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आचाय श्री तुलसी
स्वामी । तब से वनपाये हो, जन मन के अधिकारी। अन्तर्यापी बनपाये हो, जन-जन की बलिहारी ।।८।।
आचार्यश्रीके व्यक्तित्वकी झाकी पानेके साथ-साथ अगर पाठककी कब, कहां और कैसेकी जिज्ञासा शान्त नहीं होगी तो वह उसके प्रति असहयोग होगा | इसलिए मुझे वर्तमान तक पहुचने से पहले अतीत पर भी एक सरसरी दृष्टि डाललेनी चाहिए।
वह अतीत, जो उज्ज्वल वतमानकी शृङ्खलाका संकलन करता है, जिसके गर्भमे सारी शक्तिया छिपी रहती है, क्या वह अभि
व्यक्तिके बाद भुलाने की वस्तु है ? नहीं। जो
व्यक्ति अपने अतीतके अध्यायको नहीं पढ़ता, काय-कारणके परिणामों पर दृष्टि नहीं डालता, जागृति और अभ्युदय, भूल और सुधारके पन्नोंको नहीं उलटता, वह सफल मानव नहीं बन सकता । मानव किस रूपमे आता है और क्या से क्या बनता है, यह अतीत ही बता सकता है।
हां, तो आचार्यश्री का जन्मकाल बीसवीं शताब्दी (वि० सं० १६७१ कार्तिक शुक्ला २, ) है ।
अपने पूर्वजोंसे स्वयंको अधिक विकसित, सभ्य और सुसंस्कृत मानना, यह इस शताव्दीकी सबसे बड़ी विशेषता है। इससे
_ 'श्रद्धा' की कैसी स्थिति बनती है, यह आप बीमत्री सदी की
" स्वयं समझ सकते है। आजका आदमी पुकार
" रहा है 'श्रद्धा' की कमी हो गई। क्यों हुई, इस पर भी जरा सोचे।
विशेषता