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शिष्य-सम्पदा में वालक था, कौन कह सकता है कि वह कृतियोंमें प्रौढ़ नहीं था। उचित चिकित्सा चली, फिर भी उससे कोई लाभ नहीं हुआ। __ अन्तिम शब्दोंमे आचार्यवरसे उसने प्रार्थना की-मुझे आप महाव्रतोंकी आलोचना कराइये , मैंने कोई त्रुटि की हो उसका प्रायश्चित्त दें। ___ आचार्यश्रीने स्वयं उसे महाव्रतोंकी आलोचना कराई। वह जीवन्मुक्त बालक आचार्यवरके चरण-कमलोंकी उपासना करताकरता समाधिलीन हो गया। उसकी कृतिया समूचे संघ और संघपतिके हृदयमें आज भी अमिट है और रहेंगी।
ऐसे प्रौढ बालक दीक्षाके लिए अयोग्य नहीं माने जा सकते ।
दीक्षाके वारेमें आचार्यश्रीका दृष्टिकोण बहुत साफ है। जयपुर-चातुर्मास (वि० २००६ ) मे बाल-दीक्षाका प्रबल विरोध हुआ। हालाकि वहा होनेवाली दीक्षाओमे १५ वर्षसे कम आयु का कोई न था, फिर भी 'बाल-दीक्षा-विरोधी समिति' ने बड़ा उग्र आन्दोलन चलाया। आचार्यश्रीके अपूर्व कौशल और संघचलके सामने उन्हें सफलता नहीं मिली , किन्तु परिस्थिति जटिल थी, इसमे कोई सन्देह नहीं। सचाई हमारे पक्षमे थी इसलिए परिणाम सदा हमारे अनुकूल रहा।
आचार्यधीका वह सूत्र कि "हम किमी अवस्थासे मन्बन्धित दीक्षाफे समर्थक नहीं, योग्य दीक्षाके समर्थक है।' बहत नफल रहा ।
स्त जानकारी लिए देखिए आपापश्री तुर मोको 'ज .