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अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-१
रहती, वह सेवा और प्रवृत्ति जीवन में अवांछनीय है, समाज के लिए अशुभ है । इस प्रकार आप देखेंगे कि महावीर ने प्रवृत्ति और निवृत्ति का एक रूप निश्चित किया है, उनकी कुछ सीमाएँ बाँधी हैं। अहिंसा की प्रवृत्ति-करुणा की प्रेरणा
विचार कीजिए-एक व्यक्ति को प्यास लगी है, गला सूख रहा है, वह ठंडा पानी पी लेता है, प्यास शांत हो जाती है। क्या इसमें कुछ पुण्य हुआ ? कल्याण का कुछ कार्य हुआ ? सातावेदनीय का कुछ बंध हुआ ? कुछ भी तो नहीं । अब आप किसी दूसरे व्यक्ति को प्यास से तड़पता देखते हैं और आपका हृदय करुणा से भर आता है । आप उसे पानी पिला देते हैं । उसकी आत्मा शान्त होती है, प्रसन्न होती है और इधर आपके हृदय में भी एक शान्ति और सन्तोष की अनुभूति जगती है। यह पुण्य है, सत्कर्म है।
__ अब उक्त घटना की गहराई में जा कर जरा देखिए कि यह करुणा क्या है ? यह निवृत्ति है या प्रवृत्ति ? और पुण्य क्या है ? व्यक्तिगत सुखभोग है या अन्य के प्रति आपका सद्बुद्धि से अर्पण ? महावीर ने व्यक्तिगत भोगों को पुण्य नहीं माना है । किसी महत्त्वपूर्ण उदात्त ध्येय के अभाव में केवल अपनी सुखैषणाओं की पूर्ति के लिए जो आप प्रवृत्ति करते हैं, वह न करुणा है, न पुण्य है । किन्तु जब वह करुणा समाज के हित के लिए जागृत होती है, समाज की भलाई के लिए प्रवृत्त होती है, तब वह पुण्यकर्म एवं धर्म का रूप ले लेती है। महावीर की प्रवृत्ति का यही रहस्य है। समाज के लिए अर्पण, बलिदान और उत्सर्ग की भावना उनके प्रत्येक तत्त्वचिंतन पर छाई हुई है। उनके हर चरण पर समष्टि के हित का दर्शन होता है। अहिंसा तभी सच्ची अहिंसा होगी, जब किसी दुःखी को देख कर आपका अन्तःकरण करुणा से भर उठे। दया तभी सच्ची दया होगी, जब किसी को कष्ट में देख कर आपकी आँखों में आंसू छलछला उठे। जिसके हृदय में करुणा न हो, दूसरों के प्रति सहानुभूति न हो, उस मनुष्य में और पशु में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता । अहिंसा ही मनुष्य और पशु में भेदरेखा है। मैत्री : प्रवृत्तिरूप है
जैन-परम्परा के महान् उद्गाता अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने एक बार अपने शिष्य समुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा था-"मेत्तिं भूएसु कप्पए"-प्राणिमात्र के प्रति मैत्री की भावना ले कर चलो।" जब साधक के मन में मैत्री और करुणा का उदय होगा, तभी स्वार्थान्धता के गहन अन्धकार में परमार्थ का प्रकाश झलकेगा। मैत्री की यह भावना क्या है ? निवृत्ति है या प्रवृत्ति ? आचार्य हरिभद्र ने मैत्री की व्याख्या करते हुए कहा है-“परहितचिन्ता मैत्री"-दूसरों के हित, सुख और आनन्द की चिन्ता करना मैत्री है । जिस प्रकार आपका अपना मन अपने लिए प्रसन्नता चाहता है, उसी प्रकार दूसरों के लिए भी प्रसन्नता की भावना करना, इसी का नाम मैत्री है। मैत्री का यह स्वरूप निषेधरूप नहीं, किन्तु विधायक है; निवृत्तिमार्गी नहीं,
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