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अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-२
सहारे भी ऊपर आ जाए; अर्थात-ऐसी स्थिति में साधु वृक्ष का या लता का सहारा ले कर भी आत्मरक्षा कर सकता है।
शास्त्र का उपयुक्त आत्मरक्षा सम्बन्धी विधान संक्षेप में अपनी बात कह कर विराम पा लेता है। किन्तु हमारी चिन्तन-धारा में अनेक प्रश्न खड़े हो जाते हैंजैन-साधु तीन करण तीन योग से हिंसा का त्यागी है। अत: उसे बेल या वृक्ष को छूने की आज्ञा नहीं है, क्योंकि उनको छूने से असंख्य जीवों की हिंसा हो जाती है । अस्तु, वह आत्मरक्षा के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा कैसे कर सकता हैं ? साधु की प्राणरक्षा बड़ी है या अहिंसा बड़ी है ? साधु के लिए जो ऊपर कहा गया है कि ऐसे अवसर पर वह वृक्ष आदि को पकड़ कर प्राण बचा ले, यह बात कहाँ तक ठीक है ?
साधु को वृक्ष आदि पकड़ कर प्राण बचा लेने का विधान करने वाला यह पाठ आचारांग का है। उससे इन्कार नहीं किया जा सकता । आचार्यों ने भी विचार किया है कि गिरते समय साधु जो वृक्ष आदि का सहारा ले कर ऊपर आता है, उसमें हिंसा नहीं, अपितु अहिंसा है । वह अहिंसा कहाँ से हो गई ? निस्सन्देह साधु हिंसा के माध्यम से ऊपर आता है, किन्तु वह जीवन की लालसा से या मोह से प्रेरित हो कर नहीं आता है । जीवन-रक्षा के सम्बन्ध में तो बात यह है कि मस्तक पर नंगी तलवार भी क्यों न चमक रही हो, किन्तु साधु अपना धर्म नहीं छोड़ता। साधु के लिए हँसतेहंसते प्राणों का विसर्जन कर देना सहज है, किन्तु अहिंसाधर्म को छोड़ देना सहज नहीं। जब यह स्थिति है तो प्रश्न है कि फिर वृक्ष या बेल पकड़ने की स्वीकृति क्यों दे दी गई है ? इसका मुख्य कारण यह है कि असावधानी से जब साधु गिर पड़ता है तो उसका शरीर बेकाबू हो जाता है । बे-काबू शरीर लुढ़कते-लुढ़कते कितनी दूर जा कर गिरेगा, यह कौन कह सकता है ? जितनी दूर भी वह लुढ़कता जाएगा, उतनी ही दूर तक उसके शरीर-पिण्ड के द्वारा न जाने कितने एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा होगी। इसके अलावा गिरने और लुढ़कने पर यदि अंग-भंग हो गया तो जब तक वह साधु जीवित रहेगा, तब तक सड़ता रहेगा ; उष्ण और शीत के प्रकोप से तथा हिंसक जानवरों द्वारा पीड़ित होने पर उसे आर्त्तध्यान और रौद्र-ध्यान भी पैदा होंगे। यदि इसी दशा में उसकी मृत्यु होती है, तो उसके निर्मल भावों की आत्म-हिंसा होने से वह दुर्गति में ही जाएगा।
अतएव जिस वृक्ष का सहारा लिया गया है, वह जीवन के मोह और ममत्व से नहीं लिया गया है, वृक्ष या वृक्ष के आश्रित जीवों की हिंसा करने के लिए भी उसे नहीं पकड़ा गया है। उसके एक भी फल, फूल या पत्ते से साधु को कोई प्रयोजन नहीं है, किन्तु आगे होने वाली भयंकर हिंसा को बचाने के लिए ही उसने वृक्ष को पकड़ा है। इस विचार की स्पष्टता निम्नलिखित दृष्टान्त पर से समझी जा सकती है
"कोई साधु जब बीमार पड़ता है तो दवा खाता है। क्यों खाता है ? क्या शरीर की रक्षा के लिए ? सम्भव है, किसी में आज यह वृत्ति भी हो, किन्तु शास्त्रकार
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