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अहिंसा की विधेयात्मक त्रिवेणी
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पीड़ा देने की वृत्ति समाप्त हो जाती है । इस स्थिति में द्वैत नहीं होता । कोई पराया रहता ही नहीं, और जब पराया नहीं, तो फिर भय भी नहीं । भय दूसरे से ही होता है, पराये से होता है । आप जगत में बैठे हैं और आपके मन में विश्वास है कि यहां दूसरा कोई नहीं, तो भय किस बात का ? मन के आकाश में भय के बादल तब गहराते हैं, जब आपको लगता है कि यहाँ कोई पर है, दूसरा है— कोई मेरे से भिन्न है ।
पर की कल्पना से भय होता है । भगवान् महावीर ने कहा है- आत्मा के लिए आत्मा दूसरा नहीं होता, 'पर' नहीं होता । 'एंगे आया ' - आत्मा एक ही है । यह अखण्ड चैतन्य की दृष्टि है, अद्वैत की भावना है । अद्वैत की इस भूमिका पर ही हिंसा और असत्य से आत्मा विरत हो कर अहिंसा और सत्य से अनुप्राणित होता है । हिंसारूप मिथ्याचारित्र, अहिंसारूप सम्यक् चारित्र में परिणत हो जाता है और असत्य, सत्य का रूप ले लेता है । यही अध्यात्म की दृष्टि है ।
दूसरी नैतिक दृष्टि है -- प्रेम, जिसमें अहिंसा की भूमिका अद्वैत पर नहीं, किन्तु द्वैत पर टिकी होती है । पर यह द्वैत विभेदक नहीं हो कर समायोजक होता है, उसमें मित्रता और बन्धुता की भावना का आधार होता है । 'मित्ती से सव्वभूएस' और 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे' जैसे सिद्धान्तों का जन्म इसी दृष्टि से होता है । जब समस्त प्राणी हमारे मित्र हैं, तो फिर शत्रुता और विरोध की कल्पना ही नहीं उठती ।
जीवन में इस अद्वैत और मैत्री की दृष्टि का विकास होना बहुत आवश्यक है । हमारी धर्माराधना और अहिंसा का यही मूल आधार है ।
मैं आपसे कह रहा था कि अखण्ड चैतन्य का दर्शन 'स्व' को विस्तृत करने से होगा । 'स्व' और 'पर' को दो भिन्न कोणों पर खड़ा रख कर नहीं, किन्तु उन्हें एकत्र करके देखने पर ही जीवन में सर्वत्र प्रेम, सद्भाव और समता का विकास होगा । यही हमारे जीवन के अभ्युदय की आधारभूमि है । यह अद्वैत या मैत्री ही हिंसा से मुक्ति का राजमार्ग है, यही 'स्व' (आत्मा) में स्थिर होने का उपाय है ।
सेवा : अहिंसा का विधेयात्मक रूप
मानवजीवन अनेक विशेषताओं का केन्द्र है । असंख्य असंख्य दुर्लभ सद्गुणों का पिण्ड है । हमारे साहित्य में और तत्त्वचिंतन में इसका जो महत्त्व है, वह इन्हीं विशेषताओं के कारण है । इस देह के आवरण में अनन्त चैतन्य का दिव्यरूप छिपा हुआ है । विराट् शक्तियों का केन्द्र इसी मानव - देह में है । इसीलिए भारतीय चिंतन ने कहा है - ईश्वर के जितने रूप हैं, उतने ही रूप मनुष्य के हैं । ईश्वरीय शक्ति - जितनी व्यापक है, उतनी ही व्यापक एवं विराट् मानवचेतना भी है । यही कारण है
कि मनुष्य को ईश्वर का रूप माना गया है ।
२ द्वितीयाद् वै भयं भवति - उपनिषद्
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