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घृणा : समग्न समाज में व्याप्त हिंसा का मूल
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की इतनी ऊँची धारणाओं, इतने महान् आदर्शों के रहते हुए भी घृणा और द्वष का विष इतने भयंकर रूप में क्यों फैला हुआ है ? एक धर्म-सम्प्रदाय दूसरे धर्म-सम्प्रदाय से घृणा और नफरत करता है, विग्रह एवं संघर्ष करता है । हजारों वर्षों से साथ-साथ रहते हुए भी हम एक-दूसरे को अभी तक अच्छी तरह समझ नहीं सके हैं। भाई और पड़ोसी की दृष्टि से देख नहीं सके हैं । आखिर "मित्ती मे सव्वभूएसु" का पाठ बोलने वाले जैन और "मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे" का मन्त्र-जप करने वाले वैदिक परस्पर एक-दूसरे के प्राणों से क्यों खेले ? बुद्ध के धम्मपद ने "नहि वेरेण वेराणि, समंतीध कदाचन" का शंखनाद करके भी अपने अनुयायियों को घृणा, और द्वेष के अंधकार से बचाने में कुछ नहीं किया ? यह सब क्यों, और कैसे हुआ ? साम्प्रदायिक हिंसा का जहर
मध्ययुग में जैनों और बौद्धों पर जो अत्याचार हुए, उसकी कहानियाँ पढ़ कर आज भी मन संत्रस्त हो जाता है। उस समय के जो उल्लेख मिलते हैं, उनमें यह आदेश दिया मिलता है कि "हिमालय से ले कर रामेश्वरम् तक कोई भी जैन और बौद्ध मिले तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाए । यह कितना उग्र एवं नृशंस रूप है घृणा का ? इतिहास के पन्ने साक्षी हैं कि पुष्यमित्र के समय में यह आदेश प्रसारित किया गया था कि जो एक बौद्धभिक्षु का सिर काट कर लाएगा, उसे सौ स्वर्ण मुद्राएं पुरस्कार में दी जाएंगी।" प्रश्न है-ये विष-बीज क्यों बोए गए ? इसका एक ही उत्तर है—मनुष्य के अन्दर की घृणा और नफरत ही इसका मूल कारण है । घृणा ने ही मनुष्य को मनुष्य से लड़ना सिखाया, उसका सिर काटना सिखाया ; भाई को भाई का खून बहाना सिखाया । खूनी हाथी के पैरों के नीचे कुचल कर भले ही मर जाए, पर प्राण बचाने के लिए भी पास के जैन मन्दिर में न जाए,' यह पाठ किसने सिखाया ? किसी जैन, बौद्ध या शैव, वैष्णव ने नहीं, अपितु उस घृणा-राक्षसी ने, जो धर्म एवं जातीयता के नाम से मनुष्य के अन्दर छिपी बैठी थी और नररक्त के लिए जिसकी जीम सदा लपलपाती रहती थी।
सत्य, अहिंसा का सिद्धान्त जितना जैनों को प्रिय था, उतना ही बौद्ध और वैदिकों को भी प्रिय था । किसी ने उस पर गहराई से चिन्तन-मनन किया है और किसी ने कुछ स्थल पहलुओं पर ही, यह बात दूसरी है, किन्तु प्रेम, सदाचार, अहिंसा दया और करुणा का संदेश प्रत्येक धर्म ने दिया है। फिर उनमें यह राक्षसी विचार क्यों जन्म ले रहे हैं, कहीं जैनों की होली जल रही है, तो कहीं बौद्धभिक्षुओं के सिर के लिए स्वर्ण-मुद्राएँ पुरस्कार में दी जा रही हैं । कहीं शैव और वैष्णव ही एक-दूसरे पर निर्मम प्रहार कर रहे हैं। एक वृन्त के ही फूल एक-दूसरे को काट रहे हैं । यह लड़ाई, यह विग्रह, यह आपस की कटुता और संघर्ष किस आधार पर चले हैं ? बस
१ हस्तिना ताड्यमानोपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्
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