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वर्ण-व्यवस्थागत सामाजिक हिंसा
आशय यही है कि पेट में जो मोजन पहुँचता है वह रस, रक्त, माँस, चर्बी आदि के रूप में सारे शरीर को जीवन प्रदान करता है और शक्ति पहुँचाता है ।
वैश्य वर्ण समाज का उदर है । कृषि एवं वाणिज्य उसका मुख्य उद्योग बतलाया गया है । कृषि के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुएँ उत्पन्न कर वाणिज्य के द्वारा उन्हें स्थानान्तरित करके सम्पूर्ण समाज को भोजन देना, शक्ति पहुँचाना तथा जीवित रखना उसी का कर्त्तव्य है । उसके इसी महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य को सुन्दर ढंग से प्रतिपादित करने के लिए यह कहा गया है कि वैश्य वर्ण ब्रह्मा के पेट से उत्पन्न हुआ है ।
हृदयहीनता
वैश्य वर्ण की स्थापना का यह आशय कितना पवित्र था ! किन्तु समाज का दुर्भाग्य है कि 'वैश्य' अपनी पवित्र प्रतिष्ठा को सुरक्षित नहीं रख सका । वाणिज्य के नाम पर वह लालच के चंगुल में बुरी तरह फँस गया । बंगाल और बिहार में जब भयानक दुर्भिक्ष फैला हुआ था, सर्वत्र हाहाकार मच रहा था, सड़कों पर चलते हुए भूखे बच्चे और बूढ़े इस तरह गिर जाते थे, जैसे झंझावात में वृक्ष की टहनियां ! उसी समय में एक व्यापारी के विषय में मुझे बतलाया गया कि बड़ी तादाद में उसके पास चावलों का संग्रह था । उसने जगह-जगह से खरीद कर भारी स्टॉक जमा कर लिया था । उसके मुनीम बाजारों में चक्कर लगा कर आते और कहते - " तीस रुपया मन चावल बिकते हैं, क्या बेच दिए जाएँ ?"
सेठ कहता - "अभी नहीं, प्रभु की कृपा हो रही है ।"
मुनीमों ने कुछ ही दिनों बाद चालीस रुपया मन का भाव बतलाया । सेठ बोला - " मन्दिर में घी के दीपक जलाओ ।"
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जब चावलों का भाव चढ़ते चढ़ते सत्तर रुपया हो गया तो सेठ की प्रसन्नता का पार न रहा । उसने कहा - " गोशाला में घास डलवा दो ।"
कितना अज्ञान, कितनी जड़ता और कैसी हृदय-हीनता है ! क्रूरता की कैसी काली कहानी है ! इस मूढ़ स्वार्थपरता की भी कोई सीमा है ! पर्याप्त भोजन होते हुए भुखमरी का तांडव है !! भूखों का भोजन चारों ओर से बटोर लिया गया है और जब भाव बढ़ते जाते हैं तो खुशियां मनाई जाती हैं, उल्लास का अनुभव किया जाता है । इस पर भी दौड़ते हैं धर्म करने के लिए । मन्दिर में घी के दीपक जल रहे हैं ! गोशालाओं में गायों को घास डलवाई जा रही है !! धर्म के आवरण में अधर्म को ढाँपने की कैसी दुस्साहसिकता है !!! मैं पूछता हूँ कि मंदिर में घी के दीपक तो जलेंगे, किन्तु किससे द्वारा ? उनसे ही तो जलेंगे, जिनका मनमाना शोषण किया जा रहा है ? इस प्रकार के दीपकों में घी नहीं बल्कि भूखों की चर्बी जला करती है ।
व्यापारी वर्ग संसार में इसलिए नहीं आया कि अर्थ - पिपासा की पूर्ति के लिए वह निरीह जनता का शोषण करे ! पर आज तो यही हो रहा है । सेठजी की कोठी से
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