________________
अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-१
१११
जा सकता है कि निषेधसूत्रों की कहाँ क्या उपयोगिता है ? निवृत्ति के स्वर में क्या मूल भावनाएँ ध्वनित हैं ? जब तक यह नहीं समझा जाएगा, तब तक निवृत्ति का वास्तविक हार्द समझ में नहीं आ सकेगा। महावीर एकान्तवाद की अति में नहीं जाते, वे जीवन की समग्र गति-स्थिति को अनेकान्त से संतुलित रखते हैं।
निवृत्ति और प्रवृत्ति जीवन के दो चरण हैं । पहला चरण गति करता है तो समय पर दूसरे स्थिर चरण को भी आगे गति मिलती है। निवृत्ति, प्रवृत्ति के लिए पृष्ठभूमि तैयार करती है । वह प्रवृत्ति के अगले चरण को गन्तव्यदिशा देती है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रवृत्ति से पहले जो निवृत्ति की उपदेशधारा है, वह मानवीय भावों के अध्ययन के आधार पर प्रकटित हुई है। यह ठीक है, कि सामाजिक चेतना के अभ्युदय के लिए आप प्रवृत्त होते हैं, लोककल्याण के निमित्त प्रयत्नशील होते हैं, ऐसा करना ही चाहिए। किन्तु उससे पहले महावीर एक बात कहते हैं कि "यह देखो कि तुम्हारी प्रवृत्ति निवृत्तिमूलक है या नहीं ? तुम दान कर रहे हो, दीनदुखियों की सेवा के लिये कुछ कर रहे हो, किन्तु दूसरी ओर यदि शोषण का कुचक्र भी चल रहा है, तो इस दान और सेवा का क्या अर्थ ?" किसी का एक बोतल रक्त निकाल कर बदले में दो बूंद अपने रक्त का दान देना, यह महावीर की दृष्टि में दान नहीं है । सौ-सौ घाव करके एक दो घावों पर मलहमपट्टी करना, सेवा का कौनसा आदर्श है ?
___ अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत जीवन में जब तक निवृत्ति नहीं आती, तब तक समाज-सेवा की प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती । अपने मर्यादाहीन व्यक्तिगत मोगों और आकांक्षाओं से निवृत्ति ले कर समाज-कल्याण के लिए प्रवृत्त होना, जैनदर्शन का पहला नीतिधर्म है । व्यक्तिगत जीवन का परिशोधन करने के लिए असत्कर्मों से पहले निवृत्ति करनी होती है। जब जीवन में निवृत्ति आएगी तो जीवन स्वतः पवित्र और निर्मल होगा, अन्तःकरण विशुद्ध होगा और तब जो भी प्रवृत्ति होगी, वह लोकहिताय एवं लोकसुखाय होगी। जैनदर्शन की निवृत्ति का हार्द यही है कि व्यक्तिगत जीवन में निवत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति । लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों एवं द्वन्द्वों से दूर रहे, यह जैनदर्शन की आचारसंहिता का पहला पाठ है । यही उसके निवृत्तिमार्ग का मर्म है। प्रवृत्ति की सीमाएँ
__ प्रवत्ति की भी अपनी कुछ सीमाएँ हैं । समाज-कल्याण के लिए प्रवृत्ति करना ठीक है, किन्तु उसके पीछे भी आदर्श का आधार होता है, चरित्र-शुद्धि की सीमाएँ होती हैं । विचार कीजिए एक व्यक्ति किसी दीन-दुःखी की सेवा कर रहा है, परन्तु उसकी प्रसन्नता के लिए कुछ ऐसी बातें जरूरी हो रही हैं, जो सामाजिक चरित्र की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं, अवांछनीय हैं । यहाँ यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाए?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org