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अहिंसा का मानदण्ड
प्राणी मिलते हैं, जिनकी चेतना का जितना अधिक विकास होता है, उन्हें उतना ही अधिक दुःख होता है । इस प्रकार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक उत्तरोत्तर दुःख ज्यादा होता है । दुःख एक प्रकार की संवेदना है । संवेदना का संबंध चेतना के साथ है । जिसकी चेतना का जितना अधिक विकास होगा, उसे दुःख की संवेदना उतनी ही अधिक होगी। जबकि एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय की चेतना अधिक विकसित है तो यह भी स्पष्ट है कि उसे दुःख की संवेदना - अनुभूति भी अधिक तीव्र होगी; और जब दुःख की संवेदना तीव्र होगी तो अपनी रक्षा का उपक्रम करते समय आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान भी बढ़ेगा । इधर मारने वाले में भी उतनी ही अधिक क्रूरता और रुद्रता का भाव जागेगा । जो जीव अपने बचाव के लिए जितना ही तीव्र प्रयत्न करेगा, मारने वाले को भी उतना ही तीव्र प्रयत्न मारने के लिए करना पड़ेगा । इस प्रकार पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा तीव्र भाव के बिना, अत्यधिक क्रूर परिणाम के बिना नहीं हो सकती । इसीलिए उसकी हिंसा एक बड़ी हिंसा कहलाती है और अधिक पाप का कारण होती है । यही कारण है कि भगवती और औपपातिक सूत्र आदि में नरकगमन के कारणों का उल्लेख करते हुए पंचेन्द्रिय वध तो कहा है, किन्तु एकेन्द्रिय-वध नहीं ।
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जैनधर्म ऐसा उद्घोषित करता है कि सब जीवों को एक ही मापक से और इस दृष्टिकोण से नहीं नापना है कि सब प्राणी बराबर हैं, फलत: सब को मारने में एक जैसी ही हिंसा होती है । कभी यह मी मत समझो कि एक जीव को मारने से कम हिंसा होती है और अनेक जीवों को मारने से अधिक हिंसा होती है । जैनधर्म में ऐसा कोई एकान्त नहीं है । यह तो हस्तितापसों का मनगढन्त मत है, जिसका स्वयं भगवान् महावीर ने निषेध किया है । परन्तु दुर्भाग्य है, आज वही निषेध भगवान् के गले मढ़ा जा रहा है । किन्तु निष्पक्ष विश्लेषण के द्वारा जब वास्तविकता सामने आती है तो सारा भेद खुलकर ही रहता है ।
यदि हस्तितापसों की मान्यता को मानने वाला साधु किसी गृहस्थ के घर आहार लेने जाता है । गृहस्थ के घर में एक तरफ उबली हुई ककड़ी का शाक है और दूसरी तरफ उबली हुई मछली है । दोनों ही चीजें, आहार-सम्बन्धी अनुद्दिष्ट आदि नियमों के प्रतिकूल नहीं हैं । अब बतलाइए, वहाँ वह साधु क्या निर्णय करेगा ? जो सब जीवों को बराबर मान कर चलता है, उसके लिए उबली हुई ककड़ी और मछली में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। उसके मतानुसार तो जैसी पीड़ा एकेन्द्रिय को हुई थी, वैसी ही पीड़ा पंचेन्द्रिय को भी होनी चाहिए । परन्तु ऐसी बात जब प्रत्यक्ष रूप से सामने आती है और वास्तविकता की कसौटी पर कसी जाती है, तभी असलियत का पता लगता है ।
जब सब जीव एक समान हैं और सबका शरीर भी समान है तो जिस प्रकार पानी का एक गिलास पी सकते हैं, क्या वैसे ही मनुष्य का रक्त भी पिया
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