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अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-१
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इस परम्परा में भी समर्पण की एक उच्च भावना झलक रही है, और हैं सामाजिक जीवन के मधुर सम्बन्धों की महान् कल्पना । सहृदयता का देवता
भगवान् महावीर का जीवन निवृत्ति का एक उत्कृष्टतम प्रतीक माना जाता है । उन्होंने जीवन में जो उग्र और निरपेक्ष साधना की, वह साधना के इतिहास में सर्वोत्कृष्ट आदर्श रूप है । बारह वर्ष के छद्मस्थ जीवन-काल में उनका आदर्श था'एगो चरे खग्गविसाणकप्पो'-अर्थात् अकेले और सिर्फ अकेले ही साधना के महापथ पर बढ़ते जाना । महावीर साधनाकाल में अन्तर की गहराइयों में उतर कर आत्मशोधन में लीन रहते थे। किन्तु उनके इस महान् निवृत्तिमय जीवन में भी हम उनकी सामाजिक चेतना को स्फुरित होते हुए देखते हैं ।
__ एक बार भगवान् महावीर, जबकि गोशालक उनके साथ था, विहार करते हुए कहीं जा रहे थे, उस समय वहाँ एक तपस्वी बड़ी घोर साधना कर रहा था। तापस की विशाल जटाओं से जुएँ भूमि पर गिर रही थीं और वह उन्हें सुरक्षा के लिए उठा कर फिर अपनी जटाओं में डाल रहा था । गोशालक ने यह देखा, तो खूब जोर से हँसा, और तापस को कुछ कहने लगा, इस पर तापस क्रुद्ध हो उठा, उसने गोशालक को भस्म करने के लिए तेजोलेश्या छोड़ी, किन्तु करुणामूर्ति भगवान महावीर ने तत्काल शीतलेश्या का प्रयोग कर उसे बचा लिया ।
महावीर के जीवन में सामाजिक भावना की यह एक महत्त्वपूर्ण घटना है। जब कोई उनके अपने शरीर पर क्रूर से क्रूर प्रहार करता है, तो वे उसे शान्त-भाव से चुपचाप सह जाते हैं। किन्तु जब कभी किसी दूसरे की आपत्ति उनकी नजरों से गुजरती है, तो उनका हृदय करुणा से द्रवित हो उठता है और वे उसकी रक्षा के लिए तत्पर हो जाते हैं।
दूसरा कारण बताया गया है-व्रती-संयमी और सदाचारी पुरुषों के प्रति अनुकम्पा का भाव रखना, गुणश्रेष्ठ व्यक्तियों का आदर सम्मान करना, उनकी सेवा भक्ति करना, उनकी यथोचित आवश्यकताओं की पूर्ति का समय पर ध्यान रखना।
और तीसरा कारण है-दान । यहाँ आ कर सामाजिक चेतना पूर्णरूप से जागृत हो उठती है। आप अपने पास अधिक संग्रह न रखें, यह एक निषेधात्मक रूप है, किन्तु जो पास में है, उसका क्या करें ? उसकी ममता किस प्रकार कम करे ? इसके लिए कहा है कि 'दान करे'। मनुष्य ने जो अपनी सुख-सुविधा के लिए साधन जुटाए हैं, उन्हें अकेला ही उपयोग में न ले, बल्कि उनका समाज के अभावग्रस्त और जरूरतमंद व्यक्तियों में यथोचित वितरण करे ।
दान का अर्थ यह नहीं है कि किसी को यों ही एक-आध टुकड़ा दे डाला कि दान हो गया। दान अपने में एक बहुत उच्च और पवित्र कर्त्तव्य है । दान करने से पहले पात्र की आवश्यकता का मन में अनुभव करना, पात्र के पीडाजन्य कम्पन के प्रति
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