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अहिंसा - दर्शन
कुएँ या तालाब का नहीं पूछा है— मैं पूछता हूँ कि यह पानी हिन्दू का है या मुसलमान का ? तब वह बोला- पानी कौन होता है साहब ? पानी न तो हिन्दू होता है। और न मुसलमान ही; पानी तो पानी है । अतएव आप यह पूछ सकते हैं कि पानी नदी का है, तालाब का है या कुएं का ? ठंडा है या गरम है ? साफ है या गन्दा है ? किन्तु पानी न तो हिन्दू है और न मुसलमान ।" तो महाराज, जब उसने यह कहा तो मैंने पानी लिया ही नहीं । दो, चार स्टेशनों तक मैं प्यासा ही रहा । आखिर कब तक प्यासा रहता ? जब नहीं रहा गया तो अन्ततः वह पानी पीना ही पड़ा ।'
मैंने उन सज्जन से पूछा - " अब क्या करेंगे ?"
वे बोले - 'गङ्गाजी जाएंगे और स्नान करके शुद्ध हो जाएँगे ।'
मैंने कहा - "गंगाजी जाने से क्या होगा ? वह पानी तो अन्दर चला गया और पेशाब के द्वारा बाहर भी निकल गया और आपकी मान्यता के अनुसार तो संस्कार चिपक हो गये हैं । फिर आप क्या करेंगे? और भाई, इस जमीन पर चलना कब छोड़ेंगे, क्योंकि इसी पर शूद्र भी चला करते हैं ? शूद्रों की चली जमीन पर चलने से भी तो बुरे संस्कार चिपक जाते हैं न ?"
जब उन्हें विचार आया तो गम्भीरभाव से बोले - " क्या वे पुरानी परम्पराएं गलत थीं ?" मैंने कहा- हाँ, ऐसी परम्पराएं निस्सन्देह गलत और निराधार हैं । मानसिक दुर्बलता
अपनी गलतियों को, चाहे वे एक हों या हजार, सबके सामने हम स्पष्टतः स्वीकार करेंगे। दुर्भाग्यवश साधुओं में भी यह मानसिक दुर्बलता है, जो उन्हें आगे नहीं बढ़ने देती । गृहस्थों की गलतियाँ और भूलें उन्हें भी तंग कर रही हैं। इसके परिणामस्वरूप समाज विभिन्न टुकड़ों में बंट गया है और उसके कारण होता ऐसा है कि हम अनेक बार धर्म - स्नेहियों का भी यथोचित आदर नहीं कर पाते। कई वर्ष हो जाते हैं, वे माँस और शराब को हाथ तक नहीं लगाते । हमारे प्रत्येक धार्मिक आयोजन में भी शामिल होते हैं, फिर भी उनके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता । यहां तक कि पानी और रोटी का भी सम्बन्ध नहीं होता । फिर भी हम जैन-धर्म के विश्वधर्म होने का दावा करते हैं और गर्व के साथ कहते हैं कि नरक में, स्वर्ग में और तिर्यञ्च - योनि में भी सम्यक्त्वी भाई हैं, जो जिन-धर्म का पालन कर रहे हैं ।
एक ओर तो हमारा यह सांस्कृतिक सौहार्द एवं व्यापक दृष्टिकोण है, और दूसरी और हमारा यह संकीर्ण मनोभाव ओर क्षुद्र व्यवहार है । क्या दोनों में अंशमात्र भी सामंजस्य है ? नरक और स्वर्ग के धर्मात्माओं की, स्वधर्मी भाइयों की बातें करने वाले अपनी ही बगल में बैठे इन्सान को, जो कि धर्माराधन कर रहा है, अपनाने में ही हिचक जाते हैं । अरे, उसको तो स्वधर्मी बन्धु के रूप में गले लगाना चाहिए । यदि आपके हृदय में उसके प्रति अंशमात्र भी प्रेम नहीं जगा, अपितु उसे दुरदुराते ही रहे, तो समझना चाहिए कि आपके हृदय में अभी तक धर्म के प्रति सच्चा प्रेम जागृत नहीं
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