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अहिंसा को त्रिपुटी
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आगे फिर जैन इतिहास में भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी का युग आता है, जिसे रामायणकाल भी कह सकते हैं । रामायण जैन-संस्कृति की दृष्टि से पद्मपुराण के रूप . में है । आचार्य हेमचन्द्र ने भी रामायण की कथा लिखी है और आचार्य विमल ने भी भगवान् महावीर के पाँच-सौ वर्ष बाद जो विमल-रामायण लिखी गई है, वह प्राकृत भाषा में है । उसके पढ़ने से मालूम हो सकता है कि किसी युद्ध का सही फैसला किस प्रकार हो सकता है ? बाली की अहिंसक नीति
एक ओर बाली है और दूसरी ओर रावण । बाली से अपना अधिकार मनवाने के लिए, उसे अपने सेवक के रूप में रखने के लिए रावण एक बड़ी सेना ले कर किष्किन्धा पर चढ़ जाता है । दूसरी तरफ से बाली की विशाल सेना भी डट जाती है, दोनों ओर के सेनापति इस इन्तजार में थे कि कब युद्ध का शंख बजे, तलवारें चमकें और रणभूमि रक्त-स्नान करे। उसी समय बाली युद्ध के मैदान में आ पहुंचा । सबसे पहले उसके मन में यह तर्क उत्पन्न हुआ कि 'आखिर इन दोनों जातियों के लड़-मर जाने से क्या होगा ? लाखों इन्सान मौत के घाट उतर जाएँगे। जय-पराजय का प्रश्न तो मेरा और रावण का है। यहाँ तो व्यक्तिगत दावा है और व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा है । मैं और रावण विजेता के रूप में रहना चाहते हैं। इसमें इन गरीबों को क्या मिल जाने वाला है ? क्यों इन्हें सिर कटवाने के लिए मैदान में खड़ा कर दिया गया है ?
ऐसा सोच कर बाली ने रावण के पास सन्देश भेजा-"तू बड़ा है और तेरी शक्ति की दुनिया पूजा भी करती है । फिर वह शक्ति वास्तव में है कहाँ ? तेरे अन्दर है या प्रजा में ? और इधर मेरे मन में भी महत्त्वाकांक्षा है। यदि मैं तुझे सम्राट नहीं मानता, तो मेरी प्रजा इसके लिए क्यों उत्तरदायी हो ? अतः आओ, तुम और हम दोनों ही क्यों न लड़ ले ? प्रजा को अकारण क्यों लड़ाएँ ?"
जैन रामायण कहती है कि बाली की बात स्वीकार कर ली गई । दोनों ओर की सेनाओं को तटस्थभाव से खड़ा कर दिया गया। रावण और बाली में ही युद्ध हुआ । इस युद्ध में रावण को करारी हार मिली।
जैनसाहित्य की ये कथाएँ अर्थहीन नहीं हैं। इनका अर्थ भी साधारण नहीं है। इन कथाओं में युद्ध के अहिंसात्मक दृष्टिकोण का कुशलता के साथ चित्रण किया गया है। एक बुराई जब अनिवार्य हो जाये तो उसकी व्यापकता को किस प्रकार कम किया जाये, हिंसा की उन्मुक्त प्रवृत्ति को किस तरह सीमित करना चाहिये, यही इन कथाओं का मर्म है। इनसे साफ जाहिर होता है कि मनुष्य की हिंसा-प्रवृत्ति, करवाने की अपेक्षा स्वयं कर लेने के रूप में किस प्रकार सीमित कर दी जा सकती है, क्योंकि लड़वाना महान् आरम्भ की भूमिका है, जबकि लड़ना अल्पारम्भ की भूमिका है।
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