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अहिंसा-दर्शन
छुटकारा दिला सकती है, और न कोई पंडित, पण्डे, और तो क्या, स्वयं ईश्वर मी मनुष्य को उसके पाप से मुक्त नहीं कर सकता ।
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पाप करके पाप - फल से बचने की वृत्ति मनुष्य में बड़ी प्रबल है । शरीर पर घासलेट छिड़क कर आग लगा लेता है और कहता है - 'भगवन् ! जलाना मत !' जलने से घबराता है तो पहले शरीर में आग ही क्यों लगाई ? पाप के परिणाम से बचने की यह भावना ही मनुष्य को भटका रही है । वह सोचता रहता है, पाप करके भगवान् से क्षमा माँग लेंगे ।
मैंने एक बार एक मुस्लिम शायर की शायरी सुनी। वह बड़े ऊंचे स्वर में मस्ती से गा रहा था । उसका भाव था कि 'हे मुहम्मद ! मैं गुनाह कर रहा हूँ। क्यों कर रहा हूँ, कि मुझे तेरा भरोसा है । तेरे भरोसे पर ही ये गुनाह किये जा रहे हैं । खुदा के यहाँ तू मुझे खड़ा मिलेगा और मेरे सब गुनाह माफ करवा देगा ।'
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ इसे सुन कर । इस प्रकार की कल्पनाएँ तो संसार में बुराई और भ्रष्टाचार को और अधिक प्रोत्साहन देती है । भगवान् की दयालुता की ओट में संसार अपनी बुराइयाँ पालता रहता है। हजारों-हजार गुनाह करके, जीवनभर पाप करके, दो घड़ी भगवान् की प्रार्थना कर ली, नमाज पढ़ ली, कि सब गुनाह और पाप माफ हो गए ? भगवान् से कितना सस्ता सौदा कर रखा है आदमी ने ?
भारत का आध्यात्मपक्षी दर्शन और चिन्तन कहता है- 'तुम्हारी यह उपासना गलत है | क्षमादान का यह मिथ्या विश्वास तुम्हें भटकाता रहा है । प्रकाश की मनोती करने से कभी अंधकार खत्म हुआ है ? दीपक की आरती उतारने से और उसको दण्डवत् नमस्कार करने से क्या वह आपके घर में प्रकाश फैला देगा ? प्रकाश के लिए दीपक जलाना होगा । हिंसा के सामने अहिंसा का, असत्य के सामने सत्य का और वासना के सामने सत्य का दीपक जलेगा । तभी मन का अन्धकार मिट सकेगा ।
भगवान् महावीर ने पाप से मुक्त होने का एक ही मार्ग बताया है और वह है— आश्रव को रोकना । आश्रव आत्मा के छिद्र हैं । इन छिद्रों से पाप झर कर आत्मा के छिद्र में प्रविष्ट होता है, आत्मा को कलुषित बनाता है। जब तक आश्रव को नहीं रोका जाता है, पाप से मुक्ति कैसे हो सकती है ?
और आश्रव क्या है ? हिंसा, झूठ, चोरी, वासना, परिग्रह, मिथ्यात्व, कषाय और प्रमाद आदि हो तो आश्रव हैं। आश्रव को रोकने का उपाय है समता, आत्मदर्शन । जब प्रत्येक आत्मा में चैतन्य का दर्शन होने लगता है, तब आत्म-दृष्टि स्फुरित होती है ।
लोग परमात्मा के दर्शन की बात करते हैं। मैं कहता हूँ, जब तक आत्म-दर्शन नहीं होगा, परमात्म-दर्शन कैसे होगा ? प्राणिमात्र के प्रति हमारी दृष्टि 'स्व' की होनी चाहिए । जो मेरा है, मेरा सुख है, वही सबका है, सबका सुख है और जो सबका सुख है, वही मेरा सुख है । यही आत्म-दृष्टि है । इस दृष्टि का जागरण होने से दूसरों को
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