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अहिंसा-दर्शन
धारणाएँ उसकी दृष्टि से निष्प्राण-निर्माल्य एवं निरर्थक हैं । आत्मा के साथ इन धारणाओं का कहीं कोई मेल नहीं बैठता । भले ही पश्चाद्वर्ती व्यक्तियों ने कुछ ब्लेकमेल किया हो, किन्तु जैनधर्म के महान् उद्गाता भगवान् महावीर के वचनों का जो महाप्रकाश हमें मिला है, उसके आलोक में देखने से पता चलता है कि जैनधर्म का शुद्ध रूप आत्मा को छूता है । जाति, सम्प्रदाय, वंश और लिंग का 'ब्लेकमेल' सांठ-गाँठ करने वाले, जैन धर्म की आत्मा के साथ अन्याय कर रहे हैं। अमीर-गरीब-सबमें समान आत्मा है।
भगवान् महावीर ने जो उपदेश दिया, अपने जीवन में जो विलक्षण कार्य किये, वे इस बात के साक्षी हैं कि जैनधर्म का सन्देश आत्मा को जगाने का सन्देश है । उसकी दृष्टि में राजा और रंक की आत्मा में कोई भेद नहीं है। उसके समक्ष जितने आत्म-गौरव के साथ एक कुलीन ब्राह्मण आ सकता है, उतने ही गौरव के साथ एक नीच और अन्त्यज कहा जाने वाला शूद्र चाण्डाल भी आ सकता हैं । वह ब्राह्मणकुमार इन्द्रभूति गौतम का स्वागत करता है, तो श्वपाक पुत्र हरिकेशीबल और चाण्डालसुत महर्षि मेतार्य का भी उसी भाव और श्रद्धा के साथ स्वागत, सम्मान एवं आदर करता है । आत्मा किसी भी परिस्थिति में चल रही हो, किसी नाम, रूप और जाति की सीमाओं में खड़ी हो, पर उसमें भी वही आत्मज्योति जल रही है, जो तुम्हारे भीतर भी है । भगवान् महावीर ने कहा-'तुम्हारे सामने कोई आता है तो तुम उसकी आत्मा को देखो, उसे जागृत करने का प्रयत्न करो । उसके नाम, रूप आदि में मत उलझो। तुम आत्मवादी हो तो आत्मा को देखो। शरीर को देखना, नाम, रूप, जाति को देखना, शरीरवादी या भौतिकवादी दृष्टि है। आत्मवादी इन प्रपंचों में नहीं उलझता है, उसकी दृष्टि में तेज होता है । अतः वह सूक्ष्म से सूक्ष्म स्वरूप को ग्रहण करता है, स्थूल पर उसकी दृष्टि नहीं अटकती। वह सूक्ष्म तत्त्व को पहचानता है और उसी का सम्मान करता है।'
भगवान् महावीर के, जो प्राचीनतम भाषा में उपदेश प्राप्त होते हैं, वे बहुत कुछ आज भी आचारांग में उपलब्ध हैं । भाषा और शैली की दृष्टि से वह सब आगमों में प्राचीन है और महावीरयुग के अधिक निकट प्रतीत होता है। उसमें एक स्थान पर कहा गया है-"तुम्हारे सामने यदि कोई सम्राट् आता है, जिसके पीछे लाखों-करोड़ों सेवकों का दल खड़ा है, धन-वैभव का अम्बार लगा है, स्वर्ण-सिंहासन और शासन-शक्ति उसके पीछे है, यदि उसे उपदेश देने का प्रसंग आता है, तो उसके धन और शक्ति पर दृष्टि न डालो, उसके सोने के महलों की तरफ नजर मत उठाओ, बल्कि उसे एक भव्य समझ कर उपदेश करो। और, यह देखो कि उसकी सुप्त आत्मा जागृत हो, उसमें विवेक की ज्योति प्रज्वलित हो । बस, यही ध्येय रख कर उपदेश करो, और निर्भीक हो कर करो।"
१ “जहा पुणस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ,
जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ ।”
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