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अहिंसा के संदर्भ में धर्मयुद्ध का आदर्श
उनके नैतिक आदर्शों की भी हत्या हो रही है । मानवता को लजा देने वाले दुराचार हो रहे हैं, विभिन्न प्रकार के पापाचार हो रहे हैं । उन्हें एक पशु के समान भी नही समझा जा रहा है । यदि कोई पशु को मारता है, तो थोड़ी-बहुत दया तब भी रखी ही जाती है । पशुहत्या के सम्बन्ध में भी कुछ नियम हैं कि उनका क्रूरतापूर्ण वध नहीं होना चाहिए । लेकिन इन विस्थापितों के प्रति तो इतनी निर्दयता की गई कि घरबार सब कुछ छोड़ कर वे यहाँ आए । क्यों आए ? स्पष्ट है, भयत्रस्त व्यक्ति जाएगा कहाँ ? वहीं तो जाएगा, जहाँ उसे शरण पाने का भरोसा होगा । कुछ लोग कहते हैं कि भारत सरकार ने प्रधानमन्त्री इन्दिराजी ने गलती की, जो इन सबको अपने यहाँ रख लिया । न रखते, न झगड़ा होता और न युद्ध की नौबत आती । बेकार का सिरदर्द मोल ले लिया । मैं पूछता हूँ, बंगाल के विस्थापित यहाँ भारत में कैसे आए ? पीछे से उन पर गोली चलाई जा रही थी । अतः प्राण-रक्षा के लिए भारत के द्वार पर आए । और किसी तरह से तो वे रुक नहीं सकते थे । यदि इधर से भी बन्दूक तान दी जाती कि खबरदार इधर आए तो ! पीछे लोटो, नहीं तो गोली मार दी जाएगी ! विचार कीजिए, ऐसी स्थिति में, जबकि पीछे से गोली चल रही हो और आगे से भी गोली चलने लगे, तो बेचारा शरणागत स्थिति में आपका धर्म क्या कहता है ? आपकी मानवता क्या कहती है ?
कहाँ जाए ? क्या करे ? ऐसी
भारतवर्ष की संस्कृति और सभ्यता को आदिकाल से ही अपने इस शरणागत रक्षा के धर्म पर गौरव है । इसी पर हिन्दूधर्म को गौरव है, जैनधर्म को गौरव है और जितने भी अन्य धर्म हैं— सबको गौरव है । और जिसके सम्बन्ध में हम सब लाखों वर्षों से बड़े-बड़े गर्वीले नारे लगाते आ रहे हैं तो, क्या अब वर्तमान स्थिति में भारत अपने उस शरणागत रक्षा के पवित्रधर्म को तिलांजलि दे दे ? नहीं, यह नहीं हो सकता हिंसा और अहिंसा की गलत धारणाओं के चक्कर में उलझ कर जो धर्म बंगलादेश की प्रस्तुत समस्या से अपने को तटस्थ रखने की बात करते हैं, मैं पूछता हूँ, वे धर्म हैं, तो किसलिए हैं ? उनका मानवीय मूल्य क्या है ? क्या उनका मूल्य केवल यही है कि कीड़े-मकोड़ों को बचाओ, छापे- तिलक लगाओ, मन्दिर में घण्टा बजाओ, भजन-पूजन करो । यह सब तो साधना के बाह्यरूप भर । यदि मूल में मानवता नहीं है तो यह सब मात्र एक पाखण्ड बन कर रह जाता है । सच्चा धर्म मानवता को विस्मृत नहीं कर सकता । कौन धर्म ऐसा कहता है कि द्वार पर आने वाले उत्पीड़ित शरणार्थियों का दायित्व न लिया जाए ? उन्हें आश्रय न दिया जाए ? कहा है कि एक व्यक्ति जो कि किसी को पीड़ित कर रहा है, वह तो पाप कर रहा है । लेकिन पीड़ित व्यक्ति अपनी प्राणरक्षा के लिए बहुत बड़े भरोसे के भाव से किसी के पास शरण लेने के लिए आए और यदि वह उस शरणागत की रक्षा के लिए प्रयत्नशील नहीं होता है, तो वह उस उत्पीड़क से भी बड़ा पापी है, जिसने कि अत्याचार करके उसको मार भगाया है । एक त्रस्त व्यक्ति विश्वास ले कर आपके पास आया है कि यहाँ उसकी सुरक्षा होगी और उसी विश्वास का आपकी ओर से यदि घात हो जाए, तो कल्पना कीजिए, उसकी
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