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अहिंसा-दर्शन
कबीर के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार उनके घर पर कुछ अतिथि आ गये। घर में आटा, दाल का जयगोपाल था। कबीर ने अपनी पत्नी 'लोई' से कहा-"कुछ व्यवस्था करो। अतिथि भूखे नहीं रहने चाहिए।" घर में तो कुछ था नहीं, किसी दूसरे से लाएँ तो किससे लाएं, कैसे लाएँ ? आखिर लोई ने कहा--"एक उपाय है, पर वह है गलत । एक सेठ का लड़का मुझ पर बहुत दिनों से मोहित हो रहा है, अभी तक मैंने उसे मुंह नहीं लगाया है, अपितु फटकारा है, कहो तो मैं उससे कुछ पैसा मांग कर ला सकती हूँ।"
"बहुत अच्छा उपाय बताया तुमने। अभी जाओ, झटपट ले आओ'---कबीर ने कहा । लोई श्रोष्ठिपुत्र के पास गई तो वह बहुत खुश हुआ और बोला-“मैं कितने दिनों से तुम्हारे इन्तजार में आँखें बिछाए बैठा हूँ। अच्छा हुआ, आज तुम आ गई !" लोई ने कहा-'आई तो हूँ, किन्तु अभी मुझे पैसे की बहुत आवश्यकता है, कुछ दोगे ?"
सेठ के लड़के ने सहर्ष अपेक्षित पैसा दे दिया। और फिर आने का वादा करके लोई चली आई । प्राप्त पैसे से समागत अतिथियों की कबीर ने खूब सेवाभक्ति की। अतिथि लौट गए । अब वादा पूरा करने का सवाल था । कहते हैं-वर्षा हो रही थी, फिर भी कबीर खुद अपनी पत्नी को ले कर उसके घर पहुँचे । वचनपालन करने का दायित्व जो ठहरा । श्रेष्ठीपुत्र के मन पर इसका अच्छा प्रभाव हुआ, उसे सद्बुद्धि
आ गई, और उसने लोई को माता का सम्मान दे कर विदा कर दिया । परन्तु प्रश्न है, सद्बुद्धि न आती तो?
कहानी की सत्यता और असत्यता के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना है । कहना केवल यही है कि यह भी एक मनःस्थिति है-सेवा और प्रवृत्ति के क्षेत्र को।
महावीर का दर्शन इस बात को स्वीकार नहीं करता, यहाँ वह एक अलग चिन्तन पर जा खड़ा होता है। वह कहता है कि आपका कर्तव्य है, आप समाज की सेवा करें, किसी दीन-दुःखी का दुःख-दर्द मिटाने के लिए अपनी सुख-सुविधाओं का बलिदान करें । अपने अधिकार का भोजन और वस्त्र तक भी अर्पण कर दें, और स्वयं भूखे और फटेहाल रह कर भी प्रसन्न रहें। पर, समाजसेवा के नाम पर अपना जो चरित्र है, जीवन की जो अच्छाइयाँ हैं, उन्हें दाव पर न रखें ।।
अपने चरित्र और जीवन को निर्मल रखते हुए जो कुछ दिया जाय, जो कुछ किया जाय, वह सेवा है, शुद्ध प्रवृत्ति है । इस प्रकार की प्रवृत्ति समाज के अभ्युदय की स्वर्णिम सोपानपंक्ति है। किन्तु जहाँ जीवन की पवित्रता का, चरित्र का त्याग करके धर्म एवं समाज के नाम पर कुछ अनर्गल जैसा करने का प्रश्न आता है, वहाँ जैनदर्शन स्पष्ट कहता है कि यह मार्ग गलत है। जीवन का कोई भी कर्म यदि स्वयं अपवित्र और दूषित हो कर किसी के लिए कुछ उत्सर्ग करने को प्रस्तुत होता है, तो उस उत्सर्ग से अच्छाइयाँ जन्म नहीं ले सकतों, पवित्रता की भावना का उदय नहीं हो सकता। और जिस सेवा या प्रवृत्ति में पवित्रता और श्रेष्ठता की आधारभूमि नहीं
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