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अहिंसा-दर्शन
करें कि हिंसा कितने प्रकार की है ? यदि कोई व्यक्ति जैन-धर्म के माध्यम से जानना चाहता है, तब तो उसे अहिंसा के अनन्त अनन्त भेद ज्ञात होंगे । संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, बल्कि अनन्त अनन्त ! और वस्तुत: यह परिमाण ठीक भी है । कोई आदमी समुद्र के किनारे खड़ा है और उस समय ज्वार-भाटे के कारण समुद्र में जो लहरें उठती हैं और गिरती हैं, क्या उनकी गिनती की जानी सम्भव है ? यह घटना चक्र तो दिन-रात निरन्तर चलता ही रहता है और इस प्रकार सारा समुद्र प्रतिपल लहरों में नाचता रहता है ।
मन को भी समुद्ररूप में कल्पित किया जा सकता है । इस मन के समुद्र में. भी प्रतिपल विचारों का ज्वार-भाटा उठता रहता है और उसकी लहरें हिलोरें मारा करती हैं । इस मन में भी दिन-रात, प्रतिपल, प्रतिसेकेंड, भावनारूपी लहरें उठती हैं और बैठ जाती हैं और फिर नए वेग से उठती हैं । उस समय ऐसा मालूम होता है कि हमारा मन मानो नाच रहा है। एक क्षण के लिए भी शान्त नहीं होता है । इसी बात को ध्यान में रखकर जैन-जगत् के महान् एवं मर्मज्ञ विचारक श्री बनारसीदास ने कहा है
एक जीव की एक दिन
दसा होइ जेतीक; सो कहि न सकै केवली, यद्यपि जानै ठीक !
और मन की ही क्या बात है ? जहाँ मन नहीं है, वहाँ भी अध्यवसाय तो होते ही हैं और उनके द्वारा अमनस्क प्राणी के जीवन भी हर समय नाचते ही रहते हैं । एकेन्द्रिय जीव को मन नहीं होता, फिर भी वह कितने कर्म समय-समय पर
ता है; अर्थात् सात या आठ ! सात कर्म तो नियम से बँधने अनिवार्य ही हैं । समय बड़ा ही सूक्ष्म है । इस सूक्ष्म सूक्ष्मतम समय में सात कर्मों के अनन्त - अनन्त परमाणु-स्कन्धों का आत्मा के साथ बँध जाना अध्यवसाय के बिना किसी भी रूप में संभव नहीं है । यह तो भलीभांति ज्ञात है कि बन्ध कब होता है ? जब आत्मा में कम्पन उत्पन्न होगा, हलचल होगी और उसके साथ क्रोध, मान, माया तथा लोभ के संस्कार जाग्रत होंगे – तभी कर्म-बन्ध होना सम्भव है । जब यह संस्कार नहीं रहते, योगों की हलचल से आत्मा में कम्पन नहीं होता, तब कर्म-बन्ध भी नहीं होता ।
जब मन, वाणी और शरीर में कम्पन नहीं होता तो उस अवस्था में आत्मा पूरी तरह शान्त और स्थिर हो जाती है । आत्मा की वह दशा 'शैलेशी अवस्था' कहलाती है और वहाँ पूर्ण निश्चल अवस्था आ जाती है। दसवें गुणस्थान तक कषायों से तथा योगों से बंध होता है; और ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुण-स्थान में कषाय न रहने पर केवल योगों के द्वारा ही बंध होता है । चौदहवें गुणस्थान में कषाय और योग दोनों ही नहीं रहते, अतएव वहाँ अबन्धकदशा प्राप्त होती है । सिद्धों को भी कर्मबंध नहीं होता, क्योंकि वहाँ भी कषायों और योगों का अस्तित्व नहीं रहता है ।
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