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द्रहिंसा-भावहिंसा
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अंशमात्र भी नहीं हुआ। पुण्य-पाप का सम्बन्ध तो कर्ता के अन्तर्जगत् से है, बाह्य जगत् से नहीं।
इन दोनों दशाओं की तुलना करके देखने पर विस्मय-सा होता है। पहले भंग में भाव-हिंसा है, द्रव्य-हिंसा नहीं; और दूसरे भंग में द्रव्य-हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं। दोनों के परिणाम में और प्रयोग में कितना अन्तर है ? एक, बाहर से हिंसक न होते हुए भी हिंसक है; और दूसरा, लोक-दृष्टि में हिंसक होते हुए भी अहिंसक है।
जो लोग अहिंसा को अव्यावहारिक कहते हैं, उन्हें इस सिद्धान्त पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए । जीवन-व्यापार में यदि हिसा का दुःसंकल्प त्याग दिया जाए, निष्कषायत्व का भाव पूर्णरूप से अपना लिया जाए, तो हिंसा का परित्याग हो जाता है । जैन-धर्म मुख्यतः हिंसा की वृत्ति को छोड़ने के लिए ही कहता है । वह कहता है कि जितनी-जितनी हिंसा की वृत्ति कम होगी, अर्थात् कषाय की दुर्भावना जिस अनुपात में कम होती जायगी, उसी अनुपात में अविवेक भी कम होता जाएगा। इसके फलस्वरूप विवेक जागेगा और जीवन में पवित्रता की ज्योति उत्तरोत्तर जगमगाती दिखलाई देगी।
_ आचार्य भद्रबाहु ने उक्त सिद्धान्त का स्पष्टीकरण करते हुए ओपनियुक्ति में कहा है । अहिंसा और हिंसा के सम्बन्ध में यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा । जो आत्मा विवेकी है, सजग है, सावधान है, अप्रमत्त है; वह अहिंसक है। इसके विपरीत जो अविवेकी है, जागृत एवं सावधान नहीं है, प्रमादयुक्त है; वह हिंसक है ।'१५
तीसरा भंग है-भाव-हिंसा भी हो और द्रव्य-हिंसा भी हो। अर्थात्-हृदय की अन्तर्भूमि में मारने की वृत्ति आ गई, और बाहर में किसी को मार भी दिया । किसी को सताने की भावना भी उत्पन्न हुई, और उसे सताया भी गया। इस प्रकार की दोहरी हिंसा का फल भी भाव-हिंसा के समान ही जीवन को बर्बाद करने वाला है।
चौथा भंग है-न तो भाव-हिंसा हो, और न द्रव्य-हिंसा ही हो। परन्तु यह भंग हिंसा की दृष्टि से शून्य है। यहाँ हिंसा को किसी भी रूप में स्थान नहीं है। ऐसी सर्वाङ्ग परिपूर्ण अहिंसा अयोग एवं मुक्ति की अवस्था में होती है । जहाँ न तो मारने की वृत्ति है, और न मारने का कृत्य ही है, यह सर्वोच्च आदर्श की स्थिति है।
इस प्रकार, हिंसा की बारीकियों को भलीभाँति समझ जाने के बाद अहिंसा का स्पष्ट रूप अपने आप समझ में आ जाता है ।
१५ आया चेव अहिंसा आया हिंसति निच्छओ एसो;
जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ हिंसओ इयरो ॥७५४।।
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