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अहिंसा-दर्शन
दोनों की अपनी जो सीमाएँ हैं, जो अपने क्षेत्र हैं, उन्हें भी यथार्थदृष्टि से समझना है । जीवन में निवृत्ति का भी उतना ही महत्त्व है, जितना प्रवृत्ति का । बिना निवृत्ति के एकान्त प्रवृत्ति एक आधारहीन अन्ध हलचल है, उनमें निर्माण जैसा पवित्र आदर्श नहीं रहता । और प्रवृत्तिशून्य निवृत्ति भी सिर्फ एक निष्क्रिय उदासीन व्यक्तिवादिता है । जब व्यक्ति केवल अपने ही ऐहिक सुख-दुःख में बँधा रहे, अपने ही व्यक्तिगत स्वर्ग और अपवर्ग के सुखों की कल्पना में दौड़ता रहे, तो यह एक प्रकार का स्वार्थीपन ही है, व्यक्तिगत सुख का राग है; अतः वह बन्धन है; फिर चाहे वह धार्मिक जीवन में हो या सामाजिक जीवन में। इससे व्यक्ति और समाज का कोई कल्याण नहीं हो सकता । जैनदर्शन जीवन में दोनों का समन्वय करता है। जैसा कि मैंने पहले कहा था-मर्यादाहीन व्यक्तिगत सुखों और स्वार्थों से निवृत्ति तथा सामाजिक हितों के लिए यथाप्रसंग यथोचित प्रवृत्ति अर्थात् अपनी व्यक्तिगत भोगेच्छा से निवृत्ति और विश्वकल्याण के लिए उदात्त प्रवृत्ति-बस यही महावीर की निवृत्ति और प्रवृत्ति का मर्म है, यही महावीर का जीवनदर्शन है।
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