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अहिंसा - दर्शन
चूर्ण में इन्द्रों के आने का उल्लेख नहीं किया है । स्वयं बाहुबली के हृदय में ही करुणा के स्रोत का उमड़ना लिखा है; जिसे दिगम्बर- परम्परा भी मानती है ।
किन्तु वास्तविकता यह है कि बाहुबली ने देखा - भरत को चक्रवर्ती बनना है और मैं उसके पथ का रोड़ा हूँ । तब मेरा स्वाभिमान मुझे आज्ञा देता है कि भरत की आज्ञा स्वीकार न करू, क्योंकि वह अनुचित आज्ञा है। भाई को, भाई से भाई के रूप में सेवा लेने का अधिकार है । भरत बड़े हैं, मैं छोटा हूँ । इस हैसियत से मैं हजार बार सेवा करने को तैयार हूँ । किन्तु मैं भाई बन कर ही आज्ञा उठाऊँगा, दास या गुलाम बन कर नहीं ।
बाहुबली की वृत्ति में यही मूल चिन्तन था । उन्होंने सोचा -- भरत हैं, जो चक्रवर्ती बनने को तैयार हैं; और मैं हूँ जो स्वाभिमान को तिलांजलि नहीं दे सकता । हम दोनों अपनी-अपनी बात पर अटल रहने के लिए ही तलवारें ले कर मैदान में आये हैं । अतः प्रश्न भरत का और मेरा है । बेचारी यह गरीब प्रजा क्यों कट-कट कर मरे, हम दोनों के झगड़े में हजारों-लाखों मनुष्य दोनों तरफ के कट मरेंगे, कितना भीषण नर-संहार होगा, न मालूम कितनी सुहागिनों का सौभाग्य- सिंदूर पुंछ जाएगा, कितनी हजार माताएँ अपने कलेजों के टुकड़ों के लिए विलाप करेंगी, कौन जाने कितने पिता अपने पुत्रों के लिए और कितने पुत्र अपने पिताओं के लिए हजार-हजार आंसू बहाएँगे ?
बाहुबली ने भरत के पास सन्देश भेजा - 'आओ भाई ! इस लड़ाई का फैसला हम और तुम दोनों आपस में कर लें। यह उचित नहीं कि प्रजा लड़े और हम लोग अपने-अपने डेरों में बैठे दर्शकों की तरह लड़ाई देखते रहें । अच्छा हो, सिर्फ हम दोनों ही आपस में लड़ें और इस व्यर्थ के नर-संहार को समाप्त करें । इसका अर्थ हुआ - कराना नहीं, बल्कि स्वयं करना । कराने में जो विराट् हिंसा थी, उसे स्वयं करने में सीमित कर दिया गया । इस विचार से दोनों भाई लड़ाई के मैदान में उतर आए । आँखों का युद्ध हुआ, मुष्टि का युद्ध हुआ । इस सीमित युद्ध में भी अहिंसा की उल्लेखनीय सीमा यह थी कि मरना-मारना किसी को नहीं था, केवल जय और पराजय का निर्णय करना था । फिर यह निर्णय तो खुन की एक भी बूंद बहाए बिना उक्त तरीके से भी हो सकता था। संसार के इतिहास में वह सर्वप्रथम अहिंसक युद्ध था ।
यहाँ जैन धर्म का एक सुन्दर दृष्टिकोण परिलक्षित होता है, जिसे देख कर बाहुबली को हजार-हजार धन्यवाद देने पड़ते हैं । उनके मन में करुणा की वह उज्ज्वल धारा आई कि उन्होंने हजारों-लाखों आदमियों को गाजर-मूली की तरह कटने से बचा लिया । उन्होंने स्वयं लड़ने की अपेक्षा दूसरों को लड़वाने में अपने जीवन को अधिक मैला देखा । जैन धर्म का वह युग-पुरुष जब युद्ध करवाने की अपेक्षा स्वयं युद्ध करने को उद्यत हुआ तो उसके उस महान् ऐतिहासिक निर्णय का अंग-अंग चमकने लगा ।
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