच्छा जब प्रबल होती हैं, तो वह हिंसा और अन्य बुराइयों को पैदा करती है । आज के जीवन में हिंसा और पापाचार की जो इतनी वृद्धि हो रही है, वह मनुष्य की लिप्सा और कामनाओं के कारण ही है । ऐसा लगता है कि संसारभर के पाप आज मनुष्य के अन्दर आ रहे हैं और सवर्ण की तरह अपने नये-नये रूपों से संसार को आक्रांत करना चाहते हैं । मनुष्य इतना क्रूर बन रहा है कि अपने स्वार्थ के लिए, भोग के लिए वह भयंकर से भयंकर हत्याएँ कर रहा है । और, इस कारण कभी-कभी इस पर सन्देह होने लगता है कि उसके हृदय भी है या नहीं ? एक जमाना था, जब देवी-देवताओं के नाम पर पशु हत्या की जाती थी, मूक और निरीह प्राणियों की बलि दी जाती थी । युग ने करवट बदली, अहिंसा और करुणा की पुकार उठी और वे हत्याकांड काफी बन्द हो गए। पर, आज जिस उदर देवता के लिए लाखों पशु प्रतिदिन बलि हो रहे हैं, क्या उसे कोई नहीं रोक सकता ? पहले देवताओं को खुश करने के लिए पशु-हत्याएँ होती थीं, आज इस देवता ( ? - ? – या राक्षस ? ) के भोजन और खाने के नाम पर पशु हत्या का चक्र चल रहा है । आज का सभ्य मनुष्य भोजन के नाम पर अपने ही पेट में जीवित पशुओं
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