________________
मानवता का भीषण कलंक
तो हमें आगे बढ़ना ही चाहिए। इसके विपरीत यदि हम शास्त्रों का सहारा न ले कर केवल अपनी बुद्धि और शुष्क तर्क के बल पर ही खड़े हो जाते है, तो हमें न तो शास्त्रों का ही उचित ज्ञान हो सकता है, न अपना ही पता रह सकता है और न हम देश तथा समाज के प्रति भी अपने कर्त्तव्य का पूर्णरूपेण पालन कर सकते हैं ।
इस प्रकार सामाजिक हिंसा का रूप स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है | आपके सामने जो इन्सानों की दुनिया है उसके साथ आपका क्या सम्बन्ध है ? आप अपने पार्श्ववर्ती मनुष्यों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं ? वह व्यवहार घृणा और द्वेष का है अथवा सम्मान और सत्कार का ? वह दूसरों को घायल करने की क्रूरता है या घाव पर मरहम लगाने की उदारता ?
१६७
इन प्रश्नों पर ईमानदारी के साथ विचार करना चाहिए। वह हिंसा, जो समुदाय के रूप में होती है, आज विराट् बन गई है । और इसके बावजूद भी अधिकांश लोग हिंसा करते हुए भी उसे हिंसा नहीं समझते । इस तरह आज के जीवन में एक बहुत बड़ी गलतफहमी फैल गई है ।
चौड़ी खाई
एक अखण्ड मानव-जाति अनेकानेक जातियों, उपजातियों में बँट गई है और उसके इतने टुकड़े हो गए हैं कि यदि गिनने चलें तो गिनते-गिनते थक जाएँगे फिर भी पूरे भेद - प्रभेदों को गिन न सकेंगे । यद्यपि कहीं-कहीं एक जाति का दूसरी जाति के साथ ऊपर से प्रेमभाव मालूम होता है, किन्तु उनकी तह में ऊँच-नीच की चौड़ी खाई देखी जाती । भीतर ही भीतर संघर्ष चलता रहता है । फलतः हर कोई अपने को ऊँचा और दूसरे को नीचा समझने का मिथ्या अहंकार प्रदर्शित करता है । बाहर के सुरभित फूलों में ही अन्दर - अन्दर काँटे बिछे होते हैं । यों तो जीवन में सब साथ-साथ चलते हैं और एक-दूसरे को सहयोग भी देते हैं, किन्तु मन के काँटे दूर नहीं होते और वे निरन्तर एक-दूसरे को चुभोते रहते हैं ।
I
पारस्परिक जातीय संघर्ष
दूसरी साधारण जातियों का तो क्या कहना, ओसवाल और श्रीमाल जातियाँ जो एक डंठल के ही दो फल के समान हैं, उनमें भी आपस में संघर्ष जारी है, फलतः कहीं-कहीं उन्हें परस्पर लड़ते भी देखा जाता है । ओसवाल और श्रीमाल परस्पर में अपने आप को ऊँचा और दूसरे को हीन समझ कर कभी-कभी एक-दूसरे के साथ रोटी और बेटी का व्यवहार भी तोड़ बैठते हैं । भीतर की जलन कभी-कभी विस्फोट के रूप में बाहर आ जाती है तो परिवार के परिवार लड़ पड़ते हैं और आपस के मधुर सम्बन्ध कटुता में बदल जाते हैं, सबके बीच विद्वेष की आग सुलग उठती है । यह आग ओसवालों में या अग्रवालों में, या दूसरी जातियों में जहाँ भी जल रही है, वहाँ बड़ेबड़े विचारक भी कभी-कभी उसमें हिस्सा लेने के लिए विवश हो जाते हैं और उसमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org