________________
अहिंसा-दर्शन
साथ कुछ न कुछ सम्बन्ध बनाए रखना चाहती है, तो जन-मानस के ज्ञाता महावीर ने यज्ञ को अध्यात्मिक रूप में प्रस्तुत किया और कहा--' इस यज्ञ में अपने मन के पशुओं ( दुवृत्तियों) की ही बलि दो ।'
१३६
भगवान् महावीर ने जीवन की शान्ति और विकास के लिए अहिंसा को तीन विधेयात्मक रूपों में व्यक्त किया
१ - समता
२ - प्रेम ३ – सेवा
प्रत्येक प्राणी को आत्म-तुल्य समझो, यह समता का पहला उद्घोष था और सामाजिक भावना का मूल आधार ।
जो व्यक्ति निकट परिचय में आते हैं, उनके साथ विग्रह और विरोध मत करो । प्रत्येक व्यक्ति को अपना बन्धु समझो, और उसके साथ मैत्री - भावना का विकास करो । यह प्रेम का सन्देश था ।
सेवा का तीसरा उद्घोष सामाजिक सम्बन्धों की मधुरता और आनन्द का मूल स्रोत है । जहाँ दो व्यक्तियों में परस्पर सहयोग नहीं, वहाँ सामाजिक सम्बन्ध कितने दिन टिकेंगे ? सेवा के क्षेत्र में महावीर ने जो सबसे बड़ी बात कही, वह यह थी कि - " मेरी उपासना से भी अधिक महान् है - किसी वृद्ध, रुग्ण और असहाय की सेवा । सेवा से व्यक्ति साधना के उच्चतम पद तीर्थंकरत्व को भी प्राप्त कर सकता है ।" अहिंसा की यह त्रिवेणी शक्ति के अहंकार की कलुषता को धोती है, प्रेम और मैत्री की मधुरता सरसाती है, और सेवा - सहयोग की धरती को उर्वरा बना कर सर्वतोमुखी विकास की बहुमूल्य फसलें पैदा करती है ।
समता और प्रेम के विविध रूप
जीवन की पवित्रता के लिए व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की शान्ति एवं समृद्धि के लिए अहिंसा एक अत्यन्त महत्त्व का मार्ग है; यही लोक के अभ्युदय का मन्त्र है । हमारा जीवन दो परिधियों में बँटा हुआ है । 'स्व' और 'पर' में । एक ओर 'स्व' है, दूसरी ओर 'पर' । मनुष्य एक ओर 'स्व' को ले कर जीवन की यात्रा करता जा रहा है, सोचता है, जो कुछ भी है, वह सब उसके 'स्व' के लिए हैं । 'स्व' की सुख-शान्ति तथा समृद्धि ही उसके अपने लिए एकमात्र महत्त्व की चीज हैं । दूसरी ओर 'पर' | 'पर' उसके लिए पराया है, बेगाना है । 'पर' में उसकी कोई रुचि नहीं है, दिलचस्पी नहीं हैं । अपने सुख, समृद्धि तथा अभ्युदय के लिए 'पर' का बड़े से बड़ा, बलिदान लेने में वह हिचकिचाता नहीं । पराई झोंपड़ी में आग लगा कर अपने हाथ सेकने में उसे कोई ग्लानि या संकोच नहीं, बस यही 'स्व' और 'पर' के संघर्ष की जड़ है । यहाँ आ कर 'स्व' और 'पर' के बीच बहुत बड़ा भेद खड़ा हो जाता है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International