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अहिंसा-दर्शन
यदि किसी के मन के अन्तर्जगत् में अहिंसा का सागर लहरा रहा है, वहाँ कषायकृत दुर्भाव नहीं है, असावधानी भी नहीं है, अपितु जागरूकता है, फिर भी शरीर से हिंसा हो रही है, साधक किसी को मार नहीं रहा है, मरने वाले स्वतः ही मर रहे हैं तो इसके लिए शास्त्रकार कहते है कि वहाँ द्रव्य-हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं । यह दूसरा भंग हैं । जहाँ ऐसी स्थिति हो वहाँ द्रव्य-हिंसा होती है, भाव-हिंसा नहीं । द्रव्य-हिंसा को स्पष्ट रूप से समझने के लिए एक रूपक लीजिए
किसी डाक्टर के पास एक बीमार आता है। उसके आमाशय में घातक फोड़ा है । डाक्टर पहले तो बीमारी का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करता है और निश्चय करता है कि फोड़े का आपरेशन करना अनिवार्य है । वह बीमार को सूचना दे देता है कि आपरेशन किये बिना काम नहीं चल सकता और आपरेशन है भी खतरनाक । बेचारा बीमार खतरा उठाने के लिए तैयार हो जाता है। तब डाक्टर, स्वयं अपने हाथों से, अत्यन्त सावधानी और ईमानदारी के साथ आपरेशन करता है। उसकी प्रत्येक सांस से मानो यही ध्वनि निकलती है कि बीमार किसी प्रकार अच्छा हो जाए । क्योंकि बेचारा वेदना का मारा, भरोसा करके मेरे पास आया है। गृहस्थी है और बाल-बच्चों वाला है। यदि इसकी जिन्दगी बच गई तो कितनों की ही जिन्दगी बच जाएगी। यदि यह मर गया तो सारा घर तबाह और बर्बाद हो जाएगा। इस प्रकार डाक्टर के मन में दया का प्रवाह उमड़ता है और करुणा का झरना बहता है। इस स्थिति में डाक्टर आपरेशन करता है, किन्तु करते-करते कहीं भूल हो जाती है। नस कट जाती है और खून की धारा बह उठती है। डाक्टर की करुणाभावना और भी अधिक जागृत होती है और वह खून का बहाव रोकने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता है । परन्तु उसके प्रयत्न विफल हो जाते हैं और रोगी मृत्यु की शरण में पहुँच जाता है ।
यहाँ भी वही प्रश्न उपस्थित होता है कि डाक्टर को क्या हुआ ? कहने को तो यही कहा जा सकता है कि डाक्टर के हाथ से रोगी की मृत्यु हुई है । यदि डाक्टर आपरेशन नहीं करता, तो रोगी को प्राणों से हाथ न धोने पड़ते। कोई-कोई यह भी कहते हैं- डाक्टर मूर्ख है, लापरवाह है, अनाड़ी है ! रोगी के घर वाले भी उत्तेजित हो जाते हैं और डाक्टर को कोसते हैं। उसकी प्रैक्टिस को भी धक्का पहुँचता है और गली-गली में उसकी बदनामी होती है। दुनिया की बात जाने दीजिए, वह चाहे कुछ भी कहे। यहाँ सूक्ष्म-दृष्टि से यह देखना है कि इस सम्बन्ध में शास्त्रकार क्या कहते हैं ?
शास्त्रकार कहते हैं कि डाक्टर मनुष्य की हिंसा के पाप का भागी नहीं है । उसने सद्भावना से, बीमार को शान्ति देने के शुभ संकल्प से और सावधानी के साथ कार्य किया है । बीमार तो स्वतः मरा है, डाक्टर ने उसे मारा नहीं है। इस प्रकार द्रव्य-हिंसा हुई है, भाव-हिंसा नहीं। इस स्थिति में डाक्टर को पुण्य ही हुआ, पाप
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