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अहिंसा - दर्शन
प्रकार दूसरों पर कीचड़ चाहे पड़े चाहे न पड़े, किन्तु उछालने वाला तो हर हालत में गन्दा हो ही जाता है ।
शास्त्रकार यही बात बालजीवों के विषय में कहते हैं । अविवेकी जीव प्रायः बच्चों के जैसे खेल खेला करता है । वह अपने मन में दूसरों के प्रति बुरे भाव, बुरे संकल्प पैदा करता है, और उनके कारण अपने अन्दर मैल भर लेता है- अन्तःकरण को मलिन बना लेता है और आत्मा के गुणों की हत्या कर लेता है । क्रोध आया, तो क्षमा की हत्या हो गई ; अभिमान आया, तो नम्रता का नाश हो गया ; माया आई, सरलता का संहार हो गया; और यदि लोभ आया तो संतोष का गला घुट गया । असत्य का संकल्प आया तो सत्य की सुगन्ध भी समाप्त हो गई । इस प्रकार जो भी बुराई आत्मा में पनपती है, वह अपने विरोधी सद्गुण को कुचल डालती है । रात को आना हो तो कैसे आए ? दिन को जब तक जब तक समाप्त न हो जाए, और सूर्य की एक-एक किरण तक रात कैसे आए ? यदि रात हो गई तो इसका मतलब है और सूरज छिप गया है ।
मनुष्य जीवन में भी जब अमावस्या की रात आती है, अर्थात् हिंसा, असत्य आदि की काली घटाएँ उमड़-घुमड़ कर आती हैं, तो अहिंसा, सत्य और करुणा की जो ज्योति नष्ट हो जाती है । वहाँ दिन छिप जाता है और रात आ जाती है ।
भाव-हिंसा आत्मा के गुणों की हिंसा कर डालती है । अब रह गई, दूसरों की हिंसा ; सो वह देश, काल आदि पर निर्भर है । सम्भव है, कोई दूसरों की हिंसा कर सके, या न भी कर सके, किन्तु अपने आप तो जल ही जाता है । २
दियासलाई को देखिए । वह रगड़ खाती है और जल उठती है । स्वयं जल उठने के बाद घास-पात आदि को जलाने जाती है । वह खुद तो जल ही जाती है, भले ही दूसरों को जलाए या न भी जलाए। वह जलाने चली और हवा का झोंका आ गया तो बुझ जाने के कारण दूसरे को नहीं जला सकी, किन्तु अपने आप तो बिना जली नहीं रही ।
इस प्रकार भाव - हिंसा अन्तरंग में तो जलन पैदा करती ही है । उसके बाद दूसरे प्राणियों की हिंसा करके द्रव्य - हिंसा में परिणत हो जाती है । द्रव्य - हिंसा कदाचित् हो या न हो, पर हिंसामय संकल्प के साथ भाव-हिंसा तो पैदा हो ही जाती है ।
सबसे बड़ा शत्रु
कुचल न डाले या दिन विलीन न हो जाए, तब कि दिन नष्ट हो गया है
शास्त्रकार कहते हैं कि इस जीवन में मूलभूत और सबसे बड़ी बुराई भाव
२ स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्वं प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥
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- राजवार्तिक ७, १३ ।
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