Book Title: Acharya Shree Tulsi
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी ( जीवन पर एक दृष्टि ) लेखक. मुनि श्री नथमलजी प्रकाशक : आदर्श - साहित्य - संघ सरदारशहर ( राजस्थान ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : आदर्श-साहित्य-संघ सरदारशहर (राजस्थान) प्रथम संस्करण ३००० मूल्य सजिल्द (कपडा) २) मूल्य सजिल्द (सादा) १॥ मुद्रक : मदनकुमार मेहता रेफिल आर्ट प्रेस (प्रादर्श-साहित्य-सघ द्वारा संचालित) ३१, वडतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका आचार्य श्री तुलसी जैन श्वेताम्बर तेरापन्थकी गुरु-परम्परा मे नवम पट्टधर आचार्य हैं । पहली भेंट में व्यक्तिसे नहीं पा सका, गुरुके ही दर्शन हुए। समय कम था और वह भेंट कुछ तेरापंथी भाइयों के आग्रहकी पूर्ति के निमित्त से हुई थी । मैं बाहरी आदमी था और जिस पूजा और महिमाका वलय मैने उनके चारों ओर पाया, वह मुझे अनुपेक्षित हुआ । इससे लौटा तो कुछ विशेष भाव मेरे साथ नहीं गया बल्कि कुछ अन्तर रह गया और अरुचि सी हुई । मेरा मानना है कि आचार्य श्री तुलसीके व्यक्तित्वको पाने में यह साम्प्रदायिक वातावरण अन्तराय बना रहता है। इससे जो उन्हें प्राप्य है मिल नहीं पाता और हमे देय है, हम दे नहीं पाते । उसके बाद अणुव्रती संघकी स्थापनाका समाचार अखबारों मे पढा । संघके प्रतोंने और नियमोंने ध्यान खींचा। संघका पहला अधिवेशन दिल्ली में हुआ उस समय तेरापंथी भाइयोंने याद किया और चाहा कि मैं उसमें सम्मिलित होऊं । मैंने अपनेमे पर्याप्त रुचिका अभाव पाया और क्षमा चाही । उत्सवसे पहले संघकी एक अन्तरंग बैठक थी, उसमें जाना मैंने स्वीकार किया । उस सभाका मुझपर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा । घंटा भर मुक साक्षी बना बैठा रहा और सभाके विसर्जनपर तुलसीजी से, M मैं Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) चीत हुई। बातचीत खुलकर हुई और मैं मनमे प्रसन्नता लेकर लौटा। उस दिनसे मैं तुलसीजीके प्रति अपने में आकपण अनुभव करता हूं और उनके प्रति सराहनाके भाव रखता हूं। किसी कारणसे वह सराहना कम नहीं हो सकी है और उस परिचयको में अपना सद्भाग्य गिनता हूं। ___अनेक बन्धुओं और हितैपियोंको यह बात समझ नही आती। वह कर्मशील है और बुद्धिवादी है और मुझको उस __ कक्षासे बाहर नहीं मानते है। सम्प्रदायोंमे और सम्प्रदायगत धर्म-पंथोंमे उन्हे प्रतिगामिता दिखती है। उनके प्रति किसी सराहनाको वे समझ नहीं सकते। वे कृपा करते है और मित्रता मे मुझे सहते है । किन्तु मेरी सराहनाको सहना वे अपना कर्तव्य नहीं मानते और वे ठीक है। आज विलक्षण युगमे हम रहते है। बडा जागरूक और चौकन्ना हमे रहना पड़ता है। मतवाद बहुत है और सब ही हमारी श्रद्धाके दावेदार वनकर सामने आते है। ऐसेमे श्रद्धा किस किसको दी जाय ? परिणाम यह कि सदा और चारों ओर हमे अपनी आलोचनाको जगाये रखना होता है। ऐसे ही हम अपनेको वचाते है। नहीं तो शायद लूट जायं और अपनेको खो बैठे। जानता हूं जमाना ऐसा है। मैं खुद गुरुओंकी उतनी आवध्यकता नहीं देखता जितनी सेवको की। ज्ञान देनेवाला नहीं, म्नेह और सहानुभूति देनेवाला चाहिए । इसी तरह वादके प्रचार Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) से श्रमका प्रसार ज्यादा देखनेकी इच्छा होती है । यो आलोचनाको सहसा हाथसे मै छोड़ता नहीं हूं, फिर भी धर्मके व्यक्तियोंके प्रति मेरे मनमे सराहना हो आती है। धर्मके साथ सम्प्रदाय है, पंथ हैं, कट्टरता है, रूढ़िवादिता है। इसके अलावा धर्मके विरोधमें ___ जो तर्क है उनको भी जानता हूं। फिर भी सराहना रुक नहीं पाती है और ऐसा लगता है कि वहा कितनी भी राख हो, पर उस कारण चिनगारीका अपमान कैसे हो सकता है। ___ मुझे अंधेरा दीखता है। मुझे चिनगारी की खोज है। झमेला बहुत है और दल वहुत हैं जो प्रकाशको उतारनेका दम भरकर सामने आते हैं। उनके कर्तव्य रोज मैदानमे देखता हूं। उनसे अन्धेरा छटता नहीं दीखता। वहा चिनगारी होने का भरोसा मुझे नहीं होता। मालूम होता है वह सत्ताका परिवर्तन चाहते हैं और शेप परिवर्तन सत्ताको हाथमे लेकर उसके द्वारा करना चाहते है। बहुत सी योजनायें, लोक-मंगल और जनकल्याणकी योजनायें, पंड जुटानेमे जुटी है। वह तो सव देखता हूं, उन सत्र प्रयत्नोंके बारेमे नास्तिक हूं ऐसा भी नहीं, पर मन नहीं भरता। चिनगारीकी मांग उनके बाद भी रह ही जाती है। तुलसीजी को देखकर ऐसा लगा कि यहा कुछ है, जीवन मूच्छित और परास्त नहीं है, उसकी आस्था है और सामथ्र्य है। व्यक्तित्वमे सजीवता है और एक विशेषप्रकारकी एकाग्रता, यद्यपि हठवादिता नहीं। वातावरण के प्रति उनमे ग्रहणशीलता है और दूसरे व्यक्तियो और समुदायोके प्रति संवेदनशीलता । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) एक अपराजेय वृत्ति उनमे पाई जो परिस्थितिकी ओरसे अपने मे शैथिल्य लेनेको तैयार नहीं है बल्कि अपने आस्था-संकल्प बल पर उन्हे बदल डालनेको तत्पर है। धर्मके परिग्रह-हीन आकिंचन्यके साथ इस सपराक्रम सिंह-वृत्तिका योग अधिक नहीं मिलता। साधुता निवृत्त और निक्रिय हो जाती है। वही जव प्रवृत्त और सक्रिय हो तो निश्चय मनमे आशा उत्पन्न होती है। __ यह नहीं कि असहमतिको स्थान नहीं है । वह तो है, लेकिन वह दूसरी बात है। मुख्य यह है कि आचार्य श्री तुलसीके व्यक्तित्वमे मुझे विघटन कम प्रतीत होता है । आचार, उच्चार और विचारमे बहुत कुछ एकसूत्रता है। इसीसे व्यक्तित्वमे वेग और प्रभाव है। वह आचार्य-पद पर है। एक समुदाय और समाज उनके पीछे है। कोई सात सौ साधु-साध्वी उनके आदेश पर है। यह एक ही साथ उनकी शक्ति और मर्यादा है। यदि वह आरम्भमें अकेले होते और प्रयोगके लिए मुक्त, तो क्या होता ? इस सम्भावना पर कभी कल्पना जाकर रमना चाहती है। लगता है तव मार्ग सरल न होता, पर शायद कठिन ही हम लोगोंके लिए कीमती हो जाता। जो हो, उनके व्यक्तित्वको प्रकाशमे लानेवाली इस पुस्तकका प्रकाशन समयोपयोगी है। लेखक उनके निकटवर्ती मुनि हैं। पुस्तकमे अध्ययन और विवेचनके चिह्न है। साथ ही जैसा कि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ङ) अवश्यंभावी था, दृष्टिकोण समीक्षासे अधिक स्तुतिका है। किन्तु इसके उपयोगसे और दूसरी आवश्यक सामग्रीके संयोजनसे पति श्री तुलसोके व्यक्तित्व पर समीक्षा-पूर्ण विवेचनात्मक पुस्तक निकल सके तो यह और भी उपयोगी होगा। कारण, में व्यक्तित्वमे संभावनायें देखता हूं। ऋषिभवन, ८ फैजबाजार जो 33 ऋषिभवन, ८ फैजबाजार, Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAN KEEP Remember with your hands & fore Reading me, आचार्य श्री तुलसी ( जीवनपर एक दृष्टि ) के प्रकाशन मे सरदारशहर निवासी श्रीमान् हनुमानमलजी इन्द्रचन्दजी चोरड़िया ने अपने स्वर्गीय पूज्य पिता श्री भीकनचन्द्रजी चोरड़िया की पुण्य स्मृति मे नैतिक सहयोगके साथ आर्थिक योग देकर अपनी सास्कृतिक व साहित्यिक सुरुचिका परिचय दिया है जो सबके लिए अनुकरणीय है । हम आदर्श साहित्य संघ की ओरसे सादर आभार प्रकट करते हैं । - शुभकरण दशानी प्रकाशन मन्त्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ विश्वकी गतिविधि २ विपय-प्रवेश ३ एक प्रेरणा जीवनकी बाते बाल- जीवन १ जिज्ञासाका स्रोत - व्यक्तिका व्यक्तित्व सफलताका पाठ वीसवी सदीकी विशेषता जन्मभूमि २ पारिवारिक स्थिति ३ व्यक्तिगत स्थिति नारियलकी चोरी मुनि-जीवन १ विरक्तिके निमित्त कसौटी पर विषयानुकम २ अध्यापन १३ स्वशिक्षा ४ दिनचर्या ≈ 30 9 १ ४ ११ २४ १७ ३० ३७ ४० ४३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (छ) ५ मधुर संवाद ६ विकासकी दिशामे आचार्य-जीवन १ संघका नेतृत्व २ पहला कदम इ शिक्षा-प्रवृतियां ४ कुशल वक्ता ५ कवि और लेखक ६ प्रवचनकी पंखुड़िया वाद धर्मकी व्यवस्था सादगी ७ कविकी तूलिकाके कुछ चित्र ८ विचारक की वीणाका झंकार ६ कुशल ग्रन्थकार १० सफल प्रेरणा ११ प्रश्नोत्तर (तत्त्व-चर्चा ) १२ जन-सम्पर्क १३ क्रान्तिकी चिनगारियां १४ आज जिसकी चर्चा है १५ जन-कल्याणकी भावना ८ १०७ १०६ १११ २१७ १३५ १३६ १४२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ १४७ १४६ १६३ १६६ १७३ (ज) १६ साम्प्रदायिक एकता १७ संघ-शक्ति १८ शिष्य-सम्पदा १६ देनिक कायक्रम २० वार्षिक कार्यक्रम २१ सत्य-निष्ठा २२ स्फुट प्रसंग योगासन और औषधि-प्रयोग असगठनकी चिकित्सा क्षमायाचनाका महान प्रयोग आध्यात्मिक प्रयोग पाहार-प्रयोग मात्मनिरीक्षण विरोधके प्रति मैत्री आत्मबल और सात्त्विक प्रेरणाएँ मनोविनोद महान व्यक्तित्व पूर्ण दर्शन Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी (जीवन पर एक दृष्टि) Page #14 --------------------------------------------------------------------------  Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वको गतिविधि आज विक्रम सम्वत् २००८ है । मुझे विक्रम सम्वत् १२६७१ तक मुडना है | बीचके इन ३७ वर्षोंमे जो कुछ हुआ, मुझे नया लगा, आश्चर्यकारी जचा, उस पर लिखू, जी चाहता है । विश्व के चित्रपट पर नये-नये रंग खिले और मिट गये । साम्राज्यवाद भूमिसात् हुआ जा रहा है। सामन्तवादकी जड़ें हिल गईं। पूंजीवाद लडखडा रहा है। जन और जनताका घोष एक छोरसे दूसरे छोर तक टकरा रहा है। इधर और उधर चारो ओर लाल क्रातिकी वाते है । यह कोई नई बात नहीं, इस पर क्या लिखू | यह दृश्य जगत्की बात हुई । अव आन्तरिक जगतकी ओर चलिए । वहा भी कुछ हुआ है - लोगोंकी श्रद्धा हिल गई, धर्म Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री तुलसी अभिशाप बन गया, दिल और दिमाग धीरज खो बैठे। समयकी गति टेढ़ी है। कल तक नहीं हुआ, वह आज हो जाता है, इस पर क्या आश्चर्य किया जाय। प्रकाशमे अन्धकार आए यह आश्चर्यकी बात नहीं, दुनिया का स्वभाव ही ऐसा है। अन्धकारमें प्रकाशका पुञ्ज दिखाई दे, यह आश्चर्यकी बात है। आजकी दुनिया बुरी तरहसे राजनीतिके पीछे पड़ी हुई है। वह उसीमेसे सुख और शान्तिका स्रोत निकालना चाहती है। पर यह होनेकी बात नहीं। सुख और शान्ति ये दोनों प्राणीकी वृन्तियोंमे रहते है, अनुभूतिमे रहते है, संक्षेपमे-चैतन्यमे रहते है। राजनीतिके पास वह नहीं है, उसके पास है-धन और भूमि, सत्ता और अधिकार, एक शब्दमे - जडता। मूलमे भूल है, इसीलिए सही मार्ग मिल नहीं रहा है। भगवान् महावीर जैसे अहिंसाप्रधान और महात्मा बुद्ध जैसे करुणाप्रवान पुरुष इस धरती पर आए, फिर भी इसका दिल नहीं पसीजा। ईसामसीह जैसे दयालु और महात्मा गाधी जैसे विराट् पुरुपको इसने नहीं अपनाया। हिंसासे अहिंसा, घृणासे करुणा, स्वार्थसे दया और साम्प्रदायिकतासे विराट्ता दवी जा रही है। आखिर एक दिन मनुष्य सोचेगा कि मार्ग इस धरती पर है नहीं। ___एकतन्त्र और जनतन्त्रका संघर्ष छिडा। जो भूल थी, वह नीचे गिरी और जो सुधार था, वह आगे बढ़ा। जनतन्त्र और साम्यतन्त्रका संघर्ष चल रहा है। देखें, कौन कहा जा बैठता है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वकी गतिविधि माम्यवाद भी आगे चल किसी अपने अनुजसे संघर्प मोल न ले, यह माना नहीं जा सकता। इसमे भी सत्ता और पूजीका एक छत्र राज्य है। ___एकके बाद दूसरी सत्ता और एकके बाद दूसरे वाद आये। ___ उनसे सुख-शान्तिका द्वार नहीं खुला तो उनके हृदयमे धडकन कसे बनी रही ? यह एक प्रश्न है। इसका उत्तर पाने के लिए विशेप गहराईमे जानेकी जरूरत नहीं। उनसे कुछ नहीं बना या बनता यह नहीं , उनसे मनुष्यको रोटी मिली, मकान मिला, सुरक्षा मिली, जीवन चलानेवाले साधन मिले, पर जो इनसे आगे हे ( सुख-शान्तिका मार्ग), वह नहीं मिला। __ मनुष्य के उर्वर मस्तिष्कने खोज की। मनका बन्धन तोडा । उसने पाया कि जीना ही सार नहीं, जीनेका मार है जीवनका विकास करना। बस इसी विचारधाराने धर्म और अध्यात्मवाद को जन्म दिया। एक विद्यार्थीने आचार्य श्री तुलसीसे पूछा"शान्ति कव होगी ?" आपने उत्तर दिया- "जिस दिन मनप्य मनुप्यता आ जायगी।' मनुष्य अपनी सत्ताको समझे बिना जाने-अनजाने मनुप्यतासे लडता आ रहा है। मानवताका पुजारीवर्ग उस मनुष्य आकारवाले वेभान प्राणीको समझाता आ रहा है। लाखो करोडो वप वीते, फिर भी वह लड़ाई ज्यो की त्यो चाल है। दोनोमेसे न कोई धका. न कोई थमा, यह आश्चर्य है। इस पर लिख-ऐसा मेरा संकल्प है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश मूल वात यह है, मुझे आचार्य श्री तुलसीके जीवनका अध्ययन करना है। कहा तक सफल हो सकूगा, इसकी मुझे चिन्ता नहीं। मैं सग्राहक हृ, पारखी नहीं। तथ्योका संकलन करना मेरा काम है, कसौटी वननेके लिए मैं दुनियाको निमन्त्रण दंगा। इसलिए दंगा कि इससे उनके जीवनका सम्बन्ध है, जो मनुष्याकार प्राणीसे लडनेवाले वर्गके प्रतिनिधि है। आजके मानवकी दृष्टिमे मबसे जटिल समस्या रोटी और कपड़े की है। आप इससे सहमत नहीं। आपने एक प्रवचनमे कहा- "रोटी मकान और कपड़की ममम्यासे अधिक महत्त्वपूर्ण समस्या मानवमे मानवताके अभावकी है ।" भौतिकवाद और अध्यात्मवादके बीच यह एक बड़ी खाई है। इनकी सन्धि- समझौता सम्भव नहीं लगता। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश अध्यात्मवादको दृष्टि यह है-रोटी मुश्किल नहीं अगर तुम उसके पीछे न पड जाओ । वह तुम्हारे श्रमका परिणाम है, तुम्हें. न मिले यह कैसे हो ? भीतसे परे भी कुछ है, इसे मत भुलाओ । जीवनकी लम्बी शृङ्खला एकदम टूट जायेगी, क्या यह संभव है ? शोषण और विषमता जो बढ़े, उसका कारण हिंसा है। हिंसा से हिंसा मिटाने की जो सूझ आ रही है, वह गलत है । अहिंसा पूर्ण समतावाद है । उसके भाव आवें तो न शोषण रह सकता है और न वैपम्य । व्यष्टिका ममत्व और संग्रह समष्टिमे चला जाये, इससे मूलभूत समस्याका समाधान नहीं हो सकता । हिंसा और अहिंसा के द्वन्द्वकी चर्चा करते हुए एक बार आपने कहा "हिंसाकी भाति अहिंसा सफल नहीं हो सकती, कई लोगो की ऐसी धारणा है । परन्तु यह उनका मानसिक भ्रम है । आज तक मानव-जातिने एक स्वरसे जेसा हिंसाका प्रचार किया, वैसा यदि अहिंसाका करती तो स्वर्ग धरती पर उतर आता। ऐसा किया नहीं गया, फिर अहिंसाकी सफलतामे सन्देह क्यो ?" यह सच है, भलाई भलाईसे मिलना नहीं जानती, बुराईको बुराईसे मिलनेके रहस्य का ज्ञान है । अगर दुनियाकी सब अहिंसक शक्तियां मिलजुलकर कार्य करें, सहयोग-भाव रखें तो आज भी अहिसा हिंसाको चुनौती दे सकती है । मानव मूलतः अहिंसाका असण्ड पिण्ट है । वह विकारी बन हिंसक बनता है | अहिंसा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी उसका स्वभाव हे और हिसा विभाव। जब उसकी हिंसा उम्र वन जाती है, दूसरोंके लिए असह्य हो जाती है, तब वह अहिसा की ओर देखता है । गत दो महायुद्धोंने ऐसी स्थिति पैदा की है । उससे क्लान्त हो बहुत सारे कट्टर हिंसावादी अहिंसामे विश्वास करने लग गये । अहिसक समाज के लिए आजका युग स्वर्ण युग है। आज भूमि तैयार है । उसमें अहिंसाका वीज सुलभतासे बोया जा सकता है । यदि समयका उपयोग नहीं किया गया तो फिर जो होता है, वही होगा । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्रेरणा तरुण तपस्वी आचार्य श्री तुलसी अहिंसा के महान सेनानी है । आपके अहिंसा-आन्दोलनने फिर हिंसाको पैर हिलाये है। सुदूर पूर्व और पश्चिमसे यह जिज्ञासा आई कि यह क्या कुछ हो रहा है ? इसका कर्तृत्व किसके हाथो मे है, आदि आदि ? अच्छा हो कि इस जिज्ञासाका समाधान में करूं । मुझसे आपके जीवन, उसकी अनुभूतियों एवं कृतियोका विश्लेषण होना सम्भव नहीं लगता, फिर भी मेरा यत्न आत्मसन्तोषके लिये पर्याप्त होगा । यह आज आपके जीवनका चौथा अध्याय चल रहा है । परिच्छेद आपके जीवनकी घटनावलियों के आधार पर होता है । आप वि० सं० १९७१ मे जन्मे । ११ वर्ष तक घर पर रहे। उसके बाद वि० सं० १९८२ मे जीवनको बाते Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री तुलसी आप परम पूजनीय आचार्यश्री कालुगणीके शिष्य बने । ११ वर्ष उनकी चरण-सेवामे रहकर आपने शिक्षा ग्रहण की। २२ वपकी अवस्था (वि० सं० १६६३ ) मे कालुगणीने आपको आचार्य-पद का भार सौंपा। उसके बाद आपने ११ वर्षका अपना अधिकाश समय और चिन्तन साधु-समाजके बहुमुखी विकासकी ओर लगाया। चालू अध्याय जन-जीवनके जागरणका उद्देश्य लिये हुए है। यह आपका जीवन-वृत्तान्त है। १-इम विपयकी विशेष जानकारीके लिए देखो जयपुर-यात्रा, पजाव यात्रा व दिल्ली-यात्रा। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-जीवन Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासाका स्रोत-व्यक्तिका व्यक्तित्व कोई व्यक्ति कब और कहाँ जन्म लेता है, कसे उसका लालन-पालन होता है, इसमे अपनेआप जिज्ञासा पैदा नहीं होती। व्यक्तिका अपना व्यक्तित्व ही उसमे जिज्ञासा भरता है। व्यक्ति जब व्यप्टिकी सीमा तोड़कर समष्टिमय वन जाता t, तब उसके प्रत्येक कार्यकी जानकारी अभिप्रेत हो जाती है। आचार्य भी के पट्टोत्सवका अभिनन्दन करते मने एक बार लिखा था '' बतक तुम इस 'तुम' के भीतर, बँधे हुए थे बानी । तबतर तुम 'तुम' में पटते थे, घे अपने तनके स्वामी ।।१।। कौन तुम्हारी लार्चा करने, पच पहा पा लाया। सिने न तोमर चरणों में, पानपना गोग नवाचा ॥२॥ १६ तुमने नदाधि लाभ घर, 'तुम' की मर्यादा तोड़ी। TA रमानन से, माता-नमान काही ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाय श्री तुलसी स्वामी । तब से वनपाये हो, जन मन के अधिकारी। अन्तर्यापी बनपाये हो, जन-जन की बलिहारी ।।८।। आचार्यश्रीके व्यक्तित्वकी झाकी पानेके साथ-साथ अगर पाठककी कब, कहां और कैसेकी जिज्ञासा शान्त नहीं होगी तो वह उसके प्रति असहयोग होगा | इसलिए मुझे वर्तमान तक पहुचने से पहले अतीत पर भी एक सरसरी दृष्टि डाललेनी चाहिए। वह अतीत, जो उज्ज्वल वतमानकी शृङ्खलाका संकलन करता है, जिसके गर्भमे सारी शक्तिया छिपी रहती है, क्या वह अभि व्यक्तिके बाद भुलाने की वस्तु है ? नहीं। जो व्यक्ति अपने अतीतके अध्यायको नहीं पढ़ता, काय-कारणके परिणामों पर दृष्टि नहीं डालता, जागृति और अभ्युदय, भूल और सुधारके पन्नोंको नहीं उलटता, वह सफल मानव नहीं बन सकता । मानव किस रूपमे आता है और क्या से क्या बनता है, यह अतीत ही बता सकता है। हां, तो आचार्यश्री का जन्मकाल बीसवीं शताब्दी (वि० सं० १६७१ कार्तिक शुक्ला २, ) है । अपने पूर्वजोंसे स्वयंको अधिक विकसित, सभ्य और सुसंस्कृत मानना, यह इस शताव्दीकी सबसे बड़ी विशेषता है। इससे _ 'श्रद्धा' की कैसी स्थिति बनती है, यह आप बीमत्री सदी की " स्वयं समझ सकते है। आजका आदमी पुकार " रहा है 'श्रद्धा' की कमी हो गई। क्यों हुई, इस पर भी जरा सोचे। विशेषता Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासाका स्रोत- व्यक्तिका व्यक्तित्व आपकी जन्मभूमि लाडन-जोधपुर डिवीजन-राजस्थान है। वह राजस्थान जो शुष्क और ग्रीष्मप्रधान होनेके उपरान्त भी आध्यात्मिक स्रोतों की सिंचाईसे हरा-भरा है। जन्म भूमि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवारिक स्थिति एक सम्पन्न ओसवाल - परिवार मे आप जन्मे। आपके पिताश्रीका नाम झूमरमलजी और मृर्तताश्रीका नाम वढनाजी है। आपने अपने 'अतीत के कुछ संस्मरण' शीर्षक से बाल - जीवनकी स्मृतिया लिखीं। उनसे आपकी तात्कालिक पारिवारिक स्थिति का सजीव चित्र सामने आ जाता है। ·1 "मेरे संसारपक्षीय दादा राजरूपजी और पिता भूमरमलजी का देहावसान क्रमश मेरी तीन और पाच वर्षकी अवस्था मे हो चुका था । मेरे दादाजी दृढ़ संहनन, विशालकाय, प्रसिद्धखुराक, धर्मप्रेमी और बड़े प्रतिष्ठित थे । मेरे पिताजी सरल प्रकृति के थे । उनके अन्तिम वर्षो मे संग्रहणीकी बीमारी हो गयी थी। परिवार वडा था । पिताजी कभी-कभी चिन्ता करने लगते कि अभी तक कोई ऐसा 'कमाऊ' व्यापारकुशल नहीं है, घरका काम कैसे चलेगा ? तब दादाजी कहते - क्या चिन्ता है ? परिवारमे कोई Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवारिक स्थिति एक ऐसा जीव पैदा होगा, जिसकी पुन्याईसे सब चमक उठगे। मानाजी वदनाजी प्रारम्भसेही बड़े शुद्धहृदय और सहज सरल स्वभाववाली थीं। वे दादाजी, दादीजी और मेरे पिताजी की बडी भक्तिसे सेवा करती रहीं। समूचे परिवारका पोपण, बुजुर्गोकी सेवा, घरका संरक्षण आदि काम करनेमे उन्होंने अच्छा यश प्राप्त किया। हमारे छः भाइयोमे बड़े भाई मोहनलालजी थे। पिताजीके गुजर जानेके वाद समूचे घरका भार उनपर आया। उस समय हमारा घर कजदार था । परन्तु मोहनलालजी बड़े साहसी और अच्छे विचारक रहे है। उन्होंने अपनो कमाईसे समूचा कर्ज चुका कर घरको स्वतन्त्र बनाया। हम सब भाई मोहनलालजी को पिताके तुल्य समझते थे। मैं तो उनसे इतना डरता था कि उनके सामने बोलना तो दूर रहा, इधरसे उधर देखनेमे भी सकुचाता था।" मिन्दरतानमे चिरकालसे संयुक्त पारिवारिक प्रथा चली आ गी। एक मुखियाके संरक्षणमे रहना, अनुशासन और विनयका पालन करना, नम्र-भाव रचना. बडोके सामने अनावश्यक न बोलना सी-मजाक, न करना आदि आदि एसरी विपना है। अमरमजीवी अपने परिवार के लिए चिन्ता परना, अन्य भारयो द्वारा मोहनलाल्जीयो पिनानुल्य समाना. उस सचाना आदि आदि हम मंयुक्त पारिवारिद प्रभाये ही भावना परिणाम है। परिवारका 'ल्न Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवारिक स्थिति एक सम्पन्न ओसवाल - परिवार मे आप जन्मे। आपके पिताश्रीका नाम झूमरमलजी और मृताश्रीका नाम वदनाजी है। आपने अपने 'अतीत के कुछ संस्मरण' शीर्षक से बाल - जीवनकी स्मृतिया लिखीं। उनसे आपकी तात्कालिक पारिवारिक स्थिति का सजीव चित्र सामने आ जाता है - “मेरे संसारपक्षीय दादा राजरूपजी और पिता भूमरमलजी का देहावसान क्रमश मेरी तीन और पाच वर्षकी अवस्था मे हो चुका था । मेरे दादाजी दृढ संहनन, विशालकाय, प्रसिद्धखुराक, धर्मप्रेमी और बड़े प्रतिष्ठित थे । मेरे पिताजी सरल प्रकृति के थे । उनके अन्तिम वर्षो मे संग्रहणीकी बीमारी हो गयी थी । परिवार वडा था । पिताजी कभी-कभी चिन्ता करने लगते कि अभी तक कोई ऐसा 'कमाऊ' व्यापारकुशल नहीं है, घरका काम कैसे चलेगा ? तब दादाजी कहते - क्या चिन्ता है ? परिवारमे कोई Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवारिक स्थिति १५ एक ऐसा जीव पैदा होगा, जिसकी पुन्याईसे सब चमक उठेगे । मानाजी वदनाजी प्रारम्भसेही बडे शुद्धहृदय और सहज सरल स्वभाववाली थीं। वे दादाजी, दादीजी और मेरे पिताजी की बड़ी भक्तिसे सेवा करती रहीं । समृचे परिवारका पोषण, बुजुर्गोकी सेवा, घरका संरक्षण आदि काम करनेमे उन्होंने अच्छा यश प्राप्त किया । हमारे छः भाइयोंमे बडे भाई मोहनलालजी थे । पिताजीके गुजर जाने के बाद समूचे घरका भार उनपर आया । उस समय हमारा घर कर्जदार था । परन्तु मोहनलालजी बड़े साहसी और अच्छे विचारक रहे हैं । उन्होंने अपनो कमाईसे समूचा कर्ज चुका कर घरको स्वतन्त्र बनाया। हम सब भाई मोहनलालजी को पिताके तुल्य समझते थे । मैं तो उनसे इतना डरता था कि उनके सामने बोलना तो दूर रहा, इधर से उधर देखने मे भी सकुचाता था । " हिन्दुस्तान मे चिरकाल से संयुक्त पारिवारिक प्रथा चली आ रही है। एक मुखियाके संरक्षणमे रहना, अनुशासन और विनयका पालन करना, नम्र भाव रखना, बडोके सामने अनावश्यक न बोलना, हंसी-मजाक न करना आदि आदि इसकी विशेषताएं है। झूमरमलजीकी अपने परिवार के लिए चिन्ता करना, अन्य भाइयों द्वारा मोहनलालजीको पितातुल्य समझना, उनसे सकुचाना आदि आदि इस संयुक्त पारिवारिक प्रथाके पीछे रही हुई भावनाके परिणाम हैं। परिवारका लालन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आचार्य श्री तुलसी पालन, घरकी सार-सम्हाल, बुजुर्गोंकी एवं पतिकी सेवा करना भारतीय नारीकी आदर्श परम्परा रही है। वदनाजीके गृहस्थजीवनमे उसके पूर्ण दर्शन होते है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिगत स्थिति परिवारकी स्थितिका व्यक्ति के हृदय पर प्रतिविम्ब पडता है | वालककी अपनी निजी विशेषताएं होती हैं । फिर भी परिवार के सदस्य और विशेषतः मा के कार्य-व्यवहार एवं आचार-विचार बालक के दिलको सीधे तौर पर हुए बिना नहीं रहते । आचार्यश्रीने अपने संस्मरणोंमे लिखा है- “मेरी माताजीकी अधिक धार्मिक प्रकृति होने के कारण सभी घरवालोमे और मुझमे भी अच्छे धार्मिक संस्कार गहरे जम गये । रोजाना सतियो के ' दर्शनके लिए जाना, उनका व्याख्यान सुनना, सेवा करना आदि कार्या वडी दिलचस्पी रहती थी । १ लाडनू में वृद्ध साध्विया स्थायी रूपसे रहती है, इसलिए विशेष रूप में उन्हीका नामोल्लेख किया गया है । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १८ आचार्य श्री तुलसी मैं कभी व्याख्यानमे नहीं जाता तो भी माताजीसे पूछता रहता-'आज फ्या व्याख्यान वंचा, क्या बात आई ?" ___ "मुझे बचपनसे ही वीडी, सिगरेट, चिलम, तम्बाकू, भाग गाजा, सुलफा, शराब आदि नशीली वस्तुओंका परित्याग था। मैने पान तक कभी नहीं खाया ।" बालकके लिए माता सञ्ची शिक्षिका होती है बच्चा माके प्यार दुलार और लालन-पालनका ही आभारी नहीं बनता, उसकी आदतोंका भी असर लेता है। गर्भकालसे ही माताका रहनसहन, खान-पान, चाल-चलन बच्चेको प्रभावित करने लग जाते है। इसीलिए शरीर-शास्त्रियोंने गर्भवती स्त्रीको सात्विक आहार, सात्त्विक विचार और सात्त्विक व्यवहार करनेकी बात बताई है। और इसीलिए ये वेचारे शिक्षा-शास्त्री चीख-पुकार करते है कि अशिक्षित माताएं बच्चोंके लिए अभिशाप है। उनके हाथोमे बच्चोंके उज्ज्वल भविष्यका निर्माण नहीं हो सकता। यह सही है। बदनाजीके आचार-विचारकी आचार्यश्रीके हृदय पर अमिट छाप पड़ी और उससे संस्कार उद्बुद्ध हुए, इसमे कोई शक नहीं। मन्यकालीन भारतीय माताओमे स्कूली पढ़ाईकी पद्धति नहीं रही। फिर भी वे परम्परागत रीति-रस्मोमे बडी निपुण होती थी। उनके मंस्कारी हदयोको हम अशिक्षित नहीं कह सकते। आचार्यत्रीस कई बार यह सुना कि वदनाजी बालकोंकी चिकित्सा अपने आप कर लेती। __ भारतीय साहित्यमे सत्पुत्र वह माना गया है, जो मा-वाप Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा गुरुसे प्राप्त सम्पत्तिको बढाये । यह बात हम आचार्यश्री के जीवनमे पाते हैं । वीजरूपमे मिले हुए संस्कारोंको पल्लवित करनेमे आपने कुछ उठा नहीं रखा। बचपन मे ही आपने अध्ययन, अध्यापन, अनुशासन, परोपकार और सचाईकी पुष्ट परम्पर।एं पूर्ण विकसित कर लीं। मैं इनके कुछ उदाहरण आचार्य श्री के शब्दोंमे ही उपस्थित करूंगा 11 "विद्याध्ययनमे मेरी रुचि सदासे रही । मैं जब ६-७ वर्षका था, तब स्थानीय नन्दलालजी ब्राह्मणकी स्कूलमे पढने जाया करता । फिर कुछ दिनों बाद हीरालालजी वज जैन के वहा पढ़ता था । तच मैने हिन्दी, हिसाव आदि पढ़े | मैंने इगलिशकी 'ए-वी-सी-डी' भी नहीं पढ़ी। मुझे पाठ कण्ठस्थ करनेका वडी शौक था । उस ( पाठ) का स्मरण भी बहुधा करता रहता । मुझे याद है कि मैं खेल-कूदमे भी बहुत कम जाया करता । जब कभी जाता तो खेलने के साथ-साथ पाठका भी स्मरण करता रहता । पच्चीस वोल, चर्चा, हितशिक्षा के पच्चीस वोल, जाणपणाके पच्चीस वोल, नमस्कार मंत्र, सामायिक, पंचपद - वन्दना आदि मेरे छुटपनसे ही कण्ठस्थ थे । जब मैं स्कूलमे पढ़ता, तब और लड़कोंको पढ़ाया भी करता । मेरे जिम्मे कई लड़के लगे हुए थे। उनकी देख-रेख भी मैं करता । स्कूलमे जितने लड़के पढ़ते, उनके जो भी कोई अपराध हों, लिखे जाते और शामको मास्टरजीको दिखलाये जाते । यह काम भी मेरे जिम्मे कई दफा रहता था। स्कूलमे विक्रयार्थ जितनी पुस्तकें Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी आती, उनका हिसाब ( विक्रय, मूल्य-संयोजन आदि) मेरे पास रहता । अनुशासन व अध्यापन ये दो कार्य वचपन से ही मेरे आदतरूप बन गये थे । इसी कारण तथा अन्य कई कारणों से भी मेरी पढ़ाई में काफी कमी रही । अर्थात् दश वर्ष में जितनी पढ़ाई होनी चाहिये थी, नहीं हो पाई । सचाईके प्रति मेरा सदासे अटूट विश्वास रहा है । मुझे याद है कि एक दिन मोहनलालजीकी बहू ( वडी भाभी) ने मुझसे कहा - 'मोती । ये पैसे लो, बाजारमे जा कुछ लोहेके कीले ला दो | नेमीचन्दजी कोठारी, जो मेरे मामा होते थे, मैं उनकी दूकान गया । उन्होंने पैसे बिना लिये ही मुझे कीले दे दिये । वापिस आके मैने वे भाभी को दे दिये और साथ-साथ पैसे भी दे दिये । यदि मैं चाहता तो पैसोंको आसानीसे मेरे पास रख सकता था, फिर भी सचाई के नाते मैंने वे नहीं रखे । " मनोविज्ञान बताता है कि पाच वर्षकी अवस्था से ही भावी जीवनका निर्माण होने लग जाता है । वालककी सहज रुचि अपने भविष्य की ओर संकेत करती है। आप जानते है कि निर्माण मे अडचने भी कम नहीं आती। सन्धि-वेला मे विकास और हासका विचित्र संघर्ष होता है । अन्तिम विजय उसकी होती है, जिसकी ओर बालकका कर्तृत्व अधिक झुकता है । आचार्यश्रीके जिस बाल- जीवनकी पाठकोंने स्वर्णिम पंक्तिया २० १ मारवाड में भाभी अपने देवर के सम्वोधन के लिए 'मोती' शब्दका प्रयोग करती है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिगत स्थिति २१ पढ़ीं, उसमे कुछ विपादकी रेखायें भी है। हर्णने विपाद पर विजय पा ली, यह दूसरी बात है, फिर भी इनका द्वन्द्व कम नहीं हुआ, प्रवल था। संस्मरणकी कुछ पंक्तिया पढिए : "मुझे बचपनमें गुस्सा बहुत आया करता था। जव में गुस्सेसे हो जाता, फिर सबका आग्रह होने पर भी एक-एक दोदो दिन भोजन तक नहीं करता।" "मैं प्रकृतिका सीधा-सादा था, दाव-पेचोंको नहीं जानता था। मेरे एक कौटुम्बिकने मुझसे कहा-'ओरण' मे रामदेवजी र का मन्दिर हे (जहाँ तेरापन्थके अधिष्ठाता भिक्षु नारियलकी चोरी काम स्वामी विराजे थे ), वहा देवता बोलता है। पर उसको नारियल भेंट करना पड़ता है, अगर तुम तुम्हारे घरसे ला सको तो। मैं एक नारियल चोरी दावे ले आया। हम मंदिर मे गये। कोई व्यक्ति अन्दर छिपा हुआ था, वह बोला। हमने बाहरसे सुना और सोचा-देव बोल रहा है। क्या वोला, पूरा याद नहीं। इसी जालसाजीसे बादमे कई नारियल चुराये और औरोंको खिलाये।" प्रसादकी अपेक्षा विषादकी मात्रा कम है। बहु-मात्रा अल्प मात्राको आत्मसात् कर लेती है, यही हुआ। देवी-सम्पदाओके सामने आसुरी संघर्ष चल नहीं सका। गुस्सेका स्थान अनुशासन १ देवाश्रित भूमि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री तुलसी ने और चोरीका स्थान आत्म-निरीक्षणने ले लिया। सत्की संगति पा दोप भी गुण वन जाते है, ऐसा कहा जाता है। संभव है, यही हुआ हो । खैर, कुछ भी हो, आचार्यश्रीके वाल-जीवनमे भी प्रौढता निखर उठी थी, इसमे कोई सन्देह नहीं । बालजीवनोचित लीला-लहरियोंमे गंभीरता अपना स्थान किये हुए थी। सहज भावसे वालकोकी रुचि खेल-कूदमे अधिक होती है। पढ़नेमे जी नहीं लगता परन्तु आचार्यश्री इसके अपवाद रहे है। ____ आज विद्यालयोमे पाठ कण्ठस्थ करनेकी प्रणाली नहीं के बराबर है। कई शिक्षाविशारद इसे अनावश्यक और विद्यार्थी भार समझते है। कुछ भी समझ, इस प्रणालीने भारतीय ज्ञानराशिको अक्षुण्ण रखनेमे बडी मदद की है। लिखनेके साधन कम थे, अथवा प्रथा नहीं थी, उस जमानेमे जैनोंके विशाल आगम-साहित्य तथा वैदिकोंके वेद और उपनिपदोंकी सुरक्षा इमीसे हुई है। धार्मिक क्षेत्रमे आज भी इसका महत्त्व है । अगले पृष्ठोंमे आप पढ़ेंगे कि आचार्यश्री ने मुनि-जीवनमे इसका कितना विकास किया। एक राजस्थानी कहावत है-'ज्ञान कण्ठा और दाम अण्टा' । आजके विद्यार्थी पुस्तकोंके बिना एक पैर भी नहीं चल सकते, उसका इसकी उपेक्षासे कम सम्बन्ध नहीं है। चालक चतन्यके नवोदयकी भूमि होता है। उसमे शान्ति और क्रान्तिके मेलकी जो अपूर्व लौ जलती है, वह बुझाये नहीं चुभनी। बचपनको सीधा और सरल समझा जाता है पर वह अन्तर-द्वन्द्वसे मुक्त नहीं होता। एक ओर वड़ोंकी आज्ञाका Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिगत स्थिति पालन करनेका प्रश्न आता है, दूसरी ओर अपनी भावनाकी रक्षा का। वहा एक बडी टचर होती है। विनय नामकी चीज न हो त उसका हल नहीं निकल सकता । आचार्यश्रीको चपनमे मागनेका नाम बहुत बुरा लगता। एक जगह आप लिखते है :___"पहले हमारे घरमे गायें रहती थीं। किन्तु बादमे जव ऐसा नहीं था, तब माताजी पड़ोसियोके घरोंसे छाछ माग लानेको मुझसे कहती। मुझे बडी शर्म आती। आदेश पालन करना पडता पर उससे मुझे दुख होता।" । साधारणतया यह कोई खास बात नहीं है। पड़ोसियोमे ऐसा सम्बन्ध होता है। फिर भी अपने श्रम पर निर्भर रहनेका सिद्धान्त जिसे अच्छा लगता है. उसे वैसा कार्य अच्छा नहीं लगता। आचार्यश्रीकी स्वातंत्र्य-वृत्ति और कार्य-पटुताका इससे मेल नहीं बैठता। आप ८-६ वर्णकी उम्रमे चाहते थे कि "मैं परदेश (बंगाल) जाऊं, बड़े भाइयोंका सहयोगी वन ।" एक वार मोहनलालजी परदेशको विदा हो रहे थे। तब आपने माताजीके द्वारा उनके साथ जानेकी वहुत चेष्टा करवाई। पर वह सफल नहीं हो सकी। वे सागरमलजी (पाचवें भाई) को साथ ले जाना चाहते थे। आपने कहा-मैं उनसे भी अच्छा काम करूंगा। कारण कि आप सागरमलजीसे अपनेको अधिक होशियार समझते थे। प्रयास काफी हुआ किन्तु काम वना नहीं। उक्त घटना एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रातिका गुप्त वीज है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आचार्य श्री तुलसी भारतीय सामाजिक जीवनमे मागना और श्रमका अभाव, ये दो दोप घुसे हुए है। एक राष्ट्रमे ६०-७० लाख भिखमंगोकी फौज जो हो, वह उसका सिर नीचा करनेवाली है। अगर मांगने में शर्म अनुभव होती हो, अपने श्रम पर भरोसा हो तो कोई कारण नहीं कि एक व्यक्ति गृहस्थीमे रहकर भीख मागे । आचार्यश्रीने बचपनमे ही व्यापार-क्षेत्रमे जाना चाहा। किन्तु वैसा हो नहीं सका। या यों सही कि धर्म-क्षेत्रकी आवश्यकताओं ने आपको वहा जाने नहीं दिया। आप देशमे रहकर विरक्त वन जायेंगे, साधु बननेकी तैयारी कर लंगे, यह मोहनलालजीको पता नहीं था, अन्यथा वे आपको वहा नहीं छोड जाते। ___ अकस्मात् सिराजगंज (पूर्वी बंगाल) तार पहुंचा-लाडाजी (आपकी वहिन) की दीक्षा होनेकी सम्भावना है, जल्दी आओ। मोहनलालजी तार पढ तुरन्त लाडनू चले आये। स्टेशन पर पहुंचे। उन्होंने सुना - तुलसी दीक्षा लेगा। उन्होने कहा-मुझे यह खवर होती, मैं नहीं आता। खैर, घर पर आये। घरवालो को तथा आपको भी बहुत कुछ कहा सुना। जो वात टलनेकी नहीं, उसे कौन टाले। ___ इससे पूर्व आपके चौथे भाई श्री चम्पालालजी स्वामी दंक्षित हो चुके थे। आप तुरन्त दीक्षा पानेको तत्पर थे। मोहनलालजी आपको दीक्षाकी स्वीकृति देनेको तैयार नही हुए। तेरापन्थकी दीक्षा नियमावलीके अनुसार अभिभावकोंकी लिखित स्वीकृति के बिना दीक्षा नहीं हो सकती। यह एक समस्या Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिगत स्थिति बन गई । श्रावकोने, साधुओंने, मन्त्री मुनिश्री मगनलालजी स्वामीने भी मोहनलालजीको समझाया । मोहकी बात है, दिल नहीं माना । वे स्वीकृति देने को तैयार नहीं हुए। आपने देखा यह बात यों बननेकी नहीं । २५ लाडनूकी विशाल परिपद्में श्रीकालुगणी व्याख्यान कर रहे थे। आप वहा गये । व्याख्यान के बीच ही खड़े होकर बोलेगुरुदेव । मुझे आजीवन व्यापारार्थ परदेश जाने और विवाह करनेका त्याग करवा दीजिए। लोगोंने देखा - यह क्या । परम श्रद्धेय गुरुदेवने देखा - बालकका कैसा साहस है । मोहनलालजी ने देखा - वह मेरा भय और संकोच कहा ! विभिन्न प्रतिक्रियाएं हुई | गुरुदेवने कहा – तू अभी बालक है। त्याग करना बहुत बड़ी बात है । आपने देखा - गुरुदेव अब मौन किये हुए है । सभा की दृष्टि आप पर टकटकी लगाये हुए है । आश्चर्य और प्रश्नकी धीमी आवाजें उठ रही है । साहसके बिना काम होगा नहीं । जो निश्चय कर लिया, वह कर लिया । डरकी क्या बात है । उत्तम कार्य है । मुझे अब अपने आत्मबलका परिचय देना है । यह सोच आप बोले- गुरुदेव । आपने मुझे त्याग नहीं करवाये किन्तु मैं आपकी साक्षीसे आजीवन व्यापाराथे परदेश जाने और विवाह करनेका त्याग करता हूं । गुरुदेवने सुना, लोगोंने सुना, मोहनलालजीने भी सुना । बहुतों ने मोहनलालजीको समझाया था, नहीं समझे । आपने थोड़े में समस्या सुलझा दी। वे आपकी दीक्षाके लिए राजी हो Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी गये। गुरुदेवसे प्रार्थना की। दीक्षाकी पूर्व स्वीकृति और आदेश दोनों लगभग साथ-साथ हो गये। यह एक विशेष बात है। गुरुदेवसे इतना शीघ्र दीक्षाका आदेश मिलना एक साधारण बात नहीं है। आपको वह मिला, इसका कारण आपकी असाधारण योग्यताके सिवाय और क्या हो सकता है। इसमे कोई सन्देह नहीं, श्री कालुगणिने उसी समय आपकी छिपी हुई महानताका अनुभव कर लिया था। आपके ज्ञाति भी इससे अपरिचित नहीं थे। हमीरमलजी कोठारी, जो आपके मामा होते है, आपसे बडा प्यार करते। वे आपको तुलसीदासजी कहकर सम्बोधित करते और कहते-हमारे तुलसीदासजी बड़े नामी होंगे। प्रकाश प्रकाशमेसे नहीं निकलता। वह आवरणमेसे निकलता है। आवरण केवल ढकना नही जानता, हटना भी जानता है। वह अन्धोंको ही दृष्टि नहीं देता, दृष्टिवालोंको भी दृष्टि देता है। आपका विशाल व्यक्तित्व बचपनके आवरणमे छिपा हुआ था। फिर भी कृतज्ञताके साथ हमे कहना चाहिए कि उसने आपको पहचाननेकी दृष्टि दी। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि जीवन Page #44 --------------------------------------------------------------------------  Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनका दूसरा दौर दूसरा अध्याय शुरू होते होते आप द्विजन्मा वन जाते हैं । गृहस्थ जीवनकी समाप्ति और मुनि जीवनकी दीक्षा, दोनों एक साथ होते है । हजारों लोगोंके देखते देखते आप अपनी बहिन को साथ लिए वैरागी की पोशाक में दीक्षा - मण्डपमें आये, कालुगणीको वन्दना की, पासके कमरे में गये । वेषभूषा बदली | साधु का पुण्य वेष धारण किया । वापिस आये। दोनों हाथ जोड़ गुरुदेव के सामने खड़े हो गये । दीक्षा देनेकी प्रार्थनाकी । मोहनलालजी अपने बन्धुओं के साथ आगे आये । माता वदनाजी आई । गुरुदेवसे 'श्री तुलसी' को 'लाडा' को दीक्षित करनेकी प्रार्थना की। " गुरुदेवने उनकी स्वीकृति पा दीक्षाका मन्त्र पढ़ा | आजीवन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० आचार्य श्री तुलसी के लिए समस्त पापकारी प्रवृत्तियोंका - हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रहका त्याग कराया। आपने वह स्वीकार किया । गृहस्थ जीवनसे ताता टूट गया। मुनि संघ मे मिल गये । वह पुण्य दिन था ( वि० सं० १९८२, पौप कृष्णा ५ ), वह पुण्यवेला थी आपके भविष्य और संघ के सौभाग्य - निर्माण की । सब प्रसन्न हुए । कालुगणी, मगनलालजी स्वामी और चम्पालालजी स्वामी अधिक प्रसन्न हुए । क्यों उसमे रहस्य है । हुए, तेरापन्थके आचार्य अपने यथेष्ट उत्तराधिकारीको पाये बिना पूरे निश्चिन्त नहीं बनते । कालुगणी इस बात की खोजमे थे। उन्होंने आपको पाकर सन्तुष्टिका अनुभव किया। आपकी दीक्षा उनकी खोजको पूर्ण सफलता थी । मगनलालजी स्वामी बचपनसे ही कालुगणीके साथी और अभिन्नहृदय रहे । कालुगणीकी इच्छा पूर्ति ही उनकी इच्छापूर्ति थी । इसके सिवाय आपकी दीक्षाके प्रेरक भी रहे । अपनी प्रेरणाकी सफलता मे अधिक खुशी हो, यह स्वाभाविक ही है। चम्पालालजी स्वामी एक तो आपके भाई ठहरे, वह भी दीक्षित । दूसरे उन्होंने आपको दीक्षा भावनासे दीक्षा होने तक बड़ा श्लाघनीय प्रयत्न किया। आप उनके इस प्रयत्नको अपने प्रति महान् उपकार मानते है । सम्भव है, उनके प्रयत्नमे कुछ शैथिल्य होता तो इतना शीघ्र दीक्षा - कार्य सम्पन्न न होता । इस लिए वे भी अपनी विशेष प्रसन्नता के अधिकारी है । मैं मूलसे दूर चला गया। मैंने आपकी स्थितिको छुआ तक Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का दूसरा दौर नहीं। औरोंकी सम्मिलित खुशीसे आपका पलड़ा भारी था। उस दिन आपकी कल्पना साकार बनी थी, आपके सपने पूरे हुए थे। आपने एक जगह अपनी पूर्व कल्पनाका जो चित्र खींचा है, उससे मैं पाठकोंको वंचित नहीं रखूगा :_ "मैं बचपनमे माताजीको पूछता ही रहता-पूज्यजी महाराज कहा है ? अपने यहा कब आयेगे ? जब कभी पधारते, सचमुच उनकी वह दिव्य-मूर्ति मेरे बाल-हृदयको खींचती रहती। मैं उनके सामने देखता ही रहता। उनका वह कोमल शरीर, गौर वर्ण, दीर्घ संस्थान, सिर पर थोड़ेसे सफेद बाल, चमकती आखे मैं देखता, तब सोचता- क्या ही अच्छा हो, मैं छोटा सा साधु बन हर वक्त उपासनामे वेठा रहूं।" मनुष्य संकल्पका पुतला होता है। दृढ संकल्पसे एक न एक दिन असाध्य मालूम होनेवाली चीज भी साध्य बन जाती है। आदमीमे धैर्य टिकता नहीं। वह अपने सकल्पको बनाए नहीं रख सकता । थोडी सी कठिनाईसे डिग जाता है। इसलिए वह लक्ष्य तक पहुंचनेमे सफल नहीं होता। दृढताके साथ होने वाले सतत मानसिक संकल्पका अपने पर और आसपासके वातावरण पर पूर्ण प्रभाव पड़ता है। आपकी दीक्षा होने में आपके पूर्व संकल्पने पूरा हाथ बटाया, यह हमें निर्विवाद स्वीकार करना चाहिए। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरक्तिके निमित्त कालुगणीके व्यक्तित्वका महान् आकर्षण आपकी ससार विरक्तिका सबसे प्रमुख निमित्त बना। आपकी जन्मभूमि तेरापन्थका एक केन्द्र है। विशेषतः आप जिस पट्टीमे रहते, वह धर्म-पट्टीके नामसे प्रसिद्ध है। जन्मगत धार्मिक वातावरण, माताकी दृढ़ धर्म-श्रद्धा और साधु-साध्वियोंका बहु सम्पर्क, ये सभी बात उसका पल्लवन करनेवाली है। चम्पालालजी स्वामी की सत्प्रेरणाएं भी अपना स्थान रखती है। सबसे बड़ी बात संस्कारिता है। ___ हमे यह मानना पड़ता है कि व्यक्तिके संस्कार ही साधन सामग्री पा उद्बुद्ध होते है और उसी दशामे व्यक्तिके कार्य-क्षेत्र का चुनाव होता है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरक्ति के निमित्त मोहनलालजी स्वभावतः कुछ विनोद-प्रिय हैं । दीक्षाको पूर्वरात्रिमे वे आपके पास आये और मीठी मुस्कानसे बोले- लो यह __ लो। आपने कहा-क्या देते है भाईजी । कसौटी पर उन्होंने कहा-देखो यह सौ रुपयेका नोट है। कल तुम दीक्षा लोगे। इसे साथ लिए जाना। साधु-जीवन बड़ा कठोर है। कहीं रोटी-पानी न मिले तो इससे काम ले लेना। मोहनलालजीके इस विनोदपूर्ण व्यंग्यसे वातावरण हँसी से महक उठा। आपने हँसते हुए कहा-भाईजी । यह फ्या ___ कह रहे है ? इनका साधु-जीवनसे क्या मेल ? आप जानते है साधुको यह रखना नहीं कल्पता। भाई-भाईके हास्यपूर्ण संवाद से आस-पासमे सोनेवाले जाग उठे। आपकी बहिन लाडाजीने __ पूछा-क्या बात है ? इतनी हँसी किस बात की १ तुलसीकी परीक्षा हो रही है-मोहनलालजीने कहा। ____दीक्षाके तत्काल बाद ही आप कालुगणीके सर्वाधिक कृपापात्र बन गये। मैं कुछ और आगे बढू तो मुझे यों कहना चाहिए कि कालुगणीकी आपके प्रति परिचयके पहिले क्षणोंमे जो दृष्टि पहुंची, वह अब साकार बन दूसरोंके सामने आई। एक बार मन्त्री मुनि मगनलालजी स्वामीने बताया कि आपके विरक्ति कालमे ही कालुगणीका ध्यान आपकी ओर झुक गया था। आपके पतले-दुवले कोमल शरीरकी स्फूर्ति और विशाल एवं चमकदार आंखोंका आकर्षण अपना उज्ज्वल भविष्य छिपाये नहीं रख सका। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी तेरापन्थ संघ शिष्य के लिए आचार्य के वात्सल्यका वही स्थान है, जो प्राणीके जीवन मे श्वास वा । आपने कालुगणीका जो वात्सल्य पया, वह असाधारण था । आचार्य के प्रति शिष्य का आकर्षण हो, यह विशेष बात नहीं, किन्तु शिष्य के प्रति आचार्यका सहज आकर्षण होना विशेष बात है । उसमें भी कालुगणी जैसे गंभीरचेता महापुरुपका हृदय पा लेना अधिक आश्चर्य की बात है । जिन्हे अपनी श्रीवृद्धिमे बहिजगतका प्ररक्ष सहयोग नहीं मिला, अपनी कार्यजा शक्ति, क्टोर श्रम और हट निश्चय के द्वारा ही जो विकसित बने, वे कालुगणी अनायास ही ११ वपके नन्हे शिष्यको अपना हृदय सौंप दे, इसे समझने मे कठिनाई है किन्तु सौपा, इसमे कोई शक नहीं । जैन - साधुओंको आचार और विचार ये दोनो परम्पराए समान रूप से मान्य रही है । विचारशून्य आचार और आचारशून्य विचार पूर्णता की ओर ले जानेवाले नहीं होते । दीक्षा होने ३४ के साथ-साथ आपका अध्ययनक्रम शुरू हो गया। उसकी देखरेख कालुगणीने अपने हाथमे ही रखी। एक ओर जहा चरम सीमाका वात्सल्य भाव था, दूसरी ओर नियन्त्रण और अनुशासन भी कम नहीं था । साधु- संघका सामूहिक अनुशासन होता है, वह तो था ही। उसके अतिरिक्त व्यक्तिगत नियन्त्रण और अनुशासन जितना आप पर रहा, शायद ही उतना किसी दूसरे पर रहा हो। चाहे आप यों समझ लें - वह जितना आपने सहन किया, उतना शायद ही कोई दूसरा सहन कर सकता है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरक्तिके निमित्त अथवा कालुगणीने उसकी जितनी आवश्यकता आप पर समझी शायद किसी दूसरे पर उतनी न समझी हो। कुछ भी हो, आपकी उस तितिक्षाने अवश्य ही आपको आगे बढ़ाया-बहुत आगे बढ़ाया, हस न उलझे तो यह सही है। वात्सल्य और अनुशासन इन दोनोंके समन्वयसे तितिक्षाके भाव पैदा होते है और उनसे जीवन विकासशील बनता है । कोरे वात्सल्यसे उच्छृङ्खलता और कोरे नियन्त्रसे प्रतिकारके भाव बनते है, यह एक सीधी-सादी बात है। ____ आप अपनी अनुशासन करनेकी आदत पर ही नहीं रहे, उसका पालन करनेकी भी आदत बना ली। यह उचित था । स्वयं अनुशासनको न पाले, उसे पलवानेकी भी आशा नहीं रखनी चाहिये। ___ आपकी दैनिक चर्या पर चम्पालालजी स्वामी निगरानी रखते थे। यह आवश्यक था या नहीं, इस पर हमे विचार नहीं करना है। उनमे अपने वन्धुके जीवन-विकासकी ममता थी, उत्तरदायित्वकी अनुभूति थी, यह देखना है। आप उनका बहुत सम्मान रखते। उनकी इच्छाका भी अतिक्रमण नहीं करते । अध्ययनसे संलग्न रहना, गुरु-उपासना करना, स्मरण करना, कम बोलना, अपने स्थान पर बैठे रहना, अनावश्यक भ्रमण न करना, हास्य-कुतूहल न करना-ये आपकी प्रकृतिगत प्रवृत्तिया थी। कालुगणीने आपको सामुदायिक कार्य-विभाग ( जो सब । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री तुलमी साधुओंकों वारीसे करने होते है ) से मुक्त रखा। उनके बहुमुम्बी अनुग्रहसे समूचे संघका ध्यान आपकी और ग्विच गया। आप लोगोंके लिए कल्पनाओके केन्द्र बन गये, बडे-बडे साध भी आपके प्रभावकी स्थितिको म्बोकार करते थे। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व-शिक्षा ४१ | कालुगणी तथा आचार्यश्री के निकट-सम्पर्कमें बीता है। मुनिश्री चौथमलजी द्वारा रचित भिक्षुशब्दानुशासन की हद् वृत्तिके लेखक है। 'प्राकृत-काश्मीर' इनकी छोटी किन्तु दुन्दरतम रचना है। ये प्रकृतिके साधु है। इन्होंने निरवद्य वेद्यादानके रूपमे तेरापन्थ गणकी अमूल्य सेवायें की है और सोलह वर्षको अवस्थामें आप कवि बने। पट्टोत्सव, मर्याहोत्सव आदि विशेष अवसरों पर आपकी कविता लोग बडे चावसे सुनते। आपने १८ वर्षकी उम्रमे 'कल्याण-मन्दिर' की समस्या-पूर्तिके रूपमे 'कालु-कल्याण-मन्दिर' नामक एक स्तोत्र । रचा । आपका स्वर बड़ा मधुर था । आप उपदेश देते, व्याख्यान करते, गाते, तब लोग मुग्ध बनजाते। बहुधा ऐसा भी होता कि आप गीतिका गाते और कालुगणि उसकी व्याख्या करते। आप - कई बार कहा करते है कि "मैं ज्यों-ज्यों अवस्थामे बड़ा होता , गया, त्यों-त्यों मोटे स्वरमे गाने और बोलनेकी चष्टा करने या। कारणकि ऐसा किये बिना प्रायः अवस्था -साथ (१६ वर्पके बाद ) एकाएक कण्ठ बेसुरे बन साथमे रहे। सिर्फ एक बार शारीही" लिए आपको अलग रहना के कारण आपको वह बहुत अलग रखना नहीं चाहते Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आचार्य श्री तुलमो चेष्टा नहीं करता। तब आप कहते-दूसरे कौन ? यह अपना ही काम है। आपकी उदारतासे प्रभावित हो थोड़े वर्पोम आपके लगभग १६ स्थायी विद्यार्थी बन गये। प्रसंगवश कुछ अपनी बात कहदं। उन विद्यार्थियोमे एक मैं भी था। यह हमारा निजी अनुभव है, हमपर जितना अनुशासन आपकी भौहोका था, उतना आपकी वाणीका नहीं था। आप हमे कमसेकम उलाहना देते थे। आपकी संयत प्रवृत्तिया ही हमे संयत रखने के लिए काफी थीं। आपमे शिक्षाके प्रति __ अनुराग पैदा करनेकी अपूर्व क्षमता थी। आप कभी-कभी हमे बड़ो मृदु बातें कहते -- ___“अगर तुम ठीकसे नहीं पढोगे तो तुम्हारा जीवन कसे बनेगा, मुझे इसकी बडी चिन्ता है। तुम्हारा यह समय बातोका नहीं है। अभी तुम ध्यानसे पढो, फिर आगे चल खूब बात करना। यह थोड़े समयकी परतन्त्रता तुम्हे आजीवन स्वतन्त्र बना देगी। आज अगर तुम स्वतन्त्र रहना चाहोगे तो सही अथ मे जीवन भर स्वतन्त्र नहीं बनोगे। मेग कहनेका फर्ज है, फिर जंसो तुम्हारी इच्छा" " । इसमे जबर्दस्तोका काम है नहीं, आदि आदि ।” विद्यार्थियोंमे उत्साह भरना आपके लिए सहज था। हमने नाममाला कण्ठस्थ करनी शुरू की। बड़ी मुश्किलसे दो श्लोक कण्ठस्थ करपाते । नीरस पदोंमे जी नहीं लगता। हमारा उत्साह बढानेके लिए आप आधा-आधा घण्टा तक हमारे साथ उसके Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापन श्लोक रटते, उनका अर्थ बताते। थोड़े दिनो बाद हम एक-एक दिनमे छत्तीस-छत्तीस श्लोक कण्ठस्थ करये लग गये। और क्या, बात-बातमे आप स्वयं कठिनाइया सह हमारी सुविधाओंका खयाल करते। कारलाइलने लिखा है . "किसी महापुरुषकी महानताका पता लगाना हो तो यह देखना चाहिए कि वह अपनेसे छोटोके साथ कैसा बर्ताव करता है।" आपका मुनि-जीवन नि सन्देह एक असाधारण महानता लिये हुए था। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व- शिक्षा आपने मुनि जीवन के ११ वर्षोमे लगभग २० हजार श्लोक कण्ठस्थ कर पौराणिक कण्ठस्थ परम्परामे नई चेतना ला दी । वह एक युग था जबकि जैनके आचार्य और साधु-सन्त विशाल ज्ञान - राशिको कण्ठात् कण्ठ सभ्चारित करते थे । किन्तु इस वदले वातावरणमे २० हजार श्लोक याद करना आश्चर्यपूर्ण बात है । आपके कण्ठस्थ ग्रन्थोंमे मुख्य ग्रन्थ व्याकरण, साहित्य, दर्शन और आगमविषयक थे। आपने मातृ-भाषा के अतिरिक्त संस्कृतप्राकृतका अधिकारपूर्ण अध्ययन किया । । आपकी शिक्षा के प्रवर्तक स्वयं आचार्य श्री कालुगणी रहे । उनके अतिरिक्त आयुर्वेदाचार्य आशुकविरत्न पं. रघुनन्दनजीका भी सुन्दर सहयोग रहा। इनके जीवनका बहुल भाग पूर्वाचार्य Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व-शिक्षा __ ४१ श्री कालुगणी तथा आचार्यश्री के निकट-सम्पर्कमें बीता है। ये मुनिश्री चौथमलजी द्वारा रचित भिक्षुशब्दानुशासन की वृहद् वृत्तिके लेखक है। 'प्राकृत-काश्मीर' इनकी छोटी किन्तु सुन्दरतम रचना है। ये प्रकृतिके साधु है। इन्होंने निरवद्य विद्यादानके रूपमे तेरापन्थ गणकी अमूल्य सेवायें की हैं और कर रहे है। सोलह वर्षको अवस्थामे आप कवि बने। पट्टोत्सव, मर्यादोत्सव आदि विशेष अवसरों पर आपकी कविता लोग बडे चावसे सुनते। आपने १८ वर्षकी उम्रमे 'कल्याण-मन्दिर' की समस्या-पूर्तिके रूपमे 'कालु-कल्याण-मन्दिर' नामक एक स्तोत्र रचा । आपका स्वर बडा मधुर था । आप उपदेश देते, व्याख्यान करते, गाते, तव लोग मुग्ध बनजाते। बहुधा ऐसा भी होता कि आप गीतिका गाते और कालुगणि उसकी व्याख्या करते । आप कई बार कहा करते हैं कि "मैं ज्यों-ज्यों अवस्थामे बड़ा होता गया, त्यों-त्यो मोटे स्वरमे गाने और बोलनेकी चेष्टा करने लग गया। कारणकि ऐसा किये बिना प्रायः अवस्थापरिवर्तनके साथ-साथ (१६ वर्षके बाद ) एकाएक कण्ठ बेसुरे बन जाते है।" ___ आप सदा कालुगणीके साथमे रहे। सिर्फ एक बार शारीरिक अस्वास्थ्यके कारण कुछ महीनोंके लिए आपको अलग रहना पड़ा। गुरु-सेवाकी सतत प्रवृत्तिके कारण आपको वह बहुत असह्य लगा। कालुगणी स्वयं आपको अलग रखना नहीं चाहते Page #58 --------------------------------------------------------------------------  Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनचर्या प्रात' चार बजे जागना और रातको दश बजे सोना, इसके बीच साधु-चर्या का पालन करना, अतिरिक्त समय में अध्ययन, स्वाध्याय, स्मरण आदि करना, संक्षेपमे आपकी यह दिनचर्या रहती । आप घण्टों तक खड़े-खड़े स्वाध्याय करते। आपने कई चार रातके पहले पहर मे तीन-तीन हजार श्लोकोंका स्मरणपुनरावर्तन किया । आप समयको बिल्कुल निकम्मा नहीं गमाते । मार्गमे चलते-चलते कहीं दो मिनट भी रुकना होता, वहीं स्मरण करने लग जाने । यह अध्यवसाय आपके लिए साधारण था । 'एक क्षण भी प्रमाद मत कर' भगवान् महावीरके इस वाक्यको आपने अपना जीवन-सूत्र बना रखा था । Page #60 --------------------------------------------------------------------------  Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनचर्या प्रात' चार बजे जागना और रातको दश बजे सोना, इसके बीच साधु-चर्याका पालन करना, अतिरिक्त समयमे अध्ययन, स्वाध्याय, स्मरण आदि करना, संक्षेपमे आपकी यह दिनचर्या रहती। आप घण्टों तक खड़े-खड़े स्वाध्याय करते। आपने कई बार रातके पहले पहरमे तीन-तीन हजार श्लोकोंका स्मरणपुनरावर्तन किया। आप समयको बिल्कुल निकम्मा नहीं गमाते । मार्गमे चलते-चलते कहीं दो मिनट भी रुकना होता, वहीं स्मरण करने लग जाने। यह अध्यवसाय आपके लिए साधारण था । 'एक क्षण भी प्रमाद मत कर' भगवान् महावीरके इस वाक्यको आपने अपना जीवन-सूत्र बना रखा था। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ आनाय श्री तु थे । मर्यादोत्सव के दिनों साधु-साध्वीवर्गका सारणान्नारणा के समय आचार्यवर सिर्फ आपकी ही सेवा लेते । शिक्षा के क्षेत्र मे भी आपकी प्रवृत्तियोंसे आचार्यवर पूर्ण प्रसन्न थे। आखिरी वर्षो वे इस चिन्तासे सर्वथा मुक्त रहे । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनचर्या प्रात' चार बजे जागना और रातको दश वजे सोना, इसके बीच साधु-चर्याका पालन करना, अतिरिक्त समयमे अध्ययन, स्वाध्याय, स्मरण आदि करना, संक्षेपमे आपकी यह दिनचर्या रहती। आप घण्टो तक खडे-खड़े स्वाध्याय करते। आपने कई बार रातके पहले पहरमे तीन-तीन हजार श्लोकोंका स्मरणपुनरावर्तन किया । आप समयको बिल्कुल निकम्मा नहीं गमाते । मार्गमे चलते-चलते कहीं दो मिनट भी रुक्ना होता. वहीं स्मरण करने लग जाने। यह अध्यवसाय आपके लिए साधारण था। 'धक क्षण भी प्रमाद मत कर भगवान् महावीरके इन वाक्यको आपने अपना जीवन-सूत्र बना रखा था। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुर संवाद सूर्य अस्त हो गया था। एक आवाज आई। सब साधु इकट्ठ होगये। गुरुको वन्दना की। प्रतिक्रमण-दैनिक आत्मालोचन शुरू हुआ। मुहूर्त भर वही चला । फिर साधु उठ। गुरुके समीप आये। नम्र हो गुरुवन्दना की। अपने अपने स्थान चले गये । थोड़ी देर बाद कालुगणीने आपको आमन्त्रण दिया । आप आगे आये। आचार्यवरने एक सोरठा कहा "सीखो विद्यासार, *परहो कर प्रमाद ने । बघसी बहु विस्तार, धार सीख धीरज मन ।।" और कहा कि यह सोरठा सबको सीखा देना। आपने * दूर । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुर सवाद ४५ आचार्यवरकी आज्ञा शिरोधार्य की । रातका आदेश ( पहर रात आनेके बाद सोनेकी जो आज्ञा होती है ) हुआ । साधु सो गये । चार बजे फिर जागरण हुआ । सूर्योदयमे एक मुहूर्त्त बाकी रहा । एक आवाज आई। सब साधु फिर आचायवरको प्रातः कालिक वन्दना करने एकत्रित हो गए । वन्दना हुई । रात्रिक आत्मालोचन हुआ । सूर्य उगते - उगते साधु अपने दैनिक कार्यक्रममे लग गये | आपने आचार्यवरके आदेशानुसार वह सोरठा साधुओं को कण्ठस्थ करा दिया । समयकी गति अबाध है। दिन पूरा हुआ, रात आई । जो कल हुआ, वह आज भी हुआ। आप आचार्यवरको वन्दना कर मन्त्री मुनि मगनलालजी स्वामीको वन्दना करने गये । उन्होंने आपसे कहा - आचार्यवरने जो तुझे सोरठा फरमाया, उसके उत्तरमे तूने कुछ किया क्या ? आपने सकुचाते हुए कहानहीं । मन्त्री मुनिका संकेत पा आपने एक सोरठा रच आचायवरको निवेदन किया : " महर रखो महाराव, लस चाकर पदकमलनो । सोख अपो सुखदाय, जिम जलदी शिव गति लहू || " यह काव्यमय गुरु-शिष्य - सम्वाद भावी गतिविधिका संकेत बा। अगर आप साधु- संघकी दृष्टिसे होनहार न होते तो यह सम्वाद अवश्य एक नई धारणा पैदा करता । वसी स्थिति पहले बनी हुई थी। इसलिए यह उसका पोपकमात्र बना । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकासको दिशामें कालुगणीके अन्तिम तीन वर्ष जीवनके यशस्वी वपोंमेसे थे । उनमें आचार्यवरने क्रमश मारवाड. मेवाड और मध्यभारतकी यात्रा की। उससे आपको भी अनुभव वढानेका अच्छा मौका मिला। इससे पूर्व आपकी दीक्षाके वाद आचार्यवर सिर्फ बीकानेर स्टेटमे हो रहे। वहाँ भी आप जन-सम्पर्कमे बहुत कम आये। केवल अध्ययन-अध्यापनमे रहे। यात्राकालमे आपने कुछ समय जन-सम्पकमे लगाना शुरू किया । रातके समय बहुलतया व्याख्यान भी आप देने लगे। ये तीन वर्प आपके लिए व्यावहारिक शिक्षाके थे। कालुगणीने आपको कुछ बनाने का निश्चय किया। उसके पीछे बड़े बलवान् यत्न रहे। आपके Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ४७ विकामकी दिशा विकासके प्रति आचार्यवरकी सजगताकी एक छोटी सी किन्तु बहु मूल्यवान् घटना में पाठकोंके समक्ष रखूगा। जैन-मनि पाद-विहार करते है, यह बताने की जरूरत नहीं। आचार्यवर मध्यभारतकी यात्रामे थे, तवकी बात है। आप विहारके समय आचायवरके साथ साथ चलते । वृद्ध - अवस्था के कारण आचार्यवर धीमी गतिसे चलते । समय अधिक लगता, इसलिए आचार्यवरने एक दिन कहा- "तुलसी । तू आगे चला जाया कर, वहा जा सीखा कर ।" आपने साथ रहनेका नम्र अनुरोध किया, फिर भी आचार्यवरने वह माना नहीं। इसे हम साधारण घटना नहीं कह सकते। आपके २०-२५ मिनट या आध घण्टेका उनकी दृष्टिमे कितना मूल्य था, इसका अनुमान लगाइये। आपने कालुगणीको जितनी त्वरासे अपनी ओर आकृष्ट किया, उसका सूक्ष्म विश्लेपण करना दूसरे व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। वे स्वयं इसकी चर्चा करते तो कुछ पता चलता । खेद ऐकि वैसी सामग्री उपलब्ध नहीं हो रही है। ऐसा सुना जाता है कि आपके प्रति कालुगणीकी जो कृपा दृष्टि थी, वह संस्कारजन्य थी। यह ठोक है, फिर भी कारण बोजनेवालेको इतने मासे सन्तोष नहीं होता। वह काय-कारणके तथ्योको टढ निकालं विना विधाम नहीं ले सकता । तेरापंधके एकाधिनायक आचार्यम अनुशाननकी क्षमता होना सवसे पाली विशेषता है। एक शवला. समान आचार Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर __४८ आचार्य श्री तुलसी ' विचार और व्यवहारमे चलनेकी नीति बरतनेवाले मंगमे योग्यताके साथ अनुशासन बनाये रखना बडी दक्षताका काम __ है। सैकड़ों साधु-साध्वियो और लाखों श्रावक-श्राविकाओका __ एकाधिकार पूर्ण सफल नेतृत्व करना एक उल्लेखनीय बात है। हमे आचार्यश्री भिक्षुकी सूझ पर, उनके कर्तृत्व पर सात्विक अभिमान है। उनके हाथोसे बना हुआ संगठन एकताका प्रतीक है, वेजोड़ है। जहा संघ होता है, वहा शासन भी होता है । शासनका अर्थ है-सारणा और वारणा, प्रोत्साहन और निषेध उलाहना और प्रशंमा। इन दोनो प्रकारकी स्थितियोमे उनकी मनोभावनाओको समानस्तरीय रखना, यही संघपतिके कार्यकी सफलता है। दूसरी विशेषता है आचार-कौशल । विचारकी अपेक्षा आचार का अधिक महत्त्व है । आचारहीन व्यक्तिके विचार अधिक मूल्य नहीं रखते। श्रीमद् जयाचार्यने लिखा है कि एक नौलीमे सौ रुपये होते है, उनमे हह रुपयोके वरावर आचार है और ज्ञान एक रुपयेके समान है। हमारी परम्परामे आचारकुशलका कितना महत्त्व है, यह निम्नलिखित एक धारणासे स्पष्ट हो जाता है। मानो, एक आचायके सामने दो शिष्य है --एक अधिक आचारवान् और दूसरा अधिक पण्डित । आचार्यको अपना पद किसे सौंपना चाहिए ? हमारी परम्परा वताती है, पहलेकोआचार कुशल को । आचाय शब्दकी उत्पत्ति भी आचार-कुशलता से हुई है-"आचारे साधुः आचार्यः” । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकासकी दिशा में ४९ क्या मैं नहीं भूलरहा हू ? क्या आचार - कौशलको दूसरा स्थान देकर मैंने कोई गलती नहीं की है ? नहीं । अनुशासनको पहला स्थान इसकी पुष्टिके लिए ही दिया गया है । एक साधुको आचार-कुशल होना चाहिए, यह पर्याप्त हो सकता है किन्तु आचार्यके लिए यह पर्याप्त नहीं होता । उनके साथ एक सूत्र और जुड़ता है, जैसे- स्वयं आचार कुशल रहना और दूसरे साधु-साध्विया आचार कुशल रहें, वैसी स्थिति बनाये रखना । उस स्थितिका नाम है अनुशासन । इसलिए आचार्य के प्रसंगमे आचार - कौशल से पहले अनुशासनको स्थान मिले, यह कोई अनहोनी बात नहीं है। अनुशासनकी योग्यता रखनेवाला आचार - कौशल ही एक मुनिको आचार्य पद तक पहुंचा सकता है । तीसरी विशेषता संघ - हितैपिता और चौथी है विद्या । कालुगणीने आपको पहली बार देखा, तब आपके प्रति उनका एक सहज आकर्षण बना, उसे हम संस्कार मान सकते है । किन्तु बादमे उनकी आपको उत्तराधिकारी वनानेकी धारणा पुष्ट होती गई, वह आपकी योग्यताका ही परिणाम है । आपके मुनि-जीवन मे उक्त चारो विशेषताएं किस रूप मे विकसित हुई, इससे पाठक अपरिचित नहीं रह रहे है । Page #70 --------------------------------------------------------------------------  Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य-जीवन Page #72 --------------------------------------------------------------------------  Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघका नेतृत्व ६३ की भाद्र शुक्ला नवमीका सूर्योदय हुआ। गंगापुरकी ___ सकरी गलियोंमेसे आ आ हजारों आदमी एक विशाल चौकमे __जमा हो रहे थे। सबके चेहरेपर खुशो झलक रही थी। उनके मनोभाव खिन्नताके बाद प्रसन्नताका आलिङ्गन करते जैसे लगरहे धे। देखते-देखते चौक खचाखच भर गया। सबकी आखें प्रतीक्षामे अधीर हो रही थीं। दो-चार साधु आये। चौकके दायें ओरकी चोकी पर एक वडा पाट विछाया। उस पर श्वेत वससे पने आसनकी आभा निराली थी। मृदु-गंभीर जयघोपने प्रतीक्षाका बन्धन तोडा । मंझला पद. गौर वर्ण, सुन्दर आकार पतला शरीर, गहरे वाल, विशाल भौहें, कपालको पश करती लम्पी और चमकदार आवं, गम्भीर मुद्रा, सफेद वस्त्र धारण दिये Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलगी श्री तुलसी आचार्य-पदका अभिषेक पाने आ रहे है। गाशुओं की मण्डली साथ है। जनताने जाना। बडी तत्परताके साथ सब साथके साथ उठे। अपने उदीयमान वर्म-अधिनायकका अभिनन्दन किया। आप पाट पर विराज गये। आपके एक ओर माधु, दूसरे ओर साध्वियों बैठ गई। सामने अपार जन-समुदाय था। परम श्रद्धेय श्री कालुगणीके स्वर्गवासके बाद यह पहला समारोह था। सबसे पहले मङ्गलाचरणमे नमस्कार-महामन्त्रका पाठ हुआ। उसके बाद मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामीने आपको नई पछंबडी धारण कराई। यह था आपका पट्टाभिपेक । समूचे संघने संघगान 'जय जय नन्दा' गा आपका अभिनन्दन किया। विद्वान् साधु-साध्वी तथा श्रावकवर्गने कविताए पढीं। आपने एक संक्षिप्त प्रवचन किया। कालुगणीकी अविस्मृत स्मृति कराते हुए उनके महान् व्यक्तित्व पर कुछ बात कहीं। उत्सवके उपलक्ष्यमे साधुसाध्वियोंको गाथाएँ ' बख्शीश की। समारोह सम्पन्न हो गया। ___ वह दिन लाखों व्यक्तियोके लिए अचरजका दिन था। उन्होंने देखा-तेरापन्थके एकतन्त्रीय धर्म-शासनका भार एक २२ वर्षीय युवकने सम्हाला है। किसने जाना कि इसकी रश्मियो मे विश्वको आलोकित करने की शक्ति है, यह कोई सन्देश लेकर १ लिपि-विकास तथा पारस्परिक कार्य व्यवहारकी व्यवस्थाकी एक साधन-प्रणाली। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ सघका नेतृत्व आया है। आगे कुछ भी हो, वह दिन कल्पनाओका दिन था। या यो कह कि उस दिन कालुगणीके मनुष्यके पारखी होनेकी बात कसौटी पर आई थी। जैन-इतिहासमे इतनी कम उम्रमें आचार्य-पद पानेके आचार्य हेमचन्द्र आदिके एक दो उदाहरण मिलते हैं। इसलिए लोगोके आश्चर्यको अतिरंजित नहीं कहा जा सकता। ____ आपने जब शासनका कार्य-भार सम्हाला, उस समय भिक्षुसंघमे १३६ माधु और ३३३ साध्वियां थीं। उनमे ७६ साधु आपसे दीक्षा-पर्यायमे बड़े थे। लाखों श्रावक थे। आपका व्यक्तित्य समझिये, संघका सौभाग्य समझिये, कालुगणीका प्रभाव या संघ-मर्यादाका महत्व समझिये, कुछ भी समझिये; आपके नेतृत्वका समृचे संघने जिस हर्पके साथ अभिनन्दन किया, वह जड लेपनीका विपय नहीं बन सकता । नवमीके मध्याहमे आपने साधु-साध्वियोको आमन्त्रित कर अपनी नीतिये बारेमे एक वक्तव्य दिया। वह यों है :__प्रय आचार्यप्रवर श्री कालुगणीका स्वर्गवास हो गया, एसमे में स्वयं खिन्न ट्र, साधु-साध्वियां भी खिन्न है। मृत्यु एक अपश्यंभावी घटना है। इसे किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता। पिन्न होनेसे क्या बने। इसलिए सभी साधु-माध्वियोस मेरा चा पाना कि सबस चातको विन्मनसी बना दें। इसके सिवाय चित्राणी स्थिर परने दसरा कोई उपाय नहीं है। अपना शासन नोतिनधान शासन है। इन सभी माधु Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्राचार्य श्री तुलमी साधियाँ नीतिवान् है । रीति-मर्यादा के अनुसार चलने पर सदा आनन्द है । किसीको कोई विचार करने की जरूरत नहीं । श्रद्धेय गुरुदेवने मुझे शासनका कार्यभार सौंपा है। मेरे नन्हे कन्धो पर उन्होंने अगाध विश्वास किया, इसके लिए में उनका अत्यन्त कृतज्ञ हू । मेरे साधु-साध्वियां बड़े विनीत, अनुशासित और इको समझनेवाले है । इसलिए मुझे इस गुरुतर भारको वहन करनेमे तनिक भी संकोच नहीं हुआ और न हो रहा है मैं पुनः वही बात याद दिलाता है कि सब साधु-साध्वियाँ अपने शासनकी नियमावलीका हृदय से पालन करें। मैं पूर्वाचार्य श्री की तरह सबकी अधिक से अधिक सहायता करता रहूगा, ऐसा मेरा दृढ संकल्प है । जो मर्यादाकी उपेक्षा करेंगे, उन्हें में सहन नहीं करूंगा । इसलिए मैं सबको सावधान किये देता है | सत्र भिक्षु-शासनमे फले-फूले रहे । यह सबका शासन है । सत्र सयम पर दृढ रहे। इसीमे सबका कल्याण है, शासनकी उन्नति है । मैं आशा करता हूं, यह मेरा पहला वक्तव्य साधुसाध्वियों के अन्स. करणमे रमता रहेगा ।" इसका साधु-संघ पर जादूका सा असर हुआ । अवस्था और योग्यता में गठबन्धन नहीं है इसकी सचाईमे कोई सन्देह नहीं रहा । आपके पट्टासीन होने पर साधु-समाजको कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ। कारण कि उसके लिए यह अज्ञात विपय नहीं था जो भावना मनतक थी, वह बाहर आगई, बस सिर्फ इतना सा हुआ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मघका नेतृत्व भाद्र कृष्णा अमावस्याकी बात है, श्रीकालुगणीने आपको एकान्त मे आमन्त्रित किया । आप उस बार करीव १|| घण्टा तक गुरुदेवकी सेवामे रहे । गुरुदेवने शासनसम्बन्धी रहस्य कुछ लिखाये, कुछ मौखिक बताये। अपने उत्तराधिकारी के रूपमे उनका आपसे मन्त्रणा करनेका यह पहला अवसर था । कालुगणी ऐसा करना नहीं चाहते थे । उनकी हार्दिक इच्छा कुछ और थी । वे अपनी तपोमूर्ति संसारपक्षीय माता श्री छोगाजी के समक्ष बीदासर आपको युवाचार्य पद देना चाहते थे । किन्तु ऐसा हो नहीं सका। उनके जीवनका यही एक ऐसा मनोभाव है, जो अधूरा रहा। मध्यभारतकी सफल यात्रा से लौटते समय चित्तौडमे उनके चाएँ की तर्जनीम एक छोटा-सा व्रण निकला। वह पीमेधीमे चलते-चलते भीषण बनगया । बहुत उपचार हुए । फल नहीं निकला। अखिर उन्हें अपनी अन्तिम स्थितिका निश्चय ही गया। तब उन्हे अपनी पुरानी धारणा बदलनी पड़ी। इसीका परिणाम अमावस्या दिन सके सामने आया । ܝ भादवा सुदी २ के दिननक गुरुदेवकी प्रॉट कलनाओसे आप लाभान्वित होते थे । साधु-साध्वियों को शिक्षाफे अवसर पर गुरदेव द्वारा साधारण संपेत मिलते रहे। जसे- "समय पर आचार्य अवस्थामे छोटे हो बड़े हो, फिर भी सबको समान रूप सेमरहना चाहिए। गुरु जी कुछ पर है. यह शान हिसोबो यान ही करते है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी 1 इसके सिवाय स्पष्टरूपमे उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा। सूर्यकी किरणें उल्लास लिये आई । तीजका पुण्य प्रभात हुआ । आकाश और भूमि दोनों रूपवान् बनगये | जो छिपनेवाला नहीं, वह छिप नहीं सकता। वह चमकेगा, अपनेआप उसका रूप निखरेगा | उसके प्रति दूसरे उदार हों, इसमें शोभा है। इससे ऋण उॠणताके भाव बनते है, उपकार्य-उपकारक का सम्बन्ध जुड़ता है, तसे अद्वैत बनता है, श्रद्धा और पुजाकी भूमि तैयार होती है । ५८ कालगणीकी कृपाका दूसरा प्रवाह नया रूप लिए बहने चला है । लोगों की कल्पनाएँ मूर्त वनरही है। आचार्यवरने सब साधु-साध्वियों तथा श्रावकोंकी उपस्थितिमे युवाचार्य पदका पत्र लिखा । शरीर अस्वस्थ था । हाथमे अतुल वेदना थी । फिर भी कर्तव्य निभानेकी असीम भावना थी । इस घडी से पहले उन्हें शासन - प्रबन्धकी चिन्ता मुक्ति नहीं दे रही थी। वे अपने उत्तरदायित्वमे कोई खामी देखना नहीं चाहते थे । गुरुदेवने आपको युवाचार्य - पदका उत्तरीय धारण कराया । अपना लिखा पत्र पढ़ा : - "गुरुभ्यो नम . भिक्षु पाट भारीमाल भारोमाल पाट रायचन्द रायचन्द पाट जीतमल जीतमल पाट मघराजा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सघका नेतृत्व मघराज पाट माणकलाल माणकलाल पाट ढालचन्द्र डालचन्द पाट कालूराम कालुराम पाट तुलसीराम विनयवत श्राज्ञा मर्यादा प्रमाणे चालमी सुखी होसी ( सम्वत् १९९३ भादवा प्रथम सुदी ३ गुरुवार ) " ५९ ममृचे संघमे हर्ष की लहर दौड़ गई। योग्यतम धर्मनेताको पा सबको गौरव अनुभव हुआ । समूचा संघ चिन्ताविमुक्त हो गया ।। तेरापन्थ भावी व्यवस्थाका भार एकमात्र आचार्य पर होना है। एसमे दूसरे किसीकी पंचायत नहीं होती । आचार्य जिसे योग्य समझें, इसे अपना उत्तराधिकारी चुन लेते हैं। वही समूचे संपको बिना किसी 'ननु' 'नच' के मान्य होता है 1 न इनमें किसीके मतफी अपेक्षा होती है, न सलाह की । आपाय से अपना सबसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व मानते है । फिर भी फाल्गणीके अस्वास्थ्यको देखते हुए भावी व्यवस्थाका न होना पये लिए चिन्ताका कारण था । एवाधिनायरतामे पूर्वापाद्वारा भाषी आचार्य न चुना जाये ना पण भविष्य समस्यामय पन जाता है। पिन्तु महामनीषी गुरुदेव वसीय पित्तार पानेवाले नहीं थे। उन्होंने अपना मगर दिव Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी __ पूरा किया। इससे समूचे संघको आनन्द हुआ। स्वयं उन्होने अनुभव किया। ____ आचार्यश्री के सामने अपने उत्तराधिकारीकी स्थिति बडी सुखद घटना थी। कई वर्षों तक ऐसी स्थिति रहती तो वह एक स्वर्ण-सुगन्धका संयोग बनता। मनुष्यका स्वभाव कल्पना करने का है। आखिर तो जो होना हो, वही होता है । ___ कल्पनाकी मीठी घड़ियोंको अधिक अवकाश नहीं मिला। छठके शामको हम सबके देखते-देखते परम श्रद्धय गुरुदेव हम सबसे दूर हो गये। अब हमारे पास उनकी दहिक सम्बन्धोकी स्मृतिके सिवाय और कुछ नहीं रहा। संघपति के प्रति अट्ट असीम भक्तिके कारण वह दिन समूचे संघके लिए असह्य था। उस समय आचार्यश्री तुलसीने अन्तर-वेदनाके उपरान्त भी संघको बडी सान्त्वना दी। आपका धैर्य, साहस दूसरोके लिए सिर्फ आश्चर्यमे डालनेवाला ही नहीं, किन्तु उन्हें साहसी बनानेवाला भी था उसी दिन आपने शासनका पूर्ण उत्तरदायित्व संभाला। नवमीके दिन बड़े समारोहके साथ आपका पट्टोत्सव मनाया गया। अब भी प्रतिवप उसी दिन बड़े समारोहके साथ वह मनाया जाता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला कदम कालुगणिने साधु-संघको शिक्षा-सम्पन्न बनानेके लिए जो चिरकालीन साधना की. उसके अनेक परिणाम सामने आये। अपने शिष्यको ग्यय तयार पर अपना उत्तराधिकारी बनाना यह सबसे घटा परिणाम था। तेरापन्धके प्रतिहासमे यह पहला अवसर पा। मरे भी अनेक शिप्य बडे विद्वान् बने. उन्होंने सुबर क्षेत्रों में जाकर धर्मको घटी प्रभावना की। फिर भी काटुगणि अपनो मापनाची परम सीमा पर पटुची हुई नहीं मानते थे। मातीची शिक्षाका प्रश्न अभी हल नहीं हो पाया था। उनके पामुखी विकासपी योजनाएं पापंसालमे नहीं आ सकी थी। दागीन सपा को भावी कार्यकम दताया, मावी-शिक्षा राम र प्राद आया। सापने पला दम दही चुना' Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्राचार्य श्री तुलसी कालुगणीका स्वर्गवास हुए पूरे पन्द्रह दिन नहीं हुए थे, आपने साध्वियोंको संस्कृत-व्याकरण-कालुकोमुदीका अध्ययन शुरू करवाया। वह आपके जीवनका अभिन्न कार्यक्रम बन गया । आज भी उसी रूपमें चालू है। साध्वी-शिक्षाके लिए आपने जो सफल प्रयास किया, वह आपके यशस्वी जीवनका एक समुज्ज्वल पृष्ठ होगा। ___ इस विशेष शिक्षामे शुरू-शुरूमे १३ साध्विया आई थीं। आज उनकी संख्या लगभग १५० है। साध्वी-शिक्षाके बारेमे अपने उद्गार व्यक्त करते हुए आप कई बार कहते है: "शिक्षाके क्षेत्रमें हमारी साध्विया किसीसे पीछे नहीं है। इनके पवित्र आचार-विचार, विद्यानुराग और निष्ठा प्रत्येक नारी के लिए अनुकरणीय है।" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा-प्रवृत्तियां आचार-फौशलको सुसंस्कृत रखने के लिए विचारोंकी भित्ति विवेचनापूर्ण होनी चाहिए । वहुमुखी शिक्षाके विना यह सम्भव नहीं। इसलिए आपने उन पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। आपकी शिक्षा सम्बन्धी प्रवृत्तियोकी जानकारी भी फम महत्त्व पूर्ण नहीं है। विधा विकासको प्रवृत्तिका पहला अंग है तीन पाठ्यक्रमोंका निर्माण। पद योहै. (1) मायामि तिम (E)माम (1) नवम-सिरम पाली प्रवृत्ति त्यावरण (हिन्दी, संकट और प्राप), सावि. रिटान्न. दर्शन, मीरा, इतिहास, स्वादिष. न्य Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्य श्री तुलसी (वैकल्पिक ) भापा और कला इन ह विपयोंका शिक्षण होता है। इसके शिक्षाकालको अवधि नौ वपकी है । इसकी योग्य, योग्यतर और योग्यतम, ये तीन परीक्षाएँ निश्चित है । साधु-संवमे इसका सफल प्रयोग हो रहा है। जैनधर्म शिक्षा' द्वारा श्रावक - समाज तत्त्वज्ञानी, सर्वधर्मसमन्वयी और विशालदृष्टि होगा, इसमे कोई सन्देह नहीं । अनपढ स्त्रियाँ भी आपकी प्रेरणाके सहारे जैन-सिद्धान्तोकी मार्मिकता तक पहुचनेमे सफल हुई है। स्त्रीशिक्षाके बारेमे आप अन्तर-द्वन्द्वसे मुक्त है। इस विषय पर आपने कहा है “शिक्षा विकासका साधन है। उससे चुराई बढ़ती है, मैं यह माननेको तैयार नहीं हू । शिक्षाके लिए स्त्री-पुरुपका भेद-भाव नहीं किया जा सकता। बुराईके कारणोंको ढूढना चाहिए। उनके बदले शिक्षाको बदनाम करना एक बुरी मनोवृत्ति है।" तीसरी शिक्षा-पद्धति प्रयुक्त नहीं हुई है। प्रयोगकी परिधिके आसपास है। सिद्धान्तके अतिरिक्त दूसरे विपयोंमे गति नहीं पानेवालोंके लिए यह पद्धति अत्यन्त लाभकारक होगी, ऐसा सम्भव है। इनके अतिरिक्त मासिक निबन्ध-लेखन, संस्कृत-भापण-सम्मेलन, समस्या-पूर्ति-सम्मेलन, कवि-सम्मेलन, साप्ताहिक संस्कृतभापण-प्रतिज्ञा, वाद-प्रतियोगिता, सिद्धान्त-चर्चा-आयोजन, सहस्वाध्याय आदि अनेकविध प्रवृत्तिया आपकी विद्या विकासयोजनाके अंग बनीं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा-प्रवृत्तिया आगमनिष्ठ, सुसंगठित और सुमर्यादित तेरापन्थ संघको बहुमुखी विद्या-सम्पन्न करनेका श्रेय आपकी सूक्ष्म दृष्टिको मिलेगा। तेरापन्थ संघ आपका कितना ऋणी है, यह भविप्य बतायेगा। विडला-कालेज, पिलानीके धर्म-संस्कृति एवं संस्कृत-साहित्यके प्राध्यापक ए. एस० वी० पंत एम० ए० वी० टी० ने एक लेखम बताया है "ये साधु शुद्ध एव धार्मिक अध्ययन करने में अत्यधिक लगे रहते है। मैने उनमें से कई एक साधुओके साथ माहित्यिक एक दानिक चर्चा को, अनुभव किया कि उनमें अच्छी जानकारी हैं। उनमें से कई एक साधु तो उच्च श्रेणी के कवि है। नव दीक्षितोको शिक्षा देनेका उनका ढग स्तुत्य है। वह अध्ययन, वोध आचरण एव प्रचारण पर समानरूपेण जोर देते है।" I These Sadhus die very much dei oled tolle pursuit of a studies secular and arwed 1 hari literary and philosophical discussions with one of thiem I found them quite well informed Some of them are poels of a very high order 'I her sistem of imparting education to the rails inted is piarseworthy Inlays equal emphauss in the four aspects of the persunt of hnonicere । .. सरन study', २ बांध assimilation साच Application, ४ प्रचर dissemination (विदर-परिया, २६ , १९५१) वर्षगरमा पट. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशल वक्ता मानव-समाजको लक्ष्यकी ओर आकृष्ट करनेके दो प्रमुख साधन है - लेखन और वाणी । लेखनीमे जहा भावोको स्थायी बनानेका सामर्थ्य है, वहा वाणोमे तात्कालिक चमत्कार-जादका सा असर होता है। आपने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा युवकहृदयमे जो धर्मका पौधा सींचा है, वह धार्मिक जगत्के उज्ज्वल भविष्यका मंगल-संकेत है। आजके भौतिकवादी युग और आत्महीन शिक्षा-पद्धतिमे पले हुए अर्ध-शिक्षित युवकोंकी धर्मके प्रति अश्रद्धा होना एक सहज स्थिति बन गई, वैसे वातावरणमे आपकी मर्मस्पर्शी विवेचना और तर्कसंगत उत्तरोंने युवकोंकी दिशा बदलनेमे जो सफल प्रयास किया है, वह सबके लिए उपादेय है । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ कागल वक्ता आपका मृदु-मन्द्र स्वर, गम्भीर घोप सुदर तक पहुंचनेवाली आवाज श्रीनाको आश्चर्यचकित किये बिना नहीं रहती। ध्वनिविस्तार कका नारा लिये बिना ही आप व्याख्यान करते है। फिर भी दश-पन्द्रह हजार व्यक्ति तो बड़ी मुविधाके साथ उले सुन सकते है। यह शक्ति बहुत विरले व्यक्तियांको ही सुलभ होती। राजस्थानमें आपके व्याख्यानकी भापा राजस्थानी जोती। हिन्दी भाषी प्रान्तीम आप हिन्दी बोलते हैं। गुजराती लोगांम गुजगनी और आवश्यकताने पर कभी कभी मतम भी व्यायान होता। आप देश-कालकी मर्यादाओको अच्छी नरा नमन। जाप, सार्वजनिक वक्तव्यांक अवसर पर जारो लोग बी उत्सुकतासे जाते है । आपको पाणीसम्बन्धी जो पातिक विशंपताच प्राम, उनने मानसिक सिरना पर पान नहीं है। सापकोर समय पर R AL -"मेरे पाख्यान लोगायो पर मिले. व उद जीवनर' में चार-चान अगर लोप-रंजन लिए नीमने चामा " Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ आचार्य श्री तुलसी सुनते बीडीके बण्डल फेक दिए, चिलमे फोड दी, आजीवन उसमे मुक्त हो गए। कानूनकी अवहेलना कर मग पीनेवालोने मय छोड़ दिया। और क्या, चोरबाजारी जैती मीठी छरी खानेवाले, भी आपकी वाणीसे हिल गये। वाणसे न हिलनेवालों को भी __वाणो हिला देती है. इसकी सच्चाई मे किसे सन्देह है। इस नवयुगकी सन्धि-बेलामे नवीनता-प्राचीनताका जो संघर्ष ___ चल रहा है, उसे सम्हालने तथा वुड्ढो और युवकोको एक ही ___ पथ पर प्रवाहित करनेमे आपकी वाक-शक्तिक महज दर्शन मिलते है। आप व्याख्यान देते-देते श्रोताओकी मनोदशाका अध्ययन करते रहते है। आचाराग सूत्रमे बताया है कि व्याख्याताको परिपद्की स्थिति देखकर हो व्याख्यान करना चाहिए | अन्यथा लाभके बदले अलाभ होनेकी सम्भावन रहती है। श्रोताकी तात्कालिक जिज्ञासाका स्वयं समाधान होता रहे, यह वक्त त्वका विशेष गुण है। गवनमेट कालेज, लधियाना' मे एकवार आप प्रवचन कर रहे थे। वहा धर्म प्रवचनका यह पहला अवसर था। बहुत सारे हिन्दू और सिस्व विद्यार्थी जैन-साधुओंको चर्यासे अनजान थे। उन्हे साधुओंको वेपभूपा भी विचित्र सी लग रही थी। वे प्रवचनकी अपेक्षा बाहरी स्थितियों पर अधिक ध्यान किये हुए थे। आपने स्थितिको देखा। उसी वक्त बाहरी स्थितिसे दूर भागने वाले विद्यार्थियों को सम्बोधन करते हुए कहा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुगल वक्ता "भाइयों । आप घबड़ाइये मत । आपके सामने ये जो साधु बंटे है, वे आप जैसे ही आदमी है। श्रेष्ठ आदमी है। सिर्फ पभूषाको देखकर आप इनसे दूर मन भागिए। ये तपस्वी है। इनके जीवन की कठोर साधना है। ये पढ़े लिखे हैं। इनका साग समय गम्भीर अध्ययन, चिन्तन मनन वीतता है। आप इनके सम्पर्कमे बात कुछ सीख सकते है।" दोक्षणमे स्थिति बदल गई। उन्हें आन्तरिक जितानाका समाधान मिल गया। एमलिए वे इस आशंकास हटकर प्रवचन सुननं एकानो गये। आपके व्यारल्यानका सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आप किमी पर आक्षेप नहीं करते। जो बात करते हैं. वह निद्धात के रूपये परते। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० आचार्य श्री तुलगी आप बचपनसे ही अध्यापन कार्यमे रहे है । इसलिए आपकी वक्त तामे वह शली झलक जाती है। प्रत्येक विषयका आदिसे अन्त तक निर्वाचन करना, व्युत्पत्तिसे फलित तक समझाना आपकी सहज प्रवृत्ति है। स्यात किसी प्रौढ श्रोताको यह यन किञ्चित् सा लगे किन्तु जनसावारण के लिए विशेष उपयोगी है । जनसाधारणके हृदय तक पहुंचनेवालोंकी वाणीमे मरलता और सरसता हो, यह नितान्त वाञ्छनीय है। आप व्याख्यानके बीच कहीं कहीं गायन को भी आवश्यक समझते है । ग्रामीण अथवा अपढ़ लोगोके बीच आप अधिकतया कथा और चित्रोंका सहारा लेतेहै। उनके द्वारा गृढसे गढ तत्त्व सरल बन जाता है, हृदयमे पैठ जाता है। पण्डितोमे उनकी भापा तथा ग्रामीणोंमे ग्रामभापाके सहारे कार्य करना सफलताकी कजी है। सब जगह एकसा बने रहनेका अर्थ है असफल होना । ग्रामीणोंके बीच बैठकर कोई पण्डिताई जचाए तो वे वेचारे क्या समझ। उन्हें कोई उन जैसा बनकर समझाए तो वे समझने को तैयार है। उनमे शहरी लोगोंको भाति आग्रह, पक्षपात और बुराईके प्रति प्रेम नहीं है। दिल्लीसे १० मील दूरी पर एक 'राई' ग्राम है। आप वहा पधारे। व्याख्यान हुआ। वहाके सैकडों ब्राह्मण और किसान सुनने आये। आपने तम्बाकू, व्यभिचार, शराब, खान-पानकी चीजोंमे मिलावट, कूड तोल-माप आदि बुराइयोंको उन्हें समझाया। उसी समय सैकडों व्यक्तियोंने इन सब बुराइयोंको छोड़ने Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागल वरता ७१ की प्रतिताकी और उन्होंने अपनेको धन्य समझा। आपकी सार्वजनीन वृतिका तब हृदयग्राही साक्षात होता है, जब आप गावाकी जनताके बीच पहचकर उनकी सीधी-सादी बोलीमे उन्हें जीवनमुबारकी बात सुनाते है, सत्य-अहिंसाका उपदेश देते है । आपकी पुन लोकांनर प्रवृत्तिका उल्लेख करते हुए राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रमादने बड मामिक उद्गार व्यक्त किये है। वे अपने एक पत्रम लियत है Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि और लेखक आपकी सर्वतोमुखी प्रतिभा प्रत्येक क्षेत्रमे अबाध गतिसे चमक रही है। साहित्य-जगत् आपके ऋणसे मुक्त नहीं है। आपकी अमर कृति 'कालु यशोविलास' साहित्य जगत्का एक देदीप्यमान रत्न है। उसमे शब्दोंका चयन, भावोकी गम्भीरिमा, वर्णनाकी प्रौढता, परिस्थियोंका प्रकाशन, घटनाओंका चुनाव ऐसी भावुकताके साथ हुए है कि वह अपने परिचयके लिए परनिरपेक्ष है । संगीतके मिठाससे भरापूरा वह महाकाव्य जैन-सन्तो की साहित्य-साधनाका जीवित प्रमाण है। भारतीय साहित्यकी सन्तोंके मुहसे प्रवाहित हुई धारा विश्व की सम्माननीय निधिमे अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये हुए है। मोह-मायासे दूर तटस्थ वृत्तिमे रहनेवाले साधु-सन्तोंकी वाणीसे Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ ___ कवि और लेखक जनताका असीम हित सध सकता है। आप अपने वीस वपके कवि-जीवनमे करीव दश हजार पद्य लिख चुके हैं । आपकी फुट लेख-सामग्री भी विचारयोंको प्रचुर मात्रामे स्वस्थ और स्फर्तिप्रद मानसिक भोजन देती है। विदेशी सूत्रोने भी आपके विचारोंका हार्दिक स्वागत किया है। विश्वके विभिन्न भागोम होनेवाले सम्भलनोके अवसर पर दिये गये आपके वक्तव्य, सन्देश बडे मननीय है। उनमेसे कुछ एक ये है : (१) 'अशान्त विश्वको शान्तिका सन्देश (२) 'धम-रहस्य (३) 'आदर्श राज्य (४) 'धम सन्देश (५) 'पूर्व और पश्चिमकी एकना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ प्राचार्य श्री तुलगी (६) 'विश्वशान्ति और उसका मार्ग (७) धम सब कुछ है, कुछ भी नहीं (८) वाद का व्यामोह (६) 'अपरिग्रह और अर्थवाद (१०) “संघप कसे मिटे ? (११) 'बिदाई सन्देश (१२) "धर्म और भारतीय दर्शन (१३) गणतन्त्र की सफलताका आवार-अध्यात्मवाद (१४) भारतीय संस्कृतिकी एक विशाल धारा १-शान्ति-निकेतनमे प्रायोजित 'विश्व शान्ति सम्मेलन' के अवसर पर २-जनवरी सन् १९५०, के दिल्ली के 'सर्व-धर्म-सम्मेलन के अवसर पर ३-भिवानी ( पजाब ) अापाढ (प्रथम ) शुक्ला १४, स० २००७ ४-- दिल्लो-सब्जीमण्डीमे आयोजित 'साहित्य-गोप्ठी' मे ज्येष्ठ __ शुक्ला १२, स० २००७ ( २८ मई, ५०) ५-नई दिल्ली 'सम्पादक-सम्मेलन' में दूसरा वक्तव्य ज्येष्ठ कृष्ण ३० (१६ मई, ५०) ६-आषाढ कृष्णा ८ गुरुवार, करोलबागमे , देहल से विदाई के अवसर पर ७-कलकत्तामें डा० राधाकृष्णन्की अध्यक्षतामें आयोजित भारतीय दर्शन-परिषद्' के रजत-जयन्ती समारोहके अवसर पर ८-हासी (पजाब), २६ जनवरी, १९५१ ९-हासी (पजाब ), आश्विन, २००७ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि योर लेन्वक इनमे 'अशान्त विश्वको शान्तिका सन्देश' यह आपका पहला नन्देश। द्वितीय महासमरकी भोपण लपटोसे झुलसे हुए संसार ने इसकाार्दिक स्वागत किया। देश और विदेशमे सब जगह अच्छी प्रतिक्रिया : महात्मा' गाधीने 'मन्देश' की पुस्तिकापर का जगा. टिप्पणियां लिखीं। शान्ति-मन्देश ता०२०-६-४५ के दिन दिया गया था परन्तु प्रकाशित काफी लम्ब समय के बाद हुआ इसलिए भूमिकाके पृष्ठ पर महात्माजीने लिया से सन्देश निकालने देशपचा विश्य-शान्तिक उपायोका निर्देश करते E'नग्यपन्य का जिन किया गया है। उसके बारेमे पृष्ट ११ पर मामाजीने यिा; 'या एस सम्यन्वका प्रचार कियागया ?" प्रन्ट २१ पर विश्वास्तिर मायभीम उपायांका निर्देश करते है। नोनात यनताः ग मपर टिप्पणी करते हुए लिया-'या Ram कि दुनिया न माापुरकान नियमांची मान रानी। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्राचार्य श्री तुलमी आचार्यश्रीके प्रवचन, कवित्व और लेखोंकी पंक्तियां रखे बिना ही आगे बढ़गा तो संभव हे, पाठक अतृप्तिका अनुभव करगे। इसलिए मुझे अति कृपण क्यों होना चाहिए। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनकी पंखुड़ियाँ फुलकी कोमल पंखुडियों मे आकर्षण होता है, इसमे कोई विवाद नहीं। वह कितना टिकता है, इसमे कुछ ऐसा वैसा है । चे प्रवचनकी पंखुडियों, हृदयकमलको विकसानेवाली पंखु दिया कितना आकर्षण, नहीं कितना स्थायित्व रखती है, इसका मध्यको ज्ञान है । आत्मनिष्ट योगीकी साधनासे तपी वाणीको नीलिए इसलिए लोग उमडते है कि उसका उनपर स्थायी एसर होगा। स्थायी असर जितना ही नहीं, उससे कहीं अधि पन उनके हितका है। अहिनकी माता असर भी पायी होता है. पर उससे क्या बने । आचार्यश्री की प्रवचनपाणी जनताये हितपी जो साधना है. सो मार्गदर्शन. ए ब्यौरा देना में मेरो शरिके परे नानना है। भी ये बिना नहीं रहेगा। "" Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ प्राचार्य श्री तुलसी __प्रवचनकार आचार्यश्री की जीवन-भूमिका आध्यात्मिक है । इसलिए आपको वाणीमे उसीकी एकरसता है । अध्यात्मम व्यवहारकी बात नहीं रहती, यह नहीं है । व्यवहारका शोवन अध्यात्मसे ही होता है। जो लोग धर्मसे दूर भागकर जीवन चलानेकी बात करते है, उनको लक्ष्य कर आपने एक प्रवचनमे कहा__ "धर्म' से कुछ लोग चिढते है, किन्तु वे भूल पर है। धर्मके नाम पर फेलो हुई बुराइयों को मिटाना आवश्यक है, न कि धर्मको। धम जन-कल्याणका एकमात्र साधन है।" ___ आप यह मानते है कि आज धर्मसे विकार घुस आये है। आपका दृष्टि बिन्दु यह है कि धर्ममे घुसे हुए विकारों को निकाल फेको, धर्म फेंकने जैसी वस्तु है ही नहीं । आपके शब्दोमे वह हमारे जीवनमे उतना ही आवश्यक है, जितना कि रोटी-पानी । आपने एक , वचनमे बताया :___“जो लोग धर्म त्याग देनेकी बात कहते है, वे अनुचित करते है। एक आदमो गन्दा विषैला पानीसे बीमार हो गया । अब वह प्रचार करने लगा कि पानी मत पीओ, पानी पीनेसे बीमारी होती है। क्या यह उचित है ? उचित यह होता कि वह अपनी भूलको पकड लेता और गन्दा पानो न पीनेको कहता। धर्मका त्याग करनेकी बात कहनेवालोंको चाहिए कि वे जनताको धमके नामपर फैले हुए विकारोंको छोड़ना सिखाएं, धर्म छोडनेकी सीख न । १-१५ अगस्त १९४९ के प्रवचनसे २-'५ जून, १९४७ के प्रवचनसे Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनको परिया ७९ आप उस व्यापक धर्मको स्वीकार कर चलते हैं, जिसमे पूर्ण समता है । आपने एक भाषण में कहा "धर्मके लिए भी जातिवादका प्रश्न उठता है ? खेट || धम सबके लिए है । भगवान् महावीर के शासनकाल मे हरिकेशी जैसे चाण्डाल मुनि वने और अपनी साधनाके उसे देवताओंके पूज्य बने । जनों को इस जातिवाद के पचड़े में पडना उचित नहीं । मन्दिर और हरिजन प्रवेश के प्रश्नको लेकर आपने कहा"लोग कहते है हरिजन मन्दिर मे नहीं जानते। उन्हें धम करनेका अधिकार नहीं । भला यह क्यों ? धर्मका हार सबके लिए गुला है । वह प्रतिबन्ध फेसा ? धर्मके क्षेत्र जातिजन्य उता नहीं, वा कर्मजन्य उद्यता होती है। धर्म की जा जीवन उत्कृष्ट साधनामय हो । धार्मिक उधना परिजन या महाजन सपना ऐ । धर्म ह्मणोंका पनियोकाट शुद्रोका नहींशान्ति है । वर्ण और जानिमूलक भेद-भावको जी। भगपान महावीर द्वारा उद्घति के जीवन आदर्श आरो।" Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलमी इन वादों के जन्मका कारण क्या है ? यह भी सोचा होगा। आप भिन्न-भिन्न वाद नहीं चाहते, फिर भी उनके पदा होने के मावन जुटा रहे है, आश्चर्य ।। ये वाद दुखमय स्थितियोंसे पटा हुआ है । एक व्यक्ति महलमे बैठा मौज करे और एकको खाने तकको न मिले, ऐसी आर्थिक विपमता जनतासे सहन न हो सकी। अगर आज भी उच्चवर्ग सम्हल जाय, अपरिग्रहवतकी उपयोगिता समझ ले तो स्थिति बहुत कुछ सुधर सकती है।" आप धर्मकी व्याख्या बड़े सरल शब्दों करते है। धर्म की व्यारया र उसे अनपढ आदमी भी हृदयगमकर सकता हे____ "और धम क्या है ? सत्यकी खोज, आत्माकी जानकारी, अपने स्वरूपकी पहचान, यही तो धर्म है। सही अर्थमे यदि धर्म है तो वह यह नहीं सिखलाता कि मनुष्य-मनुष्यसे लड़े। धर्म नहीं सिखलाता कि पूजीके माप-दण्डसे मनुप्य छोटा या बडा है। धर्म नहीं सिखलाता कि कोई किसीका शोपण करे । धर्म यह भी नहीं कहता कि वाह्य आडम्बर अपनाकर मनुप्य अपनी चेतना खो बैठे। किसीके प्रति दुर्भावना रखना भी यदि धर्ममे शुमार हो तो वैसा धर्म किस कामका। वैसे धमसे कोसों दूर रखना बुद्धिमत्तापूर्ण होगा।" ___ आचार्यश्री किसी भी दशामे बाह्य आडम्बर और सादगी प्रदर्शनको पसन्द नहीं करते । आपने कार्यकर्ताओं के सम्मेलनमें उन्हें सम्बोधन करते हुए कहा "धार्मिक आयोजनोंमे आडम्बर और प्रदर्शनसे कार्यकर्ताओं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन की पटिया ८० को मावधान रहना चाहिए। आत्मोन्लाहन भौतिक साधनांका माय गीण । धर्मकी प्रतिष्टा धार्मिक प्रवृत्तियोंसे ही बद सकती। __आप धमम तान और श्रद्धाका पूर्ण नामसम्य चाहते हैं । आपकी दृष्टिग पुरुपोरे जातान है. वहा श्रद्धामी कमी है। महिलाएं श्रद्धाग्ने परिपूर्ण है. तो जानने पीछे हैं। दोनों और अपगपन। आपने महिलाओकी ममा भापण करत 10 फरा शानफे पिना मला अधूरी। मंकारी महिला अपनी मानिफ लिा सपी अध्यापिका मोती। उनके अलान का परिणाम मन्नतिको भी भागना पडता है।" मी गाव पलास निकाल कान्नि-याणी या पर सा परिभिर नी, उन पर भी नामरीटि र नीra Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी इन वादों के जन्मका कारण क्या है ? यह भी सोचा होगा। आप भिन्न-भिन्न वाद नहीं चाहते, फिर भी उनके पदा होने के सावन जुटा रहे है, आश्चर्य ॥ ये वाढ दुखमय स्थितियों से पता हुए है । एक व्यक्ति महलमे बैठा मौज करे और एकको खाने तकको न मिले, ऐसी आर्थिक विपमता जनतासे सहन न हो सकी। अगर आज भी उच्चवर्ग सम्हल जाय, अपरिग्रहवतकी उपयोगिता समझ ले तो स्थिति बहुत कुछ सुधर सकती है। _ आप धर्मकी व्याख्या बड़े सरल शब्दों करते है। धर्म की व्यारया " उसे अनपढ आदमी भी हृदयगमकर सकता है____.और धम क्या है ? सत्यकी खोज, आत्माकी जानकारी, अपने स्वरूपकी पहचान, यही तो धर्म है। सही अर्थमे यदि धर्म है तो वह यह नहीं सिखलाता कि मनुष्य-मनुष्यसे लडे । धर्म नहीं सिखलाता कि पूजीके माप-दण्डसे मनुष्य छोटा या बडा है। धर्म नहीं सिखलाता कि कोई किसीका शोपण करे । धर्म यह भी नहीं कहता कि वाह्य आडम्बर अपनाकर मनुप्य अपनी चेतना खो बैठे। किसीके प्रति दुर्भावना रखना भी यदि धर्ममे शुमार हो तो वैसा धर्म किस कामका। वैसे धमसे कोसों दूर रखना बुद्धिमत्तापूर्ण होगा।" ____ आचार्यश्री किसी भी दशामे बाह्य आडम्बर और सादगी प्रदर्शनको पसन्द नहीं करते । आपने कार्यकर्ताओ __ के सम्मेलनमे उन्हें सम्बोधन करते हुए कहा "धार्मिक आयोजनोंमे आडम्वर और प्रदर्शनसे कार्यकर्ताओं Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनकी पंखुडिया ८१ को सावधान रहना चाहिए । आत्मोत्साहमे भौतिक साधनों का महत्त्व गौण है । धर्मकी प्रतिष्ठा धार्मिक प्रवृत्तियोंसे ही बढ़ सकती है । आप धर्ममे ज्ञान और श्रद्धाका पूर्ण सामञ्जस्य चाहते है । आपकी दृष्टिमे पुरुषों से जहा ज्ञान है, वहा श्रद्धाकी कमी है। महिलाएं श्रद्धा से परिपूर्ण है तो ज्ञानमे पीछे है। दोनों ओर अधूरापन है । आपने महिलाओं की सभा मे भाषण करते हुए कहा " ज्ञान के बिना श्रद्धा अधूरी है । संस्कारी महिलाएं अपनी सन्ततिके लिए सच्ची अध्यापिकाएं होती है। उनके अज्ञानका परिणाम सन्ततिको भी भोगना पड़ता है ।" धर्मी अगाध श्रद्धा से निकली हुई क्रान्ति-वाणी व्यवहार पर कैसा प्रतिविम्व डालती है, उस पर भी हमे सरसरी दृष्टि डाल लेनी चाहिए । 'नवीनता और प्राचीनता,' 'युवक और वृद्ध आदि अवाञ्छनीय समस्याओंको सुलझानेमे आप बहुत सफल हुए है। इस बारेमे मैं आपकी वहुमूल्य वाणीको रखने में कृपण वनना पसन्द नहीं करूंगा। आपने बार-बार जनताको समझाया. - "अमुक वस्तु नयी है, इसलिए बुरी है एवं अमुक वस्तु पुरानी है, इसलिए अच्छी है, यह कोई उपयुक्त तर्क नहीं । केवल प्राचीनता या नवीनता ही अच्छेपनकी कसौटी नहीं कही जा सकती । सभी नई वस्तुएं नई होने के नाते ही अच्छी है या Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी खराब, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यही बात पुरानी वस्तुओ के लिए भी लागू होती है। अच्छापन या बुरापन नवीनता या प्राचीनताकी अपेक्षा नहीं रखता । बहुत सी प्राचीन वस्तुएं भी अच्छी हो सकती है और नई भी । यह तो वस्तुकं गुण पर निर्भर है । इसलिए नईका नाम सुनते ही उसका विरोध नही हो जाना चाहिए और उसी तरह पुरानी से भी नाक-भौं सिकोड़ना ठीक नहीं । वास्तवमे अच्छेपन और बुरेपनको परखने के उपरान्त ही कुछ निर्णय किया जा सकता है और यह उचित भी है । इसलिए नवयुवको की उचित मागों पर अभिभावकगण सहिष्णुतासे विचार करें । यदि युवकों के नये विचार बुजुर्गाको ठीक नहीं जचते, तो उचित यह है कि वे प्रेमसे समझाव और अपने विचार उनके दिमाग मे जचाने की कोशिश करें। उनकी कुछ भी नहीं सुनकर केवल अपनी राग अलापना कि 'क्या करे, युवक हमारी मानते नहीं है' स्वयं अपना महत्त्व गंवाना है । क्यो नहीं वे अपने आपको ऐसा बनाले कि युवको को उनकी न्यायसंगत बात माननी ही पड मगर यह तभी सम्भव है, जबकि परस्पर समन्वयात्मक रीति से बात की जाय । यदि वृद्ध और नौजवान दोनो इस तरहका व्यवहार काममे लायें तो यह आपसी संघर्ष वहुत शीघ्र दूर हो सकता है, जिसका दूर होना आवश्यक है | ८२ म युवक मानसको समझता है । वह क्रान्ति चाहता है । उसके लिए आन्दोलन करता है । आश्चर्य यह है कि वह अपना Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनकी पखुडिया सुधार भूल जाता है। यह क्या है ? क्रान्ति है या भ्रान्ति ? युवक स्वयं निर्णय करें। सुधारका नशा नहीं होना चाहिए। सुधारक नई-पुरानी से नहीं उलझता। वह संयमकी ओर बढ़ता चला जाता है, अकेला नहीं दूसरोको साथ लिये लिये।" ___ आप अपने विचारोमे स्पष्ट है। प्रवचनके समय आप विचारोंको सूत्ररूपमे रखते है। वे थोडेमे ठेठ जनताके दिलमे चुभ जाते है। उदाहरणके रूपमे देखिये - ___"विश्वशान्तिके लिए अणुवम आवश्यक है, ऐसी घोपणा करनेवालोंने यह नहीं सोचा-यदि वह उनके शत्रुके पास होता तो ।' _ "दूसरा आपको अपना शिरमौर माने-तब आप उसके सुख-दुखकी चिंता करें। यह भलाई नहीं, भलाईका चोगा है।" ___ "मैं किसी एककेलिए नहीं कहता, चाहे साम्यवादी, समाजवादी या दूसरा कोई भी हो, उन्हें समझ लेना चाहिए कि दसरे का इस शर्त पर समर्थन करना कि वे उनके पैरों तले चिपटे रहें, स्वतन्त्रताका समर्थन नहीं है।" "न्याय और दलबन्दी ये दो विरोधी दिशाएं है। एक व्यक्ति एक साथ दो दिशाओंमे चलना चाहे, इससे बड़ी भूल और क्या हो सकती है ?" __"स्वतन्त्र वह है, जो न्यायके पीछे चलता है। स्वतन्त्र वह है, जो अपने स्वाथके पीछे नहीं चलता । जिसे अपने स्वार्थ और गुटमे ही ईश्वर-दर्शन होता है, वह परतन्त्र है।" Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलमी " अध्यात्मप्रधान भारतीयों में अमानवीय बातें अधिक अखरने वाली है ।" "वह दिन आनेवाला है, जब कि पशुवलसे उकताई हुई दुनिया भारतीय जीवन से अहिंसा और शान्तिकी भीख मागेगी ।" "हिंसा और स्वार्थकी नींव पर खड़ा किया गया वाद भले ही आकर्षक लगे, अधिक टिक नहीं सकता ।" “प्रकृतिके साथ खिलवाड करनेवाले इस वैज्ञानिक युगके लिए शर्म की बात है कि वह रोटीकी समस्या को नहीं सुलझा सकता । सुखसे रोटी खा जीवन विताना, इसमे बुद्धिमान् मनुष्यकी सफलता नहीं है । उसका कार्य है आत्मशक्तिका विकास करना, आत्मशोधनोन्मुख ज्ञान-विज्ञानकी परम्पराको आगे बढाना ।" आपके शब्दों मे हमे नास्तिकताकी वडी युगानुकूल व्याख्या मिलती है । "आज की दुनियाकी दृष्टि धन पर ही टिकी हुई है । धनके लिए ही जीवन है, लोग यों मान बैठे है । यह दृष्टिदोष है - नास्तिकता है । जो वस्तु जैसी नही, उसको वैसी मान लेना ज्यों मिथ्यात्व है, त्यों साधनको साध्य मान लेना क्या नास्तिकता नहीं है ? धन जीवनके साधनोंमेंसे एक है, साध्य तो है ही नहीं। इस नास्तिकताका परिणाम - पहली मंजिलमे शोपण आखिरी मंजिल युद्ध है ।" में आप सामयिक पदार्थाभावका विश्लेषण करते हुए वडा ८४ :-- Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनकी पडिया ८५ मननीय दृष्टिकोण सामने रखते है । यह दूसरी बात है कि भूतवादके राग-रंगमें फंसी दुनिया उसे न समझ पाये अथवा समझकर भी न अपना सके, किन्तु वस्तु स्थिति उसके साथ है " लोग कहते है - जरूरतकी चीजें कम हैं । रोटी नहीं मिलती कपड़ा नहीं मिलता । यह नहीं मिलता, वह नहीं मिलता आदि आदि । मेरा खयाल कुछ और है। मैं मानता हू कि जरूरतकी चीजें कम नहीं, जरूरतें बहुत बढ़ चली, संघर्ष यह है । इसमे से अशान्तिकी चिनगारिया निकलती है।" बाहरी नियन्त्रणमें आपकी विशेष आस्था नहीं है । नियम आत्मामे बैठकर जो असर करता है, उसका शताश भी वह बाहर रहकर नहीं कर सकता । इसको बार-बार बड़ी बारीकी के साथ समझाते है "सफलता की मूल कुजी जनताकी भावना है। उसका विकास संयममूलक प्रवृत्तियों के अभ्यास से ही हो सकता है । नैतिक उत्थान व्यक्ति तक ही सीमित रहा तो उसकी गति मन्द होगी । इसलिए इस दिशा में सामूहिक प्रयास आवश्यक है । यह प्रश्न हो सकता है, अक्सर होता ही है । इसका उत्तर सीधा है। मैं न तो राजनैतिक नेता हूं, न मेरे पास कानून और डण्डेका बल है । मेरे पास आत्मानुशासन है । अगर आपको जचे, तो आप उसे लें । आप जन तन्त्रको सफल बनाना चाहते हैं तो आत्मानुशासन सीखें। मेरी भाषामे स्वतन्त्र वही है, जो अधिकसे अधिक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री तुलमी नियमानुवर्ती रहे। औराके द्वारा नहीं, अपने आप अनुशासन मे चलना सीखे। चलानेसे पशु भी चलता है। किन्तु मनुष्य पशु नहीं है। ____ आजका संसार राजनीतिमय बन रहा है । जहाँ कही सुनिये, उसीकी चर्चा है, मनुष्यको बहिर्मुखी दृष्टिने उसे सत्ता और अधिकारोंका लालची बना दिया। इसलिए वह और सब बातोंको भलाकर मारा-मारा उसीके पीछे फिर रहा है। इसीसे चारो ओर अशान्तिको ज्वाला धधक रही है। आप सुम्बके मार्गमे राजनीति के एकाधिकारको वाधक मानते है :__“राजनीति लोगोंके जरूरतकी वस्तु होती होगी किन्तु सबका हल उसीमे ढूंढना भयंकर भूल है। आजकी राजनीति सत्ता और अधिकारोंको हथियानेकी नीति वन रही है। इसीलिए उस पर हिंसा हावी हो रही है। इससे संसार सुखी नहीं होगा । संसार सुखी तब होगा, जब ऐसी राजनीति घटेगी, प्रेम, समता और भाईचारा बढ़ेगा।" ___ हम धर्मसे चले और व्यवहारके मार्गमे घूम फिरकर वापिस मूलकी जगह लौट आये । यहींपर हमे आचार्यश्रीकी आध्यात्मिक जागृतिका आभास होता है। इससे वह भ्रान्त धारणा भी निर्मल होगी, जैसा कि लोग समझते है-धर्माचार्य उन्हे वर्तमान जीवन के कामकी बातें नहीं बताते।। अवश्य ही निवृत्ति प्रवृत्तिसे आगे है। किन्तु इनका आपसमे सर्वथा विरोध है, यह बात नहीं। प्रवृत्ति निवृत्तिके सहारे सत् Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ واک प्रवचनकी पंखुडिया बनती है। धर्माचार्य प्रवृत्तिका निर्देशन न करें, इसका अर्थ यह नहीं कि सत्प्रवृत्तिका मार्ग दिखाना उनके लिए आवश्यक नहीं है। है। और फिर है । जनता उनसे आशा रखती है और मार्ग-दर्शन चाहती है आचार्यश्रीने इसी दिशामे संसारको ऋणी बनाया है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविकी तूलिकाके कुछ चित्र प्रश्न टेढा है। कवि किस तूलिकासे काम ले १ मस्तिष्ककी तूलिकाके पास आकार है। हृदयकी तूलिकाके पास चैतन्य है। हाथकी तूलिका रंग भरना जानतो है । तीनों भिन्न है और तीनो सापेक्ष । कवि सयोना होता है, समझौतावादी होता है। तीनों को एक साथ राजी बनाये चलता है। एक स्त्रीको निभानेमे कठिनाई होती है, वहां तीन-तीन रमणियोंको निभाते चलना कितना कठिन है, इसे सहृदय ही समझ सकता है। आशा है, काव्यमर्मज्ञ इसमे साथ देगे। मैं अधिक लम्बा नहीं जाऊंगा। मुझे पाठकोंकी जिज्ञासाका खयाल है। मेवाडके लोग श्री कालुगणीको अपने देश पधारनेकी प्रार्थना करने आये है। उनके हृदयमे बड़ी तड़फ है। उनकी अन्तर Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविकी तूलिका के कुछ चित्र ८९ भावनाका मेवाडकी मेदिनीमे आरोप कर आपने बड़ा सुन्दर चित्रण किया है ― * " पतित उधार पधारिये, सगे सबल लहि थाट । मेदपाट नी मेदिनी, जोवे खडि खडि बाट || सघन शिलोच्चयनै मिषे, ऊचा करि करि हाथ । चचल दल शिखरी मिषे, दे जगनाथ || नयणा विरह तुमार, भरें निभरणा जास । भ्रमराराव भ्रमे 'करी, लह लाबा नि श्वास || काकिल- कूजित व्याज थी, व्रतिराज उडावं काग | अरघट खट खटका करी, दिल खटक दिखावै जाग || अबला अचला रही, किम पहुचे मम सन्देश । इम झुर झुर मनु झूरणा, सकोच्यो तन सुविशेष ॥ " इसमे केवल कवि हृदयका सारस्य ही उद्व ेलित नहीं हुआ है किन्तु इसे पढ़ते-पढ़ते मेवाड़ के हरे-भरे जंगल, गगनचुम्बी पर्वतमाला, निर्भर, भँवरे, कोयल, घडियाल और स्तोकभूभागका साक्षात् हो जाता है। मेवाडकी ऊंची भूमिमे खड़ी रहने का, गिरिशृङ्खलामे हाथ ऊंचा करने का, वृक्षोंके पवन -चालित दलों आह्वान करने का, मधुकर के गुञ्जारवमे दीर्घोष्ण निःश्वास का, कोकिल - कुजनमे काक उड़ानेका आरोपण करना आपकी कविप्रतिभाकी मौलिक सूझ है । रहॅटकी घड़ियोंमे दिलकी टीसके * कालु यशोविलास झाला Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० आचाय श्री तुलमी साथ-साथ रात्रि-जागरणकी कल्पनासे वेदनामे मार्मिकता आ जाता है। उसका चरम रूप अन्तजगतमे न रह सकनेके कारण बहिर्जगत्मे आ साकार बन जाता है। उसे कवि-कल्पना सुनाने की अपेक्षा दिखानेमे अधिक सजीव हुई है। अन्तर-व्यथासे पीडित मेवाडकी मेदिनीका कृश शरीर वहाकी भौगोलिक स्थिति का सजीव चित्र है। ___ मघवा गणीके स्वर्गवासके समय कालुगणीके मनोभावोका आकलन करते हुए आपने गुरु-शिष्यके मधुर सम्बन्ध एवं विरह. वेदनाका जो सजीव वर्णन किया है, वह कविकी लेखनीका अद्भुत चमत्कार है: * "नेहड़ला री क्यारी म्हारी, मूकी निराधार । इसडी का कीधी म्हारा, हिवडे रा हार ।। चितड़ो लाग्यो रे, मनडो लाग्यो रे । खिण खिण समरू, गुरु थारो उपगार रे ।। किम बिसराये म्हारा, जीवन • आधार ॥ विमल विचार चारू, अव्वल आचार रे। कमल ज्यू अमल, हृदय अविकार ।। आज सुदि कदि नही, लोपी तुज कार रे । बह्यो बलि बलि तुम, मीट विचार ।। तो रे क्या पधारया, मोये मूको इह वार रे । स्व स्वामी रु शिष्य-गुरु, सम्बन्ध विसार ।। * काल यशोविलास । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविकी तूलिका के कुछ चित्र पिण साची जन श्रुति, जगत् पार || पुकार रे । एक पक्खी प्रीत नही, पडे पिठ पिऊ करत, पपयो पिण नही मुदिर नं, फिकर लिगार ॥" जैन-कथा-साहित्यमें एक प्रसंग आता है । गजसुकुमार, जो श्रीकृष्णके छोटे भाई होते थे, भगवान् अरिष्टनेमिके पास दीक्षित वन उसी रातको ध्यान करने के लिए श्मशान चले जाते है । वहाँ उनका श्वसुर सोमिल आता है । उन्हें साधु-मुद्रामे देख उसके क्रोधका पार नहीं रहता । वह जलते अंगारे ला मुनिके शिर पर रख देता है । मुनिका शिर खिचडीकी भाति कलकला उठता है । उस दशामे वे अध्यात्मकी उच्च भूमिकामे पहुंच 'चेतन-तन - भिन्नता' तथा 'सम' शत्रौ च मित्रे च' की जिस भावनामे आरूढ़ होते हैं, उसका साकार रूप आपकी एक कृतिमे मिलता है । उसे देखतेदेखते द्रष्टा स्वयं आत्म-विभोर बन जाता है । अध्यात्मकी उत्ताल उर्मियाँ उसे तन्मय किये देती हैं : "जब घरे शीश पर खीरे, घ्यावे यो घृति-धर घीरे । है कौन वरिष्ट भूवन में, जो मुझको आकर पीरे ॥ मै अपनो रूप पिछानू, हो उदय ज्ञानमय भानू । * गजसुकुमार मझार रे कदि 1 ५१ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री तुलसी वास्तवमे वस्तु पराई, क्यो अपनी करके मान ।। मैने जो सकट पाये, सब मात्र इन्ही के कारण । अब तोडू सव जजीरे, घ्यावे यो धृति धर घारे ।। कवके ये बन्धन मेरे, अबलो नहीं गये विखेरे। जबसे मैने अपनाये तब से डाले दढ डेरे ।। सम्बन्ध कहा मेरे से, कहा भैस गाय के लागे । है निज गुण असली हीरे ध्यावे यो धृति धर धोरे ।। मै चेतन चिन्मय चारू, ये जडता के अधिकारू । मै अक्षय अज अविनाशी, ये गलन-मिनल विशरारू । क्यो प्रेम इन्हीसे ठायो, दुर्गतिकी दलना पायो । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविकी तूलिकाके कुछ चित्र अब भी हो रहू प्रतीरे, ध्यावे यो धृति धर धीरे ।। यह मिल्या सखा हितकारी, उत्तारूँ अघ की भारी । नहि द्वेष-भाव दिल लाऊँ, कैवल्य पलक में पाऊँ । सच्चिदानन्द बन जाऊं, लोकाग्र स्थान पहुँचाऊँ।। प्रक्षय हो भय प्राचीरे, ध्यावे यो धृति घर घोरे ॥ नहिं मरू न कवही जन्मू, कहिं परू न जग झझट म । फिर जरूँ न आग लपटमे, झर पडू न प्रलय-झपट मे ।। दुनिया के दारुण दु खमें, धधकत शोकानल धक में । नहिं धृकु सहाय समीरे, ध्यावे यो वृत्ति घर धीरे ।। नहिं बहूँ सलिल - स्रोतो मे, नहिं रहूँ भग्न • पोतो में । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी नहिं जहूँ रूप में म्हारो, नहिं लहू' कष्ट मौतो में । नहिं छिदू घार तलवारा, नहिं भिदू भल्ल मलकारा । चहे आये शत्रु सभोरे, ध्यावे यो घृति घर धीरे।" इसमे आत्म-स्वरूप, मोक्ष, संसार-भ्रमण और जड तत्त्वकी सहज-सरल व्याख्या मिलती है। वह टेट दिलके अन्तरतलमे पंठ जाती है। दार्शनिककी नीरस भाषाको कवि किस प्रकार रसपरिपूर्ण बना देता है, उसका यह एक अनुपम उदाहरण है। आप केवल अध्यात्मवादी कवि हो नहीं है, दुनियाकी समस्याओं पर भी आपकी लेखनी अविरल गतिसे चलती है। वर्तमानकी कठिनाइयोंको हल करनेमे आपमे दार्शनिक चिन्तन, साधुका आचरण और कविकी कल्पना-इस त्रिवेणीका अपूर्व संगम होता है। "मानवता की हत्या करके, क्या होगा उच्चासन वरके । आखिर तो चलना है मरके, ए जननी के लाले तुच्छ स्वार्थ तजो। आजादी के रखवाले तुच्छ स्वाथ तजो ।। अपनी मै मे मतवाले तुच्छ स्वार्थ तजो ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविकी तूलिकाके कुछ चित्र भ्रष्टाचार घुस घर - घर में, चोर - बजारी चले सदर मे । पाप - भीति नही नर के उर में, कलियुग के उजियाले तुच्च स्वार्थ तजो॥" "हल है हलकापन जीवन का, है एकमात्र अनुभव मनका । माडम्बर और दिखाव तजो, अब तो कुछ सादापन लामो ॥ ए दुनियावालो सुनो जरा, दिल की दुविधा को दफनाओ। जीवन में सत्य अहिंसा को, ज्यादा से ज्यादा अपनाओ ।। यह सत्य - अहिंसा से सम्भव, है सत्य अहिंसा भी तद्भव | सम्बन्ध परस्पर है इनका, अनुरूप पात्र तुम बन जाओ ।। ए दुनिया वालो.. ........ धार्मिक जगत्मे आपने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा जो क्रान्ति-घोष किया है, वह धमकी रीढको स्वस्थ बनानेके साथ उसके नाम पर आडम्बर रचनेवाले रूढिवादी धार्मिकको चुनौती Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ आचार्य श्री तुलसी देता है । उसकी मस्तीने बाबा डाल और सुख-सपनीको चूर-चूर कर आगे बढता हे 1 धर्म अमर है । धर्म सदा विजयी है । धर्ममे श्रद्धा और ज्ञान दोनों अपेक्षित है । इन भावनाओं का आपने 'अमर रहेगा वर्म हमारा', 'धर्मकी जय हो जय', 'सुज्ञानी दृढधर्मी बन जाओ' शीर्षक कविताओं मे दिलको हिलानेवाला विवेचन किया है । धर्म पर आक्षेप करनेवालोंको सक्रिय उत्तर देने के लिए आप वार्मिंकोको जो प्रेरणा देते है, उसमे आपकी सत्य-निष्ठा झलक पडती है - • "धार्मिक जन कायर वनजावे, यह आक्षेप हृदय अकुलावे | मुख- भजन हो तुरत इसीका, ऐसी क्रान्ति उठाओ । वनजाश्रो || दुनिया को, राह दिखाओ । मुज्ञानी दृढ धार्मिक बनजाओ । मानवता से मनज सुज्ञानी दृढधर्मी भूली भटकी इस सच्ची कहाए, मानवता धार्मिकता चाहे | बिन धार्मिकता जो मानवता, दानवता दरशाओ । सुज्ञानी दृढ धार्मिक बन जाओ || Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविकी तूलिकाके कुछ चित्र छिन - छिन में अपने जीवनमे, मति क्षति लामो धार्मिकपन में । धर्मस्थान ही धार्मिकता हित, मति इम मन बहलाओ। सुज्ञानी दृढ धार्मिक बनजाओ ।। व्यक्ति-जाति-हित देश-राष्ट्रहित, धार्मिकतामें निहित सकल हित । अहित किते निज कर्म-योग लख, धर्म - दोष मत गाओ। सुज्ञानी दृढ धार्मिक वनजाम्रो ।।" इस प्रकार आपने अपने कवि-जीवनमे प्रत्येक क्षेत्रका स्पर्श किया है। जनसाधारणसे लेकर प्रतिभा-प्रभु व्यक्ति तकको नवचैतन्यपूर्ण सामग्री दी है। जिससे कंठके स्वर, मस्तिष्कके सुकुमार तन्तु, हृदयके प्रफुल्ल सरोज और आत्माकी अनुभूतिमे सहज चैतन्य भर आता है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारककी वीणाका झङ्कार विचार सन्तोंका साम्राज्य है । सत्ताका साम्राज्य जमता है, उखड़ जाता है । सन्त- विचार सिर्फ माथेकी उपज नहीं होता । वह द्विजन्मा होता है, मस्तिष्कसे हृदय मे उतरता है, वहा पकनेपर फिर बाहर आता है । उसका शासन इतना मजबूत होता है कि वह मिटाये नहीं मिटता । इसीलिए तो सन्तवाणी अमरवाणी कहलाती है । मैंने उसे वीणाका मंकार कहना इसलिए पसंद किया है कि उससे हृदयका तार मंकृत हो उठता है। माथेकी वाणी मे जहा सौ तर्क-वितर्क उठते है, वहा हृदयकी वाणी से हृदय जुड जाता है । देखिए जातिवादका कितना गहरा सम्बन्ध है । आचार्यश्री मेरी दृष्टिमे मस्तिष्कवादी विचारक नहीं हैं 1 इसलिए मैं पाठकोंसे यह अनुरोध करना नहीं चाहूंगा कि वे Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारककी वीणाका झकार आपके विचारोंकी गहराईको तोलें। मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि आचार्यश्री के हृदयको समझनेकी चेष्टा करें। आपने अध्यात्मवादकी उपयोगिताको बड़े मार्मिक शब्दों में समझाया है : "अपने लिए अपना नियन्त्रण, यही है थोड़ेमे अध्यात्मवाद । दूसरोंके लिए अपना नियन्त्रण करनेवाला-दूसरों पर नियन्त्रण करनेवाला भी दूसरोंको धोखा दे सकता है। किन्तु अपने लिए अपना नियन्त्रण करनेवाला वैसा नहीं कर सकता।" ____ अध्यात्मवादके बारेमे बड़े बड़े दिमागी लोग भ्रान्त रहते है। वे उसे दूसरी दुनियाकी वस्तु मानते है । वस्तुस्थिति वैसी नहीं है। अध्यात्मवाद आत्मवादीके लिए जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक एक संसारी प्राणीके लिए है। कारण कि उसके बिना मनुष्यका व्यवहार भी प्रामाणिकतासे चल नहीं सकता। ___ आपके विचारानुसार भौतिकवाद इसी युगकी देन नहीं है और न उसके बिना दुनियाका काम भी चल सकता। किन्तु उसीका प्राधान्य रहे, यह ठीक नहीं। __ भलाई और बुराई दोनों साथ-साथ चलती है। यह जगत् न तो कभी बिल्कुल भला बना और न कभी बिल्कुल बुरा। सिर्फ मात्राका तारतम्य होता है। हमारा प्रयत्न ऐसा हो कि भलाई की मात्रा बढ़े। हम यह सोच बैठ जायें कि बुराई आज तक नहीं मिटी तो अब कैसे मिटेगी, यह निराशा है। इसका परिणाम बुराई को सहयोग देना है। हमे पवित्र उद्देश्यके साथ बुराईके विरुद्ध संघर्प करते रहना चाहिए। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राचार्य श्री तुलसी अध्यात्मवाद विवादसे परे है । इसकी चर्चा करते हुए आपने लिखा है : "अध्यात्मशब्द मात्रका वाद है, वास्तविक नहीं। वास्तवमे तो वह आत्माकी गति है। बलात दूसरों पर अपनी संस्कृति या वाद लादनेकी चेष्टाका दूसरा रूप है संघर्ष में नहीं चाहता कि ऐसा हो। फिर भी में प्रत्येक विचारक व्यक्तिसे यह अनुगेव करूंगा कि वे अध्यात्मवादको अपनाएं। यह किसी देश या जातिका वाद नहीं, आत्माका वाद है। जिसके पास आत्मा है, चैतन्य है, हेयोपादयकी शक्ति है, उसका वाद है, इसलिए उसकी जागृति करना अपने आपको जगाना है। " आत्म-जागरण की इस विचारधारामे स्व-पर, जात-पात, देशविदेशसे ऊपर रहनेवाले तत्त्वकी सृष्टि होती है। वह अभेद सत्तामें सवको समाहित किये चलता है। उसमे दूध नहीं होता। विना उसके संघर्पकी बात ही क्या। भेदकी कल्पना व्यवहारके लिए है । आगे जाकर वह वास्तविक वनजाती है। उससे अहंभाव और जय-पराजयकी कल्पना पैदा होती है। उससे संघर्पका वीज उगता है। फिर युद्ध आदिकी परंपराएं चलती है । इसलिए विश्वशन्तिकी वातको सोचनेवालोको सबसे पहले आत्म-जागरणकी वात सोचनी चाहिए। आत्म-जागरणमे श्रद्धा पैदा कर अपने आपको सुधारना चाहिए। धार्मिकका यही कर्तव्य है। इस विषयको आपकी लेखनीने बडी कुशाग्रतासे छुआ है। "मनुष्य अपना सुधार नहीं चाहता। समाज का सुधार Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारककी वीणाका झकार १०१ चहता है । स्वयंको सुधारे बिना समाजका सुधार नहीं होसकता। अपनी बुराईका प्रतिकार किये बिना समाजके सुधारकी बात सोचना धर्मकी मौलिकताको न समझनेका परिणाम है। धम व्यक्तिनिष्ठ होता है। वह कहता है-प्रत्येकका सुधार ही समाज का सुधार है।" ___ आप पर-सुधारसे पहले आत्म-सुधारको आवश्यक समझते हैं। कोरी सुधारकी बातोंसे कुछ वनता नहीं। लोग धर्मके प्रति गाढ श्रद्धा दिखाते है। उसके स्थायित्व की चिन्ता करते है। किन्तु विवेक, मर्यादाको नहीं निभाते । आप उन्हें कडी चेतावनी देते है :____ "लोगोंको इस बातकी चिन्ता है कि कहीं साम्यवाद आगया तो हमारे धर्म-कम मिट जायेंगे। मैं पूछना चाहता हूं-यह हृदय की बात है या बनावटी १ यदि सचमुच चिन्ता है तो संग्रह क्यों ? संग्रहका अर्थ है धर्मका नाश, पापका पोपण | दूसरेका पैसा चुराये बिना, अधिकार लूटे विना पूजीका केन्द्रीकरण हो नहीं सकता ?" ___ राजनैतिक सत्ताका राष्ट्रकी भौतिक समस्याओसे सम्बन्ध है। इसलिए धार्मिकों को डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं। किसी पार्टीका शासन हो, धर्मका फ्या विगाड सकता है। विशुद्ध धर्म न उसके हितोंमे वाधक बनता और न उसको जनताके धार्मिक भावोंमे वाधक बनना चाहिए। धर्मका कहीं भी कुछ मात्राम विरोध हुआ है, वह विशुद्ध धर्मका नहीं, धर्मके वेषमे पनपनेवाला Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य श्री तुलसी राजनीतिका हुआ है । आपने इसे वडी दृढता के साथ व्यक्त किया है : “धर्म अपनी मर्यादासे दूर हटकर राज्यकी सत्तामे घुलमिल कर विपसे भी अधिक घातक बन जाता है । यह वाणी धमद्रोही व्यक्तियों की है, यह नहीं माना जा सकता, धर्मके महान् प्रवर्तक भगवान् महावीर की वाणीमे भी यही है । धन और राज्य की सत्तामे विलीन धर्मको विप कहाजाये, इसमे कोई अतिरेक नहीं है । " धर्मके प्रति धर्माचार्यकी ऐसी कटु आलोचना अध्यात्मके उज्ज्वल पहलू की ओर संकेत करती है । प्रत्येक व्यक्तिको समझना चाहिए कि धर्म में श्रद्धाका स्थान है, अन्धश्रद्धा का नहीं । आपका किसी वस्तुके प्रति आग्रह नहीं है । आपकी दृष्टि उसके गुणावगुणकी परखकी ओर दौड़ती है । आपकी लेखनी न्यायकी उपेक्षा और अन्याय से समझौता नहीं कर सकती । पत्रकार सम्मेलनमे आपने बताया : - १०२ “आर्थिक वैषम्यको लेकर जो स्थिति बिगड़ रही है, उसे भी हम दृष्टिसे ओझल नहीं कर सकते । मेरो दृष्टिमे साम्यवाद इसीका परिणाम है । ...... लोग मुझसे पूछते है - क्या भारतमे साम्यवाद आयेगा ? मैं इसके लिए क्या कहूं ? यही कहना पडता हैआप बुलायेंगे तो आयेगा, नहीं तो नहीं 1 जिनके हृदय मे धर्मकी तड़फ है, उसकी रक्षाकी चिन्ता है, वे अर्थ-संग्रह करना छोड़ दें । उनकी भावना अपने आप सफल हो जायेगी । दान करने के लिए Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारककी वीणाका झकार भी आप संग्रहकी भावना मत रखिए। दुनियां आपके दानकी भूखी नहीं है । उसे आपके संग्रहपर रोष है। यदि पूँजीपति इसे नहीं समझ पाये तो चालू वेग न अणुबमसे रुकेगा, न अस्त्रशखोंके वितरण से । ........."आप यह मत समझिए कि मैं साम्यवादका समर्थक हूं। मुझे साम्यवाद त्रुटिपूर्ण दिखाई देता है, पूँजीवाद तो है ही।...."राष्ट्रीय पूजी-संग्रह भी उतना ही बुरा है, जितना व्यक्तिगत । जबतक इच्छाओंको सीमित करनेकी वातका यथेष्ट प्रचार नहीं होगा, तबतक आवश्यकता-पूर्तिके साधनोंका समाजीकरण केवल बाह्य उपचार होगा। व्यक्तिकी स्थिति राष्ट्र लेलेगा। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रका शोषक बन जायगा। . ... ........ आर्थिक समानताका सूत्र पूंजीपतियोंको ही अप्रिय लगेगा, किन्तु इच्छा-नियन्त्रणका सूत्र पूंजीपति और गरीब दोनोंको अप्रिय लगेगा। लगे, यह तो रोगका उपचार है। इसमें प्रिय-अप्रिय लगनेका प्रश्न ही नहीं होता।" ऊपरकी पंक्तियां यह साफ बताती है कि लोग कठिनाइयाँ चाहते नहीं, किन्तु अज्ञानवश उन्हें निमन्त्रण देते है। इसीलिए पूर्व-ऋषियोने बताया है-“अज्ञान ही सबसे बड़ा दुःख है।" यदि मनुष्य वस्तुस्थितिको जानले, श्रद्धापूर्वक मानले तो फिर वह अपने हाथों अपना मार्ग कण्टकाकीर्ण नहीं बना सकता। लोग शान्ति के पिपासु हैं, फिर भी शान्ति मिल नहीं रही है। आपकी भाषा मे उसका सरल मार्ग मिलता है : "अपनी शान्तिके लिए दूसरेकी शान्तिका अपहरण मत करो Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्राचार्य श्री तुलगी राजनीतिका हुआ है। आपने इसे बडी दृढताके साथ व्यक्त किया है :__“धर्म अपनी मर्यादासे दूर हटकर राज्यकी सत्तामे घुलमिल कर विपसे भी अधिक घातक बन जाता है। यह वाणी धमद्रोही व्यक्तियों की है, यह नहीं माना जा सकता, धर्मके महान् प्रवर्तक भगवान महावीर की वाणीमे भी यही है। धन और राज्यकी सत्तामे विलीन धर्मको विप कहाजाये, इसमे कोई अतिरेक नहीं है।” धर्मके प्रति धर्माचार्यकी ऐसी कटु आलोचना अध्यात्मके उज्ज्वल पहलू की ओर संकेत करती है। प्रत्येक व्यक्तिको समझना चाहिए कि धममें श्रद्धाका स्थान है, अन्धश्रद्धाका नहीं। आपका किसी वस्तुके प्रति आग्रह नहीं है। आपकी दृष्टि उसके गुणावगणकी परखकी ओर दौडती है। आपकी लेखनी न्यायकी उपेक्षा और अन्यायसे समझौता नहीं कर सकती। पत्रकार सम्मेलनमे आपने बताया :___ “आर्थिक वैषम्यको लेकर जो स्थिति बिगड़ रही है, उसे भी हम दृष्टिसे ओझल नहीं कर सकते । मेरो दृष्टिमे साम्यवाद इसीका परिणाम है । ..... लोग मुझसे पूछते है-क्या भारतमे साम्यवाद आयेगा ? मैं इसके लिए क्या कहूं ? यही कहना पड़ता हैआप वलायेंगे तो आयेगा, नहीं तो नहीं। जिनके हृदयमे धर्मकी तडफ है, उसकी रक्षाकी चिन्ता है, वे अर्थ-संग्रह करना छोड़ दें। उनकी भावना अपने आप सफल हो जायेगी। दान करनेके लिए Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारककी वीणाका झकार भी आप संग्रहकी भावना मत रखिए। दुनियां आपके दानकी भूखी नहीं है । उसे आपके संग्रहपर रोष है। यदि पूँजीपति इसे नहीं समझ पाये तो चालू वेग न अणुबमसे रुकेगा, न अस्त्रशत्रोंके वितरण से।.............''आप यह मत समझिए कि मैं साम्यवादका समर्थक हूं। मुझे साम्यवाद त्रुटिपूर्ण दिखाई देता है, पूँजीवाद तो है ही। ........"राष्ट्रीय पूजी-संग्रह भी उतना ही बुरा है, जितना व्यक्तिगत । जबतक इच्छाओंको सीमित करनेकी बातका यथेष्ट प्रचार नहीं होगा, तबतक आवश्यकता-पूर्तिके साधनोंका समाजीकरण केवल बाह्य उपचार होगा। व्यक्तिकी स्थिति राष्ट्र लेलेगा। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रका शोषक वन जायगा। . ... ........ आर्थिक समानताका सूत्र पूँजीपतियोंको ही अप्रिय लगेगा, किन्तु इच्छा-नियन्त्रणका सूत्र पूंजीपति और गरीब दोनोंको अप्रिय लगेगा। लगे, यह तो रोगका उपचार है। इसमे प्रिय-अप्रिय लगनेका प्रश्न ही नहीं होता।" ___ऊपरकी पंक्तियां यह साफ बताती हैं कि लोग कठिनाइयां चाहते नहीं, किन्तु अज्ञानवश उन्हें निमन्त्रण देते हैं। इसीलिए पूर्व-ऋपियोने बताया है-“अज्ञान ही सबसे बड़ा दुःख है।" यदि मनुष्य वस्तस्थितिको जानले, श्रद्धापूर्वक मानले तो फिर वह अपने हाथों अपना मार्ग कण्टकाकीर्ण नहीं बना सकता। लोग शान्ति के पिपासु हैं, फिर भी शान्ति मिल नहीं रही है। आपकी भाषा मे उसका सरल मार्ग मिलता है : "अपनी शान्तिके लिए दूसरेकी शान्तिका अपहरण मत करो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आचार्य श्री तुलमी -यही सच्ची शान्ति है । क्षणिक शान्ति के लिए स्थायी शान्तिको खतरे मे मत डालो - इसका नाम है सच्ची शान्ति | शान्तिके लिए अशान्तिको उत्पन्न मत करो - यह है सच्ची शान्ति । शान्तिके इच्छक हो तो शान्तिके पथपर चलो। यही सच्ची शान्तिका सही रास्ता है ।" आपकी विचारधारामे असीम धार्मिक औदाय्य है । वर्तमान स्थितिको समन्वित करने की क्षमता है। लोक- स्थिति को समझे बिना कोई व्यक्ति व्यवहारदक्ष नहीं बन सकता । एक कविने कहा है - "काव्य करोतु परिजल्पतु संस्कृत वा, सर्वा कला समधिगच्छतु वाच्यमाना । लोकस्थिति यदि न वेत्ति यथानुरूप, सत्रस्य मूर्खनिकरस्य स चक्रवर्ती आपने अनेकान्त दृष्टिको केवल सिद्धान्तरूपसे ही स्वीकार नहीं किया है, आप अनेकों प्रयोग और शिक्षाएँ उसके सहारे फलित करते है । आजके राजनीतिक या वैज्ञानिक जो धर्म पर आस्था नहीं रखते, लोगोंकी दृष्टिमे वर्तमान अनैतिकता के लिए उत्तरदायी है । किन्तु आप इस कसौटीको एकान्ततः सही नहीं मानते । 'लन्दन जैन - कॉन्फन्सके लिए दिये गये सन्देशमे आपने कहा है —— " “आजके राजनीतिकोंने धर्मको अफीम बताकर जनताके रुखमे परिवर्तन ला दिया । अतएव वर्तमान युग धर्मका उतना Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारककी वीणाका झकार १०५ प्यासा नहीं रहा, जितना पहले था। इससे सुधार भी हुआ है, भूल भी। भोगमे त्याग और परिग्रहमें धर्मकी भावना जमी हुई थी, धर्मके नामपर हिंसा होती थी, उससे जनताकी आस्था हटी, यह श्लाघनीय सुधार है। मानव-शरीरमे दानवकी आत्मा उतनी खतरनाक नहीं होती, जितनी खतरनाक धर्मकी पोशाकमे अधर्म की पूजा होती है। इसके साथ-साथ भौतिक सुख-सुविधाओंको ही जीवनका चरम लक्ष्य मानकर आत्मा और धर्मकी वास्तविकताको भुला बैठे, यह वज्र भूल है।” __ युग एक प्रवाह होता है। उसमें वहनेवालोंकी कमी नहीं होती। आचार्य श्री हमे बहुत बार कहा करते है : "अनुस्रोतगामी होना सहज है। अपनी सत्य श्रद्धाको लिये हुए प्रतिस्रोतमे चले, कष्टोंको सहे, विचलित न हो, उसकी बलिहारी है।" आप अपने विचारोंके पक्के और अप्रकम्प हैं । जन्म-जयन्ती मनाने पर आपका विश्वास नहीं है। लोगोंने आपकी जन्म जयन्ती मनानेके लिए बहुत प्रार्थनाएं की, किन्तु आपने उसे स्वीकार नहीं किया। आप कहते हैं :___“जयन्ती किसी विशेष कार्य की हो, अथवा निर्वाण की हो, वह उचित है। निर्वाणके दिन समूचे जीवनका लेखाजोखा सामने आ जाता है। उसे आदमी देख सकता है, सीख सफता है।" Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आचार्य श्री तुलमी जो लोग जन्म-जयन्ती मनाते है, उनसे आपका कोई विरोध नहीं है। आप कहते है : "मेरी धारणा ऐसी है । जो मनाते हैं, उनकी अपनी इच्छा ।" आपने धार्मिक जगत्की, जेनोंकी तथा युगकी विभिन्न समस्याओके विभिन्न पहलुओं पर चेतक प्रकाश डाला है। मैं गागर मे सागर भरनेकी कला नहीं जानता। मैं क्यों न आशा करूं कि मेरे पाठकोंसे आपकी विचार-सामग्रीके स्वतन्त्र अध्ययनकी आकाक्षा होगी। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशल ग्रन्थकार प्रत्येक महापुरुपका सर्वाग्रिम या सर्वान्तिम लक्ष्य होता है ज्ञान-विकास। वह आत्माकी अन्तर-प्रेरणासे मिलकर चलता है, आचरणको साथ लिए चलता है, इसलिए उसका दूसरा नाम होता है आत्म-विकास। विकसित व्यक्तियोंको अरिकासकी स्थिति सह्य नहीं होती, इसलिए वे अपनी विकासोन्मुख आत्माके भाव दूसरोंमे उंडेलना चाहते हैं। इस सत्प्रेरणाको हजारों शास्त्रग्रन्थोंकी रचनाका श्रेय मिला है। 'बालाना बोधवृद्धये', 'शिप्यानुप्रहाय' आदि आदि प्रारम्भ-वाक्योमे उक्त भावनाके स्फुट दर्शन मिलते हैं। कविके लिए 'कान्यं यशसे' का क्षेत्र खुला है। किन्तु एक प्रन्धकारके लिए यह श्लाघनीय नहीं होता । उसकी गति सिर्फ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आचार्य श्री तुलसी 'परहिताय' होनी चाहिए । आचार्यवरने इसी भावनासे कई ग्रन्थ रचे है। उनमे जैन-सिद्धान्त-दीपिका, भिक्षु-न्याय-कणिका, शैक्ष-शिक्षा-प्रकरण आदि उल्लेखनीय है। जैन-दर्शनके विद्यार्थीके लिए ये अपूर्व उपयोगी है। कलकत्ता विश्वविद्यालयके आशुतोप प्राध्यापक, संस्कृत-विभागके अध्यक्ष डा० सातकडि मुकर्जीने __स्वयं मुझसे कई वार कहा-"खेद है कि 'जैन-सिद्धान्त-दीपिका जैसा उपयोगी ग्रन्थ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ।” उक्त ग्रन्थोंका कलेवर मध्यम परिमाणका है। फिर भी उनमे अवश्य जाननेयोग्य तत्त्वोंका सुन्दर संकलन है। मुझे विश्वास है, ये कृतिया आपके कृतित्वकी अमर प्रतीक होंगी। १-ये उद्गार उम समय के है, जबकि जैन-सिद्धान्त दीपिका प्रकाशित नहीं थी। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफल प्रेरणा आपकी वृत्तिया अपने तक ही सीमित नहीं रहतीं। उनका समूचे संघ पर प्रभाव पड़ता है। पुराने जमानेमे लोग कहते थे 'यथाराजा तथाप्रजा'। आजकी भापामे कहू तो 'यथा नेता तथानुग.।' जो बीत गई, उससे क्या । राजा रहे नहीं, तब 'जैसा राजा वैसी प्रजाका' का क्या अर्थ बने ? आजके आदसीको आज की भापामे बोलना चाहिये । 'जैसा नेता वैसा अनुयायी' यह ठीक है। आपका नेतृत्व अपने अनुयायियो पर असर कसे न करे ?, आपकी सक्रिय शिक्षासे प्रेरणा पा साधु-संघने भी साहित्यनिर्माणके पुण्य कार्यमे बडी तत्परतासे हाथ बटाया है। समयके परिवर्तनने प्राकृत, संस्कृत आदि प्राच्य भापाओका न्धान हिन्दी को दिया है। अब वह राष्ट्रभापाफे पद पर आसीन है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी जैन - विद्वानोंने सदा से ही लोक भाषामे कहा या लिखा है । माध्यम से ही अपना सन्देश ११० भगवान् महावीरने लोक भाषा के जनताके कानों तक पहुंचाया था । उसकी चर्चामे एक आचार्यने लिखा है -: The "वाल्स्त्री मन्दमूर्खाणा, नृणा चारित्रकाक्षिणाम । अनुग्रहार्यं तत्त्वज्ञ, सिद्धान्त प्राकृत कृत " आपके नेतृत्वमे हिन्दी भाषामे जैन - साहित्य - निर्माणका महान् कार्य प्रस्तुत है । हमे आशा है, थोड़े वर्षोमे जैन - साहित्य हिन्दी संसारमे प्रतिष्ठापूर्ण स्थान पा लेगा । प्राच्य - साहित्य-निर्माण । कार्य जैन साधुओं का इतिहास बडा उज्ज्वल है। आपके नेतृत्व में वह परम्परा स्मृतिकी वस्तु नही बनेगी | Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर तत्त्व-चर्चा आपकी सार्वजनिक चर्याका एक प्रमुख अन है । व्याख्यान, साधारण बातचीत और प्रश्नोत्तर के रूपमे वह चलती रहती है । प्रश्न करनेवालोंका ताता सा जुडा रहता है । 'विश्व - शान्ति - सन्देश' के बाहर आते ही वह प्रश्नोंकी भूमि बन गया । भारत और योरोप के विचारकों द्वारा इसके बारेमे बहुत कुछ पूछा गया। आपने उन सबका समाधान किया । लन्दन से जैन - विद्वान् हर्बर्ट बैटेनके प्रश्न आये । आपने उनको बडे मार्मिक ढंगसे समझाया। आपके प्रश्नोत्तरोंकी संकलना की जाये तो एक वृहत्तर पुस्तक वन सकती है । इसलिए मैं इस विषयको अधिक लम्बा नहीं खींच्गा । सिर्फ आपके उत्तर देने की शैली और दो चार प्रसंगोंको वतावर इससे क्षमा चाहना । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी आप उत्तर देते समय आवेशमे नहीं आते और थोडे शब्दों मे उत्तर देते हैं । ये दोनों बाते आपने अपने पूर्व - आचार्य श्री कालुगणीसे सीखी-ऐसा कई बार आप कहा करते है । उत्तर देते समय आवेशमे आनेवाला 'आपा' खो बैठता है। अधिक बोलनेवाला उलझ जाता है । इसलिए उत्तरदाता के लिए अनावेश और संक्षेप ये दोनों गुण आदरणीय है । प्रश्नकर्ता स्वतन्त्र होता है । वह कटु बनकर आये तो भी उसे मृदु बना देना, इसमे उत्तरदाताकी सफलता है । ११२ प्रो० ए० एस० वी० पन्तने अपने एक लेखमे आपसे हुए प्रश्नोत्तरोंकी स्थितिका वर्णन करते हुए लिखा * प्राचार्य महाराज हमारी प्रालोचनाओोसे उत्तेजित नही हुए । उन्होने पहले हमारे दृष्टिकोणको समझनेका एव वादमें उसका उत्तर देनेका प्रयास किया । यह एक ऐसा गुण है, जो देशके विरले ही धर्माचार्यो में मिलता है । उनमें से बहुतसे तो भावनाओके असहिष्णु है । -- The Acharya Maharaj was not upset by our criticsms He tried to understand our view point and then answer the same This 18 a rare quality to be found in the religions of the land. Many of them are intolerant of supposition They can brook of no argument But Sri Pujyajı, in all our discussions with him never talked disparagingly about other religions, but only maintained with telling arguments his own point of view' ( विवरण पत्रिका, २६ जुलाई, १९५१ ) वर्ष १ संख्या ३ पृष्ठ ३ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर ११३ वे किसी भी युक्ति अथवा तर्कको सहन नही कर सकते । लेकिन श्री पूज्यजी महाराजमे हमारे धार्मिक प्रसगमें कभी भी दूसरे मतके दोष नही निकाले और न अन्य धर्मके वारेमे निन्दात्मक बातें की, लेकिन तर्क एव युक्ति के साथ अपना दृष्टिकोण ही रक्खा ।" इस प्रकरणमें आपकी अपनी एक निजी विशेषता है । वह है प्रश्नकर्ताको पराजित करनेकी भावना न रखना । प्रश्नकर्ता कैसी भी भावना लेकर आये, उत्तरदाताको उसे हर हालतमे क्षमा करना चाहिए । उभयपक्षीय वितण्डा और जय-पराजयकी भावना से शत्रु-भाव प्रवल होता है । निष्प्रयोजन शत्रु बनाने तथा शत्रुतापोपण-वृत्तिको बढ़ावा देनेका अथ क्या ? उत्तरदाताका कर्त्तव्य हे - समसकनेवाले को समझाये, वितण्डा करनेवालेसे मौन रक्खे, किन्तु वैमनस्य न बढ़ावे । आपकी इस प्रवृत्तिसे हजारों व्यक्ति आपकी ओर झुके है । आचार्यश्री अपने प्रश्नकर्ताको जिस शीघ्रता से सुलझानेका प्रयत्न करते है, उसमे आपकी स्पष्टता, आत्मनिष्ठा और निर्भीकता तर आती है। भारत के सर्वोच न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी० डबल्यू स्पॅशने आपसे पूछा- क्या राजनीति और धर्म एक ही है ? आपने उत्तरमे कहा - नहीं । स्पॅश - कैसे ? आचार्यश्री - राजनीति धर्मसापेक्ष हं. किन्तु समूची राजनीति धर्म नहीं है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ प्राचार्य श्री तुलसी स्पश-धमसे अन्याय मिटता है, राजनीतिसे भी, फिर इनमे अन्तर क्यों ? आचार्यश्री-राजनीतिमे स्वार्थ रहता है, बल प्रयोग होता है । वल-प्रयोगसे अन्याय छुडवाना भी हिंसा है ! यहीसे राजनीति और धर्म दो होते चले जाते है। स्पेंश -विश्व-शान्ति कैसे हो सकती है ? युद्ध कसे मिट सकता है ? आचार्यश्री-स्वार्थ, अनधिकारपूर्ण प्रभुत्व छोडनेसे दोनों हो सकते है। यह हो कैसे, आजका लालची मनुष्य अप-स्वार्थ तक छोडनेको तैयार नहीं है। स्पेश-आप सत्यकी मूर्ति है, फिर गवाही क्यों नहीं देते ? आचार्यश्री हमारे द्वारा किसी पक्षको भी कष्ट नहीं होना चाहिए। लेडी स्पेश-सासारिक उपकारको आप धर्मसे पृथक् कैसे बताते है ? आचार्यश्री-जिससे आत्म-विकास न बने, केवल भौतिक लाभमात्र हो, उसको आत्म-धर्म नहीं माना जा सकता। हंगरीके सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा प्राच्य संस्कृतिविषयक उच्चशिक्षा-कौन्सिलके प्रतिष्ठाता एवं सञ्चालक डा० फेलिफ्स वाल्पी के विचित्र प्रश्नोंके उत्तर आनन्ददायक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी है : Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर ११५ फेलिक्स--क्या आत्मसाधना के लिए केवल जैनसूत्रोंका ज्ञान ही यथेष्ट है ? आचायश्री - हा, यथेष्ट है, परन्तु व्यावहारिक ज्ञानकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती । फेलिक्स - काम वासना को जीतनेके क्रियात्मक उपाय -- - क्या है ? आचार्यश्री - काम-वासना पर विजय प्राप्त करनेके क्रिया त्मक उपाय ये है : ― (१) काम-वासना जनक बातें न करना । (२) दृष्टि - संयम रखना । (३) अधिक न खाना | (४) मादक द्रव्य - शराव, नशीली वस्तुओं एवं उत्तेजक पदार्थो का सेवन न करना । (५) मनको स्वाध्याय, आदि सत्प्रवृत्तियों मे लगाये रखना | (६) आत्मा और शरीरके भेदका चिन्तन करते रहना । (७) योगका अभ्यास करना । फेलिक्स - क्या साधु स्त्रीसंगसे दूर रह कर पूर्ण सन्तुष्ट हैं ? आचार्यश्री - संयममे जो आनन्द है, वह स्त्री - ससर्गसे कभी प्राप्त नहीं हो सकता । [साधु अपने आदर्शपर चलते हुए पूर्ण प्रसन्न हैं । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राचार्य श्री तुलगी फेलिक्स - क्या जैन-सम्प्रदाय मे दम्पति के लिए शील- पालन आवश्यक समझा जाता है ? क्या विवाह धार्मिक संस्कार माना जाता है ? आचार्यश्री - यद्यपि गृहस्थ के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य नहीं है, फिर भी पर- सीसे पूर्ण बचाव और अपनी स्त्रीके साथ काम सेवनकी मर्यादा स्थिर करना आवश्यक है। जैन- दृष्टिकोण से विवाह धार्मिक संस्कार नहीं है । इस प्रकार भारतके प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा० के० जी० रामाराव, आस्ट्रिया के पत्रकार डा० हर्बर्ट टीसी, लन्दन के जेन विद्वान् हर्बर्ट बैटेन आदि विशेषज्ञोके प्रश्नोंके उत्तर न पाकर जिलागु पाठक अवश्य कुछ असन्तुष्ट होगे, किन्तु इस झाकीमे मै पूर्णता की आशा ही कब करा पाया हू। ऊपरकी पंक्तियोंमे थोड़ेसे प्रश्नोत्तर ज्योंके त्यों रख दिये गये है । विचारक वर्ग स्वयं इनका मूल्य आक लेंगे । ११६ * देसो तत्त्वचर्चा ( आदर्श - साहित्य- सघ द्वारा प्रकाशित ) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-सम्पर्क आपके लीवनका यह एक रहस्यपूर्ण अध्याय है। इसको लेकर विरोधो क्षेत्रोंमे कटु, कटुतम आलोचनाएं और टोकाटिप्पणियां हुई है। न आपने उनका विशेष समाधान किया और न उन आलोचकाने इसका तत्त्व छूनेका विशेष प्रयत्न किया । आपके सम्पर्कमे आनेवाले व्यक्ति शिक्षा, सत्ता, न्याय और विभिन्न पार्टियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले है । सैकडो, हजारों व्यक्ति आये, दो चार पाच दिन सम्पर्कमे रहे, जो कुछ देखा, उसे उन्होंने लिसा अथवा कहा। कारण क्या है ? पता नहीं, कई व्यक्ति इससे झटा उठे। उन्होने आचार्यश्री पर. श्रावक वर्ग पर और आनेवाले व्यक्तियों पर वडे-बडे आरोप लगाये-जैसे आचायजी का वडापनकी भूख है. वे दूसरोंके पासस प्रमाण-पत्र लेना चाहते Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __११८ आचार्य श्री तुलसी है, श्रावक वर्गके पास धन बहुत है, वह अपने आचार्यजीकी प्रशंसा सुननेके लिए धनके बल पर टानलाता है, आनेवाले धनके लालचसे आते है, उन्हें खुश करने के लिए अथवा सभ्यताके नाते दो-चार अच्छे शब्द कह देते है, आदि आदि । आखिर इसका वीज क्या है ? यह कार्य क्यों चला और चल रहा है ? आप इसे किस दृप्टिसे देखते है ? इस रहस्यपूर्ण मुद्दे पर मैं मेरी स्फुट धारण रखनेकी चेष्टा करूंगा। ___ आचार्यश्रीका नेतृत्व सम्हालनेके तुरन्त बादसे यह ध्यान रहा है कि हमे अपने पूर्वाचार्यों द्वारा विरासतके रूपमे जो संगठन और चैतन्य मिला है, उसका पूरा-पूरा उपयोग होना चाहिए | समय-समय पर इस भावनाको आप साधु-संघ तथा श्रावक-संघ के सामने व्यक्त करते रहे। आपने अनेकों बार श्रावकोसे कहा . "तुम स्वार्थी मत बने रहो। तुम्हारे पास जो कुछ है, वह दूसरोंको बताओ, वे लेना चाहें तो दो। इसमे तुम्हारा हित है और उनका भी।" इससे श्रावकोंको बल मिला । उन्होंने प्रचार-कार्यकी तालिका बनाई। उसमे एक कार्यक्रम यह भी रखा कि विशिष्ट व्यक्तियो से सम्पर्क-साधना और उन्हें आचार्यश्रीके सम्पर्कमे भी लाना। योजनाके अनुसार कार्य शुरू होगया । अकल्पित सफलता मिली। परिधिसे बाहर रहनेवालोंको आश्चर्यसे अधिक सन्देह होने लगा। उनका दृष्टिविन्दु यहीं केन्द्रित रहा कि यह सब प्रलोभनके सहारे हो रहा है, नहीं तो यकायक यह परिवर्तन कैसे आता Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-सम्पर्क ११९ यह ठीक है, आप विशिष्ट व्यक्तियों के सम्पर्क को मर्यादा के प्रतिकूल नहीं मानते है। हिंसक शक्तियों के प्रतिरोधमें अहिंसक शक्तिया मिलजुलकर कार्य करें, यह आपकी सार्वदिक इच्छा रहती है। अहिंसाका प्रभाव बढ़े, इसी भावनासे आप किसीको समझाते है, किसीसे विचार-विनिमय करते है और किसीको उसका सार्वभौम प्रचार करनेकी प्रेरणा देते हैं। ___ आप पैदल विहार करते है। इसलिए आपको सुदूर-क्षेत्रोंतक पहुचनेमे कठिनाई होती है। दूसरे लोग सवारीपर बैठते है । वे शीघ्र आ-जा सकते है। इसलिए श्रावक लोग सारी परिस्थिति बता उन्हें निमन्त्रण देते है। अगर वे निमन्त्रण स्वीकार करें तो उन्हें आचार्यश्रीके सम्पकमे ले आते है। इसमे आपत्ति जैसी कोई बात लगती नहीं। प्रलोभन देकर लाते हैं, चापलूसी करते है, प्रमाणपत्र लिखवाते है आदि आदि बातें निर्मूल है। ये हिंसाभावनासे गढी गई है। आचार्यश्री साधन-शुद्धिपर हमेशा बल देते है। श्रावक लोग आगन्तुक व्यक्तियोका आतिथ्य करते है, उसे कोई प्रलोभन कहे तो भले ही कहे। कुछ ऐसा लगता है कि हिंसक शक्तियोकी तरह अहिसक शपिया मिलजुलकर कार्य नहीं कर सकतीं। अहिंसामे प्रेम है, बन्धुता है, फिर भी एकत्व क्यों नहीं, यह एक गुत्थी है। आचार्यशेने २३ जुलाई ५१ को दिहीमे एक प्रवचनमे कहा . "च्या कारण है कि चार चोरांका तो एक संगठन हो सकता है पर चार भद्र पुगप चतुपकोणके चार मिन्दुओंी तरह अलंग Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्राचार्य श्री तुलमी अलग ही रहते है। बुराईकी ताकतोंसे लोहा लेनेके लिए या आवश्यक है कि भले आदमियोंका भी सुदृड संगठन हो।' राष्ट्रके अन्य अहिंसाप्रेमी व्यक्ति भी इसकी आवश्यकता अनु भव करते है। आचार्यश्रीके साथ वार्तालाप करते हुए राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाढने कहा-"यह अच्छा हो कि सर्वोदय समा और अणुव्रती संघ मिलजुलकर कार्य कर ।” आपने इनकी इर भावनाका स्वागत करते हुए कहा-"अहिंसक समाजोंके लिए य बहुत आवश्यक है। कारणकि जवतक हम अहिंसाके लिए ए शक्तिशाली जनमत तयार नहीं करलेंगे, तबतक अहिंसाके द्वार हिंसक शक्तियोंको प्रभावित नही करसकेगें।" ___ आपके सम्पर्कमे आनेवाले व्यक्तियोकी संख्या-सूची देकर पुस्तकके पृष्ठ बढ़ाना नहीं चाहता। मैं सिर्फ इतनाही बताऊं कि जो व्यक्ति आपके निकट आये, उनमे निन्यानवे प्रतिशत आपकी कठोर साधना, अगाध पाण्डित्य, सर्वतोमुखी प्रतिभ अहिंसा-प्रसारकी तीव्र भावना और सहृदयतासे अत्यन्त प्रभावि हुए है। __ लन्दनके ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयके संस्कृत-अध्यापक डा एफ० डवल्यू-टमास एम० ए० पी० एच०डो, सो०आई० ई० जैन धर्मकी जानकारीके लिए आचार्यश्रीकी सेवामे आये। कई दिन रहे। जाते समय उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा : * "बीदासरमें तेरापन्थी समाजसे मिलकर, आचार्य महाराज * It has been a great gatisfaction to me to be ab Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसम्पर्क १२१ दर्शनका सौभाग्य लाभ कर, इतने विद्वान् व विनीत साधु-साध्वियोसे मिलकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। साधु व साध्वियोकी धर्म पर दृढ प्रास्या, सत्य-निष्ठा, गृहस्थोका भक्तिभाव विसवाद रहित है । तेरापन्थी गण पर जन-धर्म के त्याग, वैराग्यका सम्पूर्ण पालक होने के कारण, सासारिक कार्योसे सम्पूर्ण निलिप्त रहन के कारण, दूसरोके प्रति समवेदनारहित्यके साक्षेपका मौका मिलता है। परन्तु उनके अहिंसाके महान् तत्त्ववे स्वरूपसे और खासकर उनकी कार्यकारी दया. लता व मंत्री-भावसे ही वह प्राक्षेप सर्वथा असत्य हो जाता है।" __ आचार्यश्रीका व्यक्तित्व एक महान् रश्मिपुत्र है। उसमे लाखों व्यक्तियोंको आलोक देनेकी सामर्थ्य है। जैसा कि भारत मे नंतिक और सामाजिक स्वास्थ्य-संघकी प्रधान संघटनकी कुमारी मेलिसेंट सेफेलने सरदारशहरमे भाषण करतेहुए जनताको सम्बोधित कर कहा: to pay a visit to the Terapanthi Community in Bidasar, to linse tho honour of Darson of the Acharya Alaharaj and to meet ko man learned and dorout Sadhus and Sudhire........ .. The comuction and fincerity of the Sndhus nuo Sadhuis nnd the devotion of the Inity are bevcud question Tic strict adlcance of the Terapanthus to gain principles of necetien arā abstention from mring in worluli afturs sites Occasion for criti. CIEM on the ground of unfeelingness which boterer are helted buy the teri nature of tbeir great principale of Ahmen and by their practical Lilurass srå friendlılcie" Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आचार्य श्री तुलसी ___"एक चिरागसे हजारो चिराग जलाये जासकते है। प्राचार्यश्री के उपदेश तथा उदाहरणरूपी जगमगाते चिरागसे अनेक पवित्र जीवन प्रकाश प्राप्त कर सकते है। आपका शान्ति और बन्धुत्वका प्रादर्श सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैले।" शान्तिका प्रसार आपका प्रथम या चरम लक्ष्य है। किन्तु उसके लिए साधना जरूरी है, ऐसा आपका विश्वास है । शान्ति के अनुरूप आदर्श और व्यवहार बनाये बिना वह मिल नही सकती। इसीलिए उच्च भूमिका पर फलित होनेवाली आपकी साधना दूसरोंके लिए स्वयंसिद्ध आकर्षण है । एक बार भी आपकी साधनापूर्ण दशाका अवलोकन करनेवाला अपने आपको धन्य मानता है। भारतके सर्वोच्च न्यायालयके मुख्य न्यायाधीश सर पेट्रिक श ने आचार्यश्री से हुए अपने सम्पर्कका उल्लेख करते हुए कहा : "मैने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मेरे जीवन में ऐसा __ सुन्दर सप्ताह गुजरेगा।" ____ उन्होंने बिदा होनेके पूर्व बड़े आग्रहके साथ आचार्यश्री से __ मंगल-पाठ सुना। इसके पूर्व उन्होंने एक वक्तव्य देतेहुए कहा :--- * "ये साधु-साध्विया माजके कष्टपूर्ण समयमे ससारकी भलाई और शान्तिके लिए कार्य कर रहे है, यह देख मुझे वडा सन्तोष है। *“I am profoundly satisfied that in the present troublous times these Sadhus aud Sadhwis are working for the good and peace of the world . The example set up by His Holiness, His Sadhus and Sadhvis 18 one Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसम्पर्क १२३ ......... आचार्यश्री और उनके साधु-साध्वी जो उदाहरण प्रस्तुत करते है, यदि लोग उसका अनुकरण करें तो ससारकी सब कठिनाइया दूर हो जाय । सम्भवत मै १५ मासके अन्दर-अन्दर भारतसे प्रस्थान करूगा । ऐसा लगता है कि इस देशमें बड़े-बड़े परिवर्तन पानेवाले है। यदि लोग शान्तिसे और मेल-जोलसे रहते हुए गुरु महाराजके आदर्शों पर चलेंगे तो मुझे पूरा विश्वास है कि उनका भविष्य उज्ज्वल होगा। ___मुझे अपनी यह यात्रा लम्बे समय तक याद रहेगी। गुरु महाराज जो काम कर रहे है, उसमें और सघके उच्च नैतिक आदर्शोंमें मुझे सदा अनुराग रहेगा।" __ आपमें श्रद्धा और बुद्धिका सुन्दर समन्वय है। अपने लिए जहा श्रद्धाका प्राधान्य है, वहा दूसरोंके लिए बुद्धिका। सिफ which, if followed by the people, would put an end to all the troubles of the world Probably I shall have to leave India within the next 15 months and great changes are in store for this country I profoundly believe in the future of tb18 country if the people learn to live in peace harmony and follow the ideals weicb Guru Mabaraj stands for I shall long remember my visit and sball always be interested in the work being done by Guru Mabara] and in the bigb moral standard of the sect". (विवरण-पत्रिका, अप्रैल १९४७, पृष्ठ ११४) वर्ष ८ अक ४ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्राचार्य श्री तुलसी दूसरों पर प्रभाव डालनेके लिए बुद्धि नहीं होनी चाहिए। किन्तु यह सही है कि नुकीली बुद्धि के बिना प्रभाव पड़ता भी नहीं । आप अपने प्रति अटल हैं। आत्म-विश्वास अटल है। फिर भी आप अपनेको युक्तिसे दूर नहीं रखते । युक्तप्रान्तीय कांग्रेसके उपाध्यक्ष, केन्द्रीय विधान-परिपके सदस्य अलमूराय शास्त्रीने आपके सम्पर्ककी चर्चा करते हुए लिखा ___मैने तेरापन्थी सौधुमोके अनेक कलापूर्ण काम देखे। जैन-दर्शन के विषयमें मैने पहलेसे ही कुछ सुन रखा था और अब करीव २० वर्षसे जन-धर्मको गम्भीरतासे पूर्ण प्रभावित हू । कितना वडा पाडित्य हमे यहां देखने को मिली, इसको वर्णन करना असभव सा है।... में एक वैज्ञानिक समाजेको मानने वाला व्यक्ति है, प्रत्येक बोतको वैज्ञानिक ढगसे देखता हू। आचार्यजी की आत्मा कितनी ऊ ची है, वे व्यवहारकी बात करके भी परमार्थकी ओर जाते है। अपने प्रादर्श से नीचे बिल्कुल नहीं उतरते, इसका मैने पूर्ण अनुभव किया। भारत एक धर्मपरायण देश है, इसमें ऐसे उपदेशोकी आवश्यकता है। इन उपदेशोके द्वारा राष्ट्रको आसानीसे ऊ चा उठाया जा सकता है।" प्रो० सुशीलचन्द्र गुहा एम० ए० बी० एल० ने 'मेरी राजगढ़ यात्रा' शीर्षक निबन्धमें लिखा है :___ * "सूक्ष्मतम दार्शनिक प्रश्नोको विभिन्न रूपसे समझाने की एव * His Holiness ... . .. . has wonderful power of analysing the subtlest philosopbioal problems and of Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसम्पर्क १२५ विभिन्न दार्शनिक विचारधारा सम्बन्धी विचारोका समुचित समाधान करनेकी आपकी शक्ति अद्भुत है। जब मैने पूज्यजी महाराज का ध्यान बौद्ध-विचारधारा-आत्मा जैसी कोई वस्तु नही और मनसे परे कछ नही, की ओर आकर्षित किया तो उन्होने तुरन्तं प्रत्युत्तर दिया setting at rest the controversies in phylosopbical Speculation when I drew the attention of His Holines to the Buddist conception that bothing like the Soul and nothing beyond the Mind could be found in the human system, His Holiness very sharply replied that there Wal no confilct thére, as the mind which was the thinking apparatus in the human system, might be taken as idontical with the soul, a quality of which was consciousness When His Holiness was confronted with the vedantic thỏory of the unity of the pramatma, His Holiness observed that when the liberated souls sbone out brightly, side by side, like as many luminous bodies & person looking at the adjacent lamidous bodiea from a great distance might not notice their multiplicity and oven, on thi contrary, ontortain an idea of their unity, which was önly illusory and not real, when faced with the possibility of the existence of the Bheda-Buddhi, that is the discriminating knowledge that is X and not Y or Z. His Holiness observed that as the liberated souls were similar in quality, there could not be any such BhedsBuddhi in the liberated souls In addition to His scholar. thip and loftiness of moral and spritual character, H18 Holiness POBIEB888 splendid eloquence in bis mother tongue te daily addresses hundreds of his disciples, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आचार्य श्री तुलसी 'इसमें कोई विशेष बात नहीं, क्योकि मनका जोकि मानवीय व्यवस्थामे विचार-शक्ति उत्पन्न करता है, मात्मा, जिसका गणं चेतनता है, के साथ अभिन्नरूपसे सम्बन्ध है ।' जब पूज्यजी महाराजके सामने एकेश्वरवादका वैदान्तिक सिद्धान्त रक्खा गया तो उन्होने बत. लाया कि जिस प्रकार चमकते हुए पदार्थोका समूह पास-पास होने से दूरसे देखने में एक मालूम होता है परन्तु वह वास्तविकता नही, भ्रम है। उसी प्रकार मूल मात्माए प्रकाशयक्त होने से चमकते पदार्थोके समूहकी तरह देखने में एक मालूम पडती है, पर वास्तव में एसा नही। जब उनको मोक्ष-प्राप्ति के बाद जीवन की एव भेद-बुद्धि-उचितानुचित including the Sadbus Sadhyis and the laymen in au impressive way ou the main tenets of Jainiem Besides, H18 Holiness has wonderful memory I found His Holiness reciting and explaining the Ranmayana, every night, before & vast gathering of men and women wbo must bave undoubtedly gained much ethical and spritual knowledge during the Obaturmasya of His Holiness Although I bad a miod to stay longer with H18 Holiness, I had to come away hurriedly after a week, when reports of communal troubles reached me from Bengal Wben I took leave of His Holiness I mentally uttered "Gachobbami Punardarsanaya" (1 am going to unite again ) I have no doubt that this is the attitude of every visitor of His Holiness” ( विवरण-पत्रिका, ९ अगस्त, १९५१) वर्ष १, सख्या ५ पृष्ठ ५ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवसम्पर्क १२७ जानने का ज्ञान कि 'क' क ह ग या नहीं, की सम्भावनाके विषय में पूछा गया तो उन्होने उत्तर दिया कि मुक्त प्रात्माए गुणमें एक समान है, अत ऐसी भेद-बुद्धि उनमे नही रह सकती। आचार्यश्री में विद्वत्ता, नैतिक एवं आध्यात्मिक विचार-शक्ति तथा चारित्रकी उच्चताके साथसाथ अपनी मातृभाषामे भाषण देनेकी प्रखर शक्ति है। वे हमेशा सैकडो मनुष्योके बीच, जिनमें साधु-साध्विया, श्रावक-श्राविकाए एव अन्य भी होते है, जैन-धर्म के मुख्य तत्त्वो पर प्रभावोत्पादक भाषण करते है । इसके अतिरिक्त उनकी स्मरण-शक्ति भी अद्भुत है । मैने पूज्यजी महाराज को चातुर्मासमे रात्रिके समय विशाल जनसमूहमेंजोकि नि सन्देहरूपसे नैतिक एव आध्यात्मिक ज्ञानको प्राप्त करते है, रामायणका कण्ठस्थ पाठ करते सुना है। यद्यपि मेरा विचार पूज्यजी महाराजके साथ कुछ दिन और रहने का था पर बगालसे साम्प्रदायिक अशान्तिके समाचार पाने से एक मप्ताह बाद शीघ्र ही जाना पड़ा। जाने के समय मैने मन में सोचामें आपके पुन दर्शनोके लिए जा रहा है। मुझे इसमें सन्देह नही कि आचार्यश्री के दर्शन करनेवालो-सभी सज्जनोके मनमें ऐसी ही भावना रहती है।" धमक्षेत्रमे सम्प्रदायवादकी भीषण आग जल रही हैं। वह इसीलिए कि धार्मिक व्यक्ति समभावी नहीं रहे। समभाव जीवन की सार्वभौम सत्ता है। वह बिना कुछ किये दूसरोंको आत्मसान् कर लेती है। किन्तु जात-पात आदिके छोटे-छोटे बन्धनोमे बंध कर आदमी अपनी असीमताको खो बैठता है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी विपमता हलाहल जहर है । उसकी एक रेखा कला, सौन्दर्य और साधनाको निर्जीव बना देती है । वह कला, वह सौन्दर्य और वह साधना मौलिक होती है, जिसका उत्स होता है समभाव । आप योगीराज है । 'समत्वं योग उच्चते' की योगपद्धति से आपका जीवन छलाछल भरा है । भारतीय संस्कृति और इतिहासके प्रसिद्ध विद्वान् डा० कालीदास नाग आचार्यश्रीके दर्शन कर जो जान सके, उसे उन्हीं के शब्दों में देखिये: "आचार्यश्री रास्ते के एक ओर वेदीपर बैठके धर्मोपदेश कर रहे थे श्रौर कितने ही श्रोता उनकी वाणी सुनने के लिए आये थे । उनमें केवल सम्प्रदायके लोग ही नही बल्कि सव घर्मो के लोग थे । मुसलमान भी थे। साधुकी वाणी सबके लिए है । साधु-सन्त यही करते आये है । उनकी सामना - प्रणाली और कला - कारीगरी देखकर भी मे मुग्ध हुआ था । केवल सत्यकी ही नही बल्कि सौन्दर्यकी साधना भी साथ साथ चल रही है । मैने वहा राजस्थानी भाषा में कविताएं भी सुनी उनसे भी मुझे बहुत आनन्द हुआ और में चाहता हू कि श्राप राजस्थानी संस्कृतिका परिचय इधर बगाल में भी दें ।" अन्तर-दृष्टिवाले व्यक्तियोंका आकर्षणकेन्द्र बाहरी वस्तुजात नहीं होता । उन्हें ललचानेवाली कोई वस्तु होती है तो वह होती है सदाचारपूर्ण साधना । आचार्यवर इसके महान् धनी है । *जैन भारती वर्ष ११ अक १ जनवरी १९५० १२८ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां (जयपुर) से जानेके का समय बाद पोफेसर तानने शान्तिवादी सम्मेलनके सदस्यों को टी-पार्टी दी। तब वार्तालाप के क्रममें उन्होने बतायाः हमारे यहा चार प्रकारके पुरुष माने गये है .प्रथम-मनसे भो शुज पोर शरीरसे भी शुद्ध । द्वितीय-मनसे शुद्ध, शरीरसे लशुद्ध । तृतीय-मनसे अशुद्ध और शरीरसे शुरु । चतुर्थ-मनसे अशुस और शरीरसे भी अशुद्ध । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी " "हमने जयपुरमे प्रथम श्रेणी के पुरुषोका देखा । आचार्यवर एक ऐसे धर्म-शासन के नेता है, जो ममताका पूर्ण प्रतीक है । ढो शताब्दीसे एकरूप में चलनेवाली इस माम्यपूर्ण पद्धतिका अध्ययन कर कोई भी समताप्रेमी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता | १३० सुप्रसिद्ध समाजवादी नेता जयप्रकाशनारायणने तेरापन्थ संस्था के मूलभूत सिद्धान्तों और साधुओंकी सर्वतः स्वावलम्बी जीवन -प्रणालीसे परिचित होकर कहा " एक के लिए सब और सबके लिए एकका सिद्धान्त तो समाजवाद काही सिद्धान्त है । तेरापन्थी साधु-सस्थाका सगठन बहुत ही कठिन समाजवादी सिद्धान्तो के आधार पर है । हिन्दू और जैन धर्ममे जो अन्यान्य सस्थाए है, उनके बडे-बडे मठ और असत्य धन-वैभव है । उनकी तुलनामे यह सस्था बहुत ही उच्चकोटिकी है । परन्तु हम साधु-सस्थाके उत्कृष्ट सिद्धान्तोको गार्हस्थय जीवनमे भी लागू करना चाहते है । न्याय और समता के आधार पर हमे 'बहुजन हिताय' समाज व्यवस्था करनी है और इस कार्यमे हमें आशा है कि काचार्यश्रीका श्राशीर्वाद हमारे साथ रहेगा ।" आचायवर 'एकोऽहं बहु स्याम्' की कोटिकी आत्मा है । विविध विचार और भावनाके लोग आपको विविध रूपमे पाकर एक महान् शक्तिकी कल्पना किये बिना नहीं रह सकते । कलकत्ता विश्वविद्यालयके आशुतोप प्राध्यापक, संस्कृत विभागाध्यक्ष डा० सातकडि मुकर्जी एम० ए० पी० एच डी० ने - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसम्पर्क आचार्यवरकी तेज शक्तिका आलोकनकर कहा : * " आत्म नियन्त्रण से जो तेज, महत्ता और शक्ति प्राप्त होती है, उसके महाराज श्री तुलसीरामजी स्वामी एक ज्वलन्त उदाहरण है । शास्त्रोका एक छात्र होने के नाते में उन सन्तोके, जिन्होने कषाय-विजय द्वारा लोक-विजय प्राप्त किया है, जीवन-वृत्तो से परिचित हूँ । पर दुर्भाग्यवश आध्यात्मिक तपश्चर्या तथा उनकी शक्तियोसे प्रत्यक्षरूप में परिचित नही था । शास्त्रीय विषयोसे अपने परिचयके कारण हो मै श्री गुरुमहाराजके व्यक्तित्वमें परिलक्षित आध्यात्मिक शक्तिका पता लगाने में समर्थ हुआ क्योकि शास्त्रोमें उन आध्यात्मिक कारणोके पर्याप्त उल्लेख है । उनकी उपस्थिति में हमलोगोकी अह्कारयुक्त Ge १३१ * His Holiness Shri Tulsiramji Swami 18 such a concrete illustration of the splendour and majesty and power that self-mastery is said to achieve As a student of the Shastras, I am acquainted with the descriptions of the lives of saints who have conquered the world by conquering their lower selves But unfortunately I have no direct acquaintance with spritual exercises and their efficacy But my acquaintance with the contents of Shastras enables me to trace the spritual powers observed in the person of the Guru Maharaj to spritual causes of which there is ample record in the Shastras In his presence our eqoistic impulses, our vanity, our pettinesses our jealousies, automatically subside I have felt the spritual contagion that he spreads over people who come into his vicinity His radiant smile at once wins the Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्राचार्य श्री तुलसी प्रवृत्तिया, अभिमान, लघुता और दोपदर्शिता आपसे आप दव जाती है । उनके समीप जो आते है, उनपर उनके उन आध्यात्मिक भावो का विस्तार मैने अनुभव किया है। उनकी हास्ययुक्त मुस्कराहट कठिन हृदय सासारिक मनुष्य के हृदयपर तत्काल विजय पा जाती है । विद्वानो तथा विद्वत्ताका पेशा अपनाये हुए व्यक्तियोकी, जो अपनी विद्या बुद्धिका अत्यधिक गर्व किया करते है, व मजोरियोसे मूक्त में अपनेको नहीं मानता। पर मैंने उनकी उपस्थितिमे पाया कि यह कमजोरी दबगई तथा मैने अपने को उनके सम्मुख एक शिशुके रूपम अनुभव किया । इसमें कोई आश्चर्य नही कि उस महात्माके प्रति हजारो व्यक्ति अपनी श्रद्धा-भक्ति दिखलाते तथा अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते है । मुझे स्वत: यह अनुभव होने लगा कि उनकी पैनी heart even of a hard hearted worldly man I do not claim immunity from the general weakness of scholars and men of learned profession who think much of their knowledge and wisdom But I felt in his presence that this weakness subsided and I felt like a child before him No wonder that thousands of people do their reverence and pay their homage to the saint I was made to feel that his penotiating vision enters into the innermost recesses of our mind But he has superabundant tolerance and forgiveness for our failings, and our good instincts are roused to activity by his mere presence So me how the impression has come over to my mind that he 18 a redeemer of carring humanity Unfortunately my Association with His Holiness has been for a short spell and the multitude of visitors Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसम्पर्क दृष्टि हम लोगोके मनके अन्तस्तलमें प्रवेश कर जाती है। पर हमलोगो की असफलताओके प्रति उनकी अत्यधिक सहिष्णुता तथा क्षमाशीलता है और उपस्थितिमात्रसे ही शुद्ध प्रवृत्तिया क्रियाशील हो जाती है। __ मेरे मनपर यह प्रभाव पडा है कि वे भ्रान्त मानवताके म वितदाता है । दुर्भाग्यवश श्रीचरणोसे मेरा सत्सग बहुत कम समय तक रहा तथा दर्शनार्थियोकी अपार भीड और उनके व्यस्त दैनिक कार्यक्रमके कारण मुझे उनसे कुछ पाठ पढने का अवसर नहीं मिल सका, पर उनके कुछ सन्त शिष्योसे कुछ शास्त्र-चर्चाका अवसर मिला और इसीसे शास्त्रोपर उनके अद्भुत अधिकारका अनुभव प्राप्त करना मेरे लिए सम्भव हो सका।" चीनमे भारतीय राजदूत सरदार के० एम० पन्निकर, डा० अमरेश्वर ठाकुर, प्रो० दुर्गामोहन भट्टाचार्य संसदके सदस्य मिहिरचन्द्र चट्टोपाध्याय आदि बहुतसे भारतीय और अनेकों and the fully crammed programme of his daily activities did not afford scope for taking lessons from bim, But I had the privilege of discoursing with some of his monk disciples and this mando it possible for me to realise their stupendous mastery orer the Shastras" Spuutual Renaissance in Rajastlian and His Holiness Sliri 1008 Shri Tulsiramji Swami tie 9th Pontiff of the Jain Swetambar Terapantlu Community Page 3—4, Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ याचार्य श्री तुलसी विदेशी दार्शनिक, विद्वान् तथा राजदूत आपके प्रति अत्यन्त श्रद्धालु है । ढा० अमरेश्वर ठाकुर ने 'तेरापन्थी साधु' शीर्षक एक पुस्तिका लिखी है, जिसमें तेरापन्थी संघका संक्षेपमे यथार्थ परिहै चय कराया Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्तिकी चिनगारियाँ आपने कहा धार्मिक क्षेत्रमे आचार्यश्रीने अमर क्रान्ति की है। समयसमयपर तीर्थंकर और बड़े-बड़े आचार्य जिस लौ को जलाते आये है, उसीमे आपने भारी चैतन्य उंडेला है । स्वार्थ- पोषक लोग अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए 'धर्म खतरेमे' का नारा लगाते है । आप इसे सहन नहीं कर सके। "यह क्या ? धर्म खतरेमे ? स्वार्थ खतरेमे हो सकता है । धर्म आत्माकी वस्तु है, उसको किस बातका खतरा ?" आपने अपनी अनुभूति व्यक्त करनेके लिए एक कविता लिखी, जिसका शीर्षक रखा 'अमर रहेगा धर्म हमारा' । इसका जनतापर मनोवैज्ञानिक असर हुआ । लाखों जैन, जैनेतर, जो 'धर्म खतरेमे' की आवाज सुनते-सुनते भ्रान्त हो रहे थे, जाग - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आचार्य श्री तुलनी उठे धमके प्रति दृढ श्रद्धालु बन गये। 'अमर रहेगा धर्म हमारा' की आवाज बुलन्द हो उठी। तेरापन्थके प्रथम आचार्य श्री भिक्षुगणीने धार्मिकोको यह चेतावनी दी कि यदि धर्म हिसा और परिग्रहका अखाडा बना रहा, उसके नामपर बड़े-बडे मकान और पूजी एकत्र की गई, धनिक-निर्धनका भेद चलता रहा तो अवश्य ही उसके शिरपर एक दिन खतरेकी घण्टी बजेगी। भगवान् महावीरकी वाणीका प्रतिविम्ब ले भिक्षु स्वामीसे जो किरणें फैली, उनका आचायश्रीने महान् उज्जीवन किया। लोग जब कहते है कि आज वैज्ञानिक-समाजकी धर्म पर आस्था नहीं है, तब आप इस तथ्यको स्वीकार नहीं करते। आपकी धारणा है कि इसमे वैज्ञानिक समाजका दोप नहीं है। यह सब धार्मिकोंने धमके नामपर जो खिलवाड की, उसका परिणाम है। धर्म सबके हितकी वस्तु है। उसपर किसीको आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु अहिंसा और सत्य जिसका स्वरूप है, अपरिग्रह जिसकी जड़ है, वह धर्म हिंसा, झूठ और परिग्रहका निकेतन बन जाय, तब उसे लोग कैसे अपनायें ? कैसे उससे सुख-शान्तिकी आशा रखे । धर्मकी जो विडम्बना हो रही है, उसे देखकर आपके हृदयमे बड़ी भारी वेदना होती है। मथुराके टाउन-हालमे प्रवचन करते हुए आपने कहा : "मुझे इस बातका खेद है कि लोगोंने धर्मको जातिके रूपमे Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रान्तिको चिनगारिया १३७ बदल डाला। धार्मिकोके आडम्बर, कलह, शोषण, स्वार्थपरता, संकीर्णता, जाति-अभिमान आदिके बारेमे जब मैं सोचता हू, तब हृदय गद्गद् हो जाता है।" "मैं ऐसे धर्मकी साधनाके लिए जनताको प्रेरित नहीं करता। ___ मैं आप लोगोंसे वैसे धर्मको जीवनमे उतारनेका अनुरोध करूंगा, जो इन झंझटोंसे परे हो, विश्वबन्धुत्वका प्रतीक हो।” ___ आपकी धारणामे धर्मके सच्चे अधिकारी वे हैं, जो त्यागी और संयमी है। आज बहुलाशमे धमकी बागडोर पूंजीपतियो के हाथमे है इसलिए उसपरसे जन-साधारणका विश्वास उठ गया है। धर्मके लिए पूंजीका कोई उपयोग नहीं है। आपने गत कई वर्षांसे पिछड़ी जातियोंकी आचार-शुद्धिपर विशेष ध्यान दिया। भंगी-बस्तियोंमे साधुओको भेज कर व्याख्यान करवाये। अनेकों बार आपने स्वयं उनके बीच व्याख्यान किये। उनमे बडी श्रद्धा जाग उठी। आपने उनसे कहा :___ "आपमे जो स्वयंको हीन समझनेकी भावना घर कर गई, यही आपके लिए अभिशाप है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्यके लिए अस्पृश्य या घृणाका पात्र माना जाये, वहाँ मानवताका नाश है। आप अपनी आदतोंको बदलें। मद्य, मास आदि बुरी वृत्तियों को छोड़ दें। जीवनमे सात्त्विकता लायें। फिर आपको पावन वृत्तियोको कोई भी पतित या दलित कहनेका दुस्साहस नहीं करेगा।" Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी ་ आचार्यश्री के दृष्टिकोणको हजारों हरिजनोंने अपनाया । मद्य, माँस, तम्बाकू आदि अनेकों कुत्र्यसन त्याग दिये | कई स्थिति - पालकों को यह बहुत अखरा । वे आचार्यश्रीको दलित जातिके बीच देखना पसन्द नहीं करते, किन्तु आचार्यश्रीने इसे अस्थान समझा । आप इसे बार-बार स्पष्ट करते रहे १३८ ―― “हमारा प्रवचन सबके लिए है । जो कोई सुनना चाहे उसे रोकनेका किसीको अधिकार नहीं है ।" आप यह भी स्पष्ट करते रहे : "हमारा जो कोई प्रयत्न होता है, वह सिर्फ अहिंसा और सदाचार की वृद्धि के लिए होता है । हमे कोई सामाजिक या राजनैतिक स्वार्थ नहीं साधना है । न हमे चुनाव लड़ना है और न मत एकत्र करने है । हम इन सब झंझटोंसे परे है । " आचार्यश्री के इस सफल प्रयोगसे लाखों लोगोंको मानवजातिकी एकताका भान होने लगा है, यह उनका सही मार्गकी ओर एक कदम है । "व्यक्ति-व्यक्ति में धर्म समाया, जाति-पातिका भेद मिटाया । निर्धन धनिक न अन्तर पाया, जिसने धारा जन्म सुधारा || अमर रहेगा धर्म हमारा ।" आपके इस पद्यकी धार्मिक कि भविष्यमे यह विशुद्ध धर्मका क्षेत्रोंमे बडी गूज है । आशा है व्याख्या मन्त्र होगा । - Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज जिसकी चर्चा है आचार्य श्री तुलसी एक महान् धर्माचार्य है। सैद्धान्तिक दृष्टिसे भले ही हमलोग आपको जैनाचार्य कहें, व्यवहारकी भूमिकामे आप सिर्फ धर्माचार्यके रूपमे सामने आये हैं। धर्म का उन्नयन आपके जीवनकी महान् साधना है। अहिंसाके व्यापक प्रचारका अदम्य उत्साह आपकी रग-रगमे रक्तकी भाति संचारित होता रहता है। अणुवतीसंघकी स्थापना इसीका परिणाम समझिये। यह एक असाम्प्रदायिक धमसंस्था है, जिसका एकमात्र उद्देश्य है जीवन-निर्माण, चरित्र-विकास । धर्म-संकीर्ण विश्वके लिए यह एक सरल पथ है। इसकी आत्मा अहिंसा है किन्तु स्वरूप क्रान्तिकारी है और यह सही है कि इसी प्रवृत्तिके कारण यह सहसा लोगोंको अपनी ओर खींचनेमे सफल हुआ। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आचार्य श्री तुलसी जैसा कि हिन्दीके प्रमुख पत्रकार सत्यदेव विद्यालंकारने लिखा ___"अणुव्रतीसघ एक सस्था, सगठन, आन्दोलन और योजना है, जिसके साथ आजके लोकाचारको देखते हुए 'कान्तिकारी' विशेषण बिना किसी सकोच या सन्देहके लगाया जा सकता है। कमसे कम मेरा आकर्षण नो उसके इस क्रान्तिकारी स्वरूपके ही कारण हुमा है।" यह *संघ एक वर्ष तक छिपा रहा। दिल्ली अधिवेशनके अवसर पर जनताने इसका मूल्य आका। नैतिकताके पोषक वर्गोंने इसे अपना सहयोगी माना । देश व विदेशोमे सब जगह इसका हार्दिक स्वागत हुआ। पण्डित नेहरू, आचार्य विनोबा __ आदि आदि विशिष्ट व्यक्ति इसकी असाम्प्रदायिक नीतिसे बड़े प्रभावित हुए। लोगोंने अनुभव किया कि महात्मा गाधीकी मृत्युके बाद सार्वजनिक क्षेत्रोंमे जो अहिंसाकी गति रुक गई थी, वह पुनर्जीवित हो चुकी है। ____ आजसे ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महागरने अणुव्रतोंकी दीक्षा देकर गृहस्थ जीवनको सुसंस्कृत किया था। सामाजिक बुराइयोंको जडमूलसे उखाड़ फेंकनेके लिए क्रान्तिका शंख फूका था। उन्हीं अणुव्रतोंकोंको आधुनिक ढांचे में ढालकर आचार्यश्री ने सामाजिक बुराइयोंके विरुद्ध जो नैतिक संघर्ष छेड़ा है, वह निश्चय ही आपकी मर्यादाके अनुरूप है। भारतके एक किसान और मजदूरसे लेकर राष्ट्रपति तक सभीने इसकी उपयोगिता * विशेप विवरणके लिए देखो-अणुव्रतीसघ पहला वार्षिक अधिवेशन Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज जिसकी चर्चा है १४१ स्वीकार की है। विदेशों मे इसका जो स्वागत हुआ, उससे जाना जाता है कि भारतके भाग्य में जगद्गुरु होनेका श्रेय आज भी सुरक्षित है। जैन - सिद्धान्तोंकी व्यावहारिकतामें सन्देह करनेवालोंको यह संघ सक्रिय उत्तर है । आदर्श व्यवहारकी सतह में आकर ही यथार्थ बनता है । भगवान् महावीरके सिद्धान्त निवृत्तिमूलक होते हुए भी व्यवहारकी सचाईको लिए हुए हैं । समय-समय पर जैनाचार्योंने अपनी पावन कृतियों द्वारा यह सन्देश जनताके कानों तक पहुंचाया है। आचार्यश्रीने भी अपने युगमे धर्मका महान् नेतृत्व किया है, यह लिखते हुए इतिहासकारकी लेखनी गौरवसे नाच उठेगी । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-कल्याणकी भावना आपकी प्रवृत्तियोंमे सर्वोदयकी-प्राणी मात्रके हितकी भावना रहती है। यही कारण है कि आप जन-जागरणके प्रतीक हैं । जनहितके लिए आपने पहले पहल *तेरह सूत्री योजनाका प्रसार किया। इसने अणुव्रती संघकी पीठिकाका काम किया। १-निरपराध चलते-फिरते जीवोको जान बूझकर न मारना । २–प्रात्म-हत्या न करना । ३-मद्य न पीना। ४.-मास न खाना । ५-चोरी न करना। ६-जुआ न खेलना। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-कल्याणकी भावना १४३ युगकी गतिविधिको देखते हुए जनताके मानसका परिचय पा लेना आवश्यक था। भूतवादके लोहावरणसे आच्छन्न संसार अध्यात्मवादको भूमिसात् किये चला जा रहा है। वैसो स्थितिमे पहले ही अणुव्रतीसंघका मूल्याङ्कन करनेको एक कुशाग्रता पूर्ण कार्य कहना चाहिए। भारतीय रंगमंच बदल गया, फिर भी आत्मा नहीं बदली। उसमे अब भी अध्यात्मकी लौ जल रही है, यह पाया गया। एक वर्षके थोडेसे प्रयासमे पच्चीस हजार व्यक्तियों द्वारा तेरहसूत्री योजनाका स्वीकार किया जाना उसका पुष्ट प्रमाण है। ७-झूठो साक्षी न देना। ८-द्वेष या लोभवश आग न लगाना । ९-पर-स्त्री गमन न करना, अप्राकृतिक मथुन न करना। १०-वश्यागमन न करना। ११-धूम्रपान व नशा न करना । १२-रात्रि-भोजन न करना । १३- साधु के लिए भोजन न बनाना । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्प्रदायिक एकता जैन-धर्म समताप्रधान ही नहीं है, किन्तु समतात्मक है । ममताका मूल आत्माकी आन्तरिक भावनाओंमेसे निकलता है। भगवान् महावीरकी वाणीमे जिसका रूप है-"आयतुले पयासु' जिसकी प्राणीमात्रके प्रति समता-बुद्धि है, वही सही अर्थमे समता ___ का सन्देशवाहक हो सकता है। इस दिशामे जैन-आचार्योकी कृतिया बड़े गौरवके साथ उल्लेखनीय है। भगवान् महावीरकी प्रकाशमान परम्परामे अनेक आचार्य तेजोमय नक्षत्रकी भाति चमके, कोटि-कोटि जनताके प्रकाश-स्तम्भ बनकर चमके। अस्त्र-शस्त्र या पशु-शक्तिके सहारे चमकनेका अर्थ है मर मिटना। जैन-धर्म इसका मूलत: परिपन्थी है। चमकना वह है कि बिना किसी दवावके जनता जिसे अपना Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्प्रदायिक एकता १४५ शिरमौर माने, जिससे पथ-दर्शन ले। सबके लिए पथदर्शक होना उसीके लिए सम्भव है, जो सबके लिए समान हो। "पियमप्पियं कस्स वि नो करेजा"-किसीका भी प्रिय-अप्रिय न करे, इस भावनाको साथ लिए चलनेवाला हो। लोग सोचगे कि किसीका प्रिय न करे, यह बात कैसी ? गहराईमे जायेंगे तो पता चलेगा कि साम्यवादकी जड यही है। किसी एकका प्रिय सम्पादन करने वाला दूसरेका अप्रिय भी कर सकता है। एक परिवार, समाज यो राष्ट्रके लिए प्रिय वात सोचनेवाला दूसरोंकी उपेक्षा किये विना नहीं रह सकता । अध्यात्मवादी प्रिय-अप्रियकी बात नहीं सोचता। वह सोचता है सबके साथ साम्य बर्ताव की। ___आचार्य श्री तुलसी इसी परम्पराके प्रतिनिधि है। आपकी सात्त्विक प्रेरणाओसे साम्य-सृष्टिका जो पल्लवन हो रहा है, वह किसी भी धार्मिकके लिए गौरवका विपय है। जैन-एकता ही नहीं, अपितु धार्मिक सम्प्रदायमात्रकी एकताके लिए आपने जो दृष्टि दो है, वह इतिहास-लेखकके लिए स्वर्णिम पंक्तियां होगी। ___ आप सम्प्रदायोंको मिलानेके पक्षपाती नहीं, उनके हृदयोंको एक सूत्रमे वाध देनेको उत्सुक है। धर्म-सम्प्रदायोमे आपसमे वैर-विरोध, ईर्ष्या और विचारोंकी असहिष्णुता न रहे तो वे अलग अलग रहकर भी विश्वके लिए वरदान बन सकते हैं। घंगालके खाद्य-मन्त्री श्रीप्रफुल्लचन्द्र सेनने आपसे पूछा-क्या सभी धर्म-सम्प्रदायोमे ऐक्य सम्भव है ? आपने कहा-हा है। उन्होने पूछा-कसे ? आपने कहा-विचार-भेद मिट जाय, सभी Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आचार्य श्री तुलमी सम्प्रदाय मिल जायं, यह तो सम्भव नहीं है। किन्तु एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदायके साथ अन्याय न करे, घृणा न फैलाये, आक्षेप न फैलाये, आक्षेप न करे, विचार-सहिष्णु रहे, थोडेमे मन-भेद मिट जाय तो बस फिर एकता ही है। साम्प्रदायिक एकताका यह सवश्रेष्ठ व्यावहारिक मार्ग है। सब सम्प्रदाय मिटकर एक बन जायं, इसमे कितनी कठिनाइया है। दूसरे शब्दोंमे कितनी असंभावनाएं है, यह किसीसे छिपा नहीं है। उस स्थितिमे आपसी सद्भावना ही एकत्व हो सकती है। आपकी अपनी नीति इस एकताके अनुकूल है। आप साम्प्रदायिक वैमनस्य और खण्डनात्मक नीतिमे विश्वास नहीं करते। दूसरे सम्प्रदायों पर आक्षेप करनेकी नीतिको आप र साम्प्रदायिक कलहका मूल-मन्त्र मानते है। ____ आपने जयपुरकी एक विशाल परिपद्मे प्रवचन करते हुए कहा:_ "धर्म-सम्प्रदायोंमे समन्वयके तत्त्व अधिक है, विरोधी तत्त्व कम। उस स्थितिमे धार्मिक व्यक्ति विरोधी तत्त्वोंको आगे रखकर आपसमे लडते है, यह उनके लिए शोभाकी बात नहीं है। उनको समन्वयको चेष्टा करनी चाहिए।" वह दिन धर्म-सम्प्रदायोंके लिए पुण्य दिन होगा, जिस दिन उक्त विचार फलवान होंगे। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव-शक्ति तेरापंथ संघ एकतन्त्रीय शासनका वेजोड उदाहरण है । उसमे एक आचार्य के नेतृत्वका सफल अनुशीलन होता है । नेतामे वात्सल्य और अनुयायीमे श्रद्धा हो, तब अनुशासनमे जान आती है। वहा अनुशासन ऊपर से न आकर अन्दरसे निकलता हे । इसे शास्त्रो आत्मानुशासन या हृदयकी मर्यादा कहा गया है । आपके अनुशासनका मूल आधार यही है । आपके नेतृत्व ६४० साधु साध्विया और लाखो श्रावक-श्राविकाएँ है । सघ - शक्तिका उपयोग केवल लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेमे होता है । खण्डनात्मक नीतिमे न विश्वास है और न उसका प्रयोग भी होता है । आजके इस जनतन्त्रीय युगमे एक तन्त्रीय धमशासन सुननेमे स्यात् कुछ अटपटा ना लगे, किन्तु उसके कर्तृत्व Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्राचार्य श्री तुलनी पर आवरण नहीं डाला जा सकता। नेता और अनुगामी दोनों आपसमे हृदयाकर्षणपूर्वक कार्य कर तो एकतन्त्र के समान स्वस्थ कोई दूसरी शासन-प्रणाली ही नहीं। वार्मिक शासनकी यह पद्धति राजनीतिक पण्डितोंके लिए अध्ययनका विषय है। भारत के लिए गौरवकी बात है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य - सम्पदा आचार्यश्री का जीवन एक विशिष्ट तपोभूमि है । उसका साधना-तेज दूसरोंके लिए सहज सिद्ध आकर्षण है । हजारों व्यक्ति त्यागके प्रति आकृष्ट हुए, यह उसीका फल है | श्रावकजीवनकी दोक्षा और अणुव्रती दीक्षाके अतिरिक्त महाव्रत दीक्षा भी कम व्यक्तियोंने नहीं ली । मुनि-जीवन निःसन्देह कठोर साधना है, तलवारकी धारपर चलना है, लोहे के चने चवाना है, फिर भी एक महान् साधक के नेतृत्व उस पर चलनेकी आत्म-प्रेरणा सहज प्रौढ बन जाती हे। युवक और बड़े बूढोंकी तो बात ही क्या ? छोटे-छोटे किशोर कुमारोंने आपके नेतृत्वमे इस अग्नि परीक्षाको सहज स्वीकार किया और सरल बनाया है । मानवताकी इस प्रयोग Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्राचार्य श्री तुलमी शालामे अनगिनत किशोर मानवताके चरम तक पहुंच पाये है। आसपासमे रहनेवालोको लगा कि यह बहुत वडा काम हो रहा है, भौतिकता के विरुद्ध आध्यात्मिक सेनाका निर्माण हो रहा है । दूर खड़े लोगोंने मन ही मन सोचा - यह क्या हो रहा है ? छोटे-छोटे बालक मुनि - जीवनकी ओर खिंच जा रहे है ? उन्हे बहकाया जा रहा है, फुसलाया जा रहा है, ललचाया जा रहा है आदि आदि । यह सन्देह था और है, पर दूर रहने का अर्थ सन्देहके सिवाय और हो ही क्या सकता है। आचार्यश्रीकी मूक साधनाने ऐसे व्यक्तियोका निर्माण किया है, जो उनकी प्रतिभाके स्वयं प्रमाण है | चारित्र और विद्याके सुन्दर समन्वय से जीवनका प्रासाद खडा करना, मजबूती के साथ उसे आगे बढाना आचार्यश्री के स्वयम्भू व्यक्तित्वका सहज परिणाम है । आपके शिष्योकी मूक कृतियो का उल्लेख कर मैं उन्हें सीमामे बाधनेकी प्रागल्भता कर सकता हूं, किन्तु फिर भी मैं एक पुस्तक के बीच मे दूसरी पुस्तक लिखने को तैयार नहीं हूं। इसलिए मैं एक दिवंगत वालमुनि कनककी, जो कसौटी पर कनक ही रहा, चर्चा कर इस प्रसंगसे मुक्ति पा ऐसी मेरी इच्छा है। मुनि कनककी जीवन-गाथा आचार्यश्री के जीवन से इस प्रकार जुडी हुई है कि उसका उल्लेख किसी अंशमे भी अप्रासांगिक नहीं लगेगा । इसमे आचार्यश्रीकी निर्माणकारी प्रवृत्तियो और बालककी विवेकपूर्ण मनोवृत्तिके अध्ययनकी सामग्री मिलेगी । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य सम्पदा १५ बहुधा लोग अवस्थाकी बात सुनते ही घबडा जाते है, धीरज खो बैठते है, किन्तु यह उचित नहीं । अवस्था और बुद्धिका मेल ast विचित्र होता है । उसके आधार पर एकाही निर्णय करना व्यक्ति-स्वातन्त्र्यके साथ खिलवाड नहीं तो और क्या है ? बहुत से बूढ़े बालक होते है और बालक बूढ़े । बूढ़े और बालक केवल अवस्थासे नहीं होते। उनके और भी अनेक कारण है । अवस्था कोई गुण नहीं, वह तो एक काल - परिवर्तनकी स्थिति है । वह सबको आती है, क्रमश आती है, उसमे कोई परिवर्तन नहीं होता । *महाकवि कालीदासने 'वृद्धत्वं जरसा विना' इस सूक्ति से वयःस्थविरके अतिरिक्त स्थविरोंका संख्या- निर्देश करते हुए लिखा है : :--- "अनाकृष्टस्य विषय, विद्याना पारदृश्वन | तस्य धर्ममतेरासीद्, वृद्धत्व जरसा विना ॥ अर्थात् वैराग्य, ज्ञान और सदाचार - धर्मसे भी मनुष्य स्थविर बनता है। विवेचना - शक्तिका प्रादुर्भाव होता है कि बालक बूढा बन जाता है । मैं जिस बालककी जीवन कहानी लिख रहा हृ, वह उक्त पंक्तिका अपवाद नहीं था । वयसा शिशु होने पर भी वह वैराग्य, विवेक और सदाचारसे प्रौढ था । जन्म-परम्परा के अनुसार वह इस नश्वर संसार के निर्घृण प्राङ्गणमे एक घटना चक्र लिये हुए आया । दश वर्ष तक उसी लीलामे रमण करता रहा । * रवण प्रथम नग इत्येक २३ | Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्राचार्य श्रीतुलसी दिव्य आकृति थी, शरीर सुकुमार था, सबसे गजबकी थी वह मृदु मुम्कान, जो दर्शकोंको मुग्ध किये बिना न रहती। विद्या की अभिरुचि थी। हिन्दी और इङ्गलिशका अभ्यास चालू था । पवनकी गति वदली। वालकके विचारोमे आन्दोलन हुआ। विरक्तिके भाव उमड पड़े। चालू जीवनसे मुह मोडा । दीक्षा लेने को कटिबद्ध हो गया । यह कैसे हो सकता है ? क्यों हुआ ? क्या इस वयमे दीक्षाका वोध भी सम्भव है ? मैं इन प्रश्नोका विस्तृत उत्तर न देकर सिर्फ इतना ही कहूंगा कि यह हो सकता है, ऐसा हुआ है और यह सम्भव है। क्यो और कसेका उत्तर आप मानसशास्त्रियोंसे लीजिए, उनसे मानस-विश्लेपण कराइये। पिता ( कन्हेयालालजी ) और पुत्र दोनों आचार्य श्री तुलसी के सामने करबद्ध प्रार्थना करने खड़े हुए-महामहिम | हम विरक्त है, दीक्षाके अभिलापी है, हमारी मनोभावना सफल करनेकी कृपा करें। आचार्यवरने उन्हे देखा, उनकी अन्तरभावनाकी झाकी ली और उन्हें इन शब्दों द्वारा सान्त्वना दी कि अभी साधना करो। - तेरापन्थके नियमानुसार आचार्य अथवा उनकी विशेप आज्ञा के सिवाय और कोई दूसरा दीक्षा नहीं दे सकता। यही कारण था कि वे दीक्षाका निर्देश पाने के लिए बार-बार आचार्यश्री से प्रार्थना करते रहे। पूर्ण परीक्षणके वाद आचार्यश्रीने उन्हे दीक्षा की स्वीकृति दी। सं० १९६५ ( कार्तिक शुक्ला ३) मे सरदारशहर मे उनकी दीक्षा हुई। दीक्षाके थोडे समय पश्चात् कन्हैयालालजीकी भावना शिथिल Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-सम्पदा १५३ हो गई । वे दीक्षाके कष्टोसे घबड़ा गये और उन्होंने पुन' गृहस्थी मे जानेका निश्चय कर लिया। यद्यपि वे ( कन्हेयालालजी ) दश वर्षसे दीक्षा लेनेको उत्सुक थे। फिर भी दीक्षाके परिपह कम नहीं होते। जो व्यक्ति गृहस्थकी सुख-सुविधाओंमे परिपक्व हो जाता है, अनुशासनहीन सामाजिक जीवनमे रम जाता है, शारीरिक श्रम नहीं करता है, वह उन पके हुए संस्कारोंको लेकर साधु-संस्था मे दीक्षित बने तो उसके लिए तेरापन्थ साधु-संस्थामे सम्मिलित होना एक बड़ी समस्या है। साधु-जीवनकी कठिनाइयां हैं, वे तो है ही, उनके अतिरिक्त सुदृढ़ अनुशासनमे रहना, कठोर श्रम करना, स्वावलम्बी रहना, दूसरोंका कहा मानना, उलाहना सहना आदि आदि ऐसी प्रवृत्तिया है, जो कच्चे-पक्के संसारके रंगमे रंगे हुए व्यक्तिके लिए दुरूह होती है। ___ बाल-जीवन उन सासारिक सुविधाओं एवं शिथिलताओंका आदी नहीं होता। इसलिए वह सरलतापूर्वक साधु-संस्थाकी कठिन प्रवृत्तियोंमे भी अपना जीवन ढाल लेता है और उनके अनुकूल बना लेता है। पिता-पुत्र इसके सजीव उदाहरण हैं। ४५ वर्षका पिता घर जाने की सोच रहा है और १० वर्षका पुत्र सब कठिनाइयोको चीरता हुआ संयम-साधनामें अग्रसर होता जा रहा है। पिताने पुत्रको पुन घर लौटनेको कहा। उनने यह कब सोचा कि मेरा पुत्र मेरी बातको टाल देगा। उन्होंने देखा कि मैं कठिनाइयोसे घबड़ा गया. तव चह से नहीं घबड़ाया होगा। में वृढा होने जा रहा हूं, यह आखिर वाला है। पर उन्होंने Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आचार्य श्री तुलसी 'न च वयः' इसपर ध्यान नहीं दिया, अन्यथा वे अपने पुत्रको समझानेका कष्ट न करते । पुत्रने पितासे कहा - आश्चर्यभरे स्वरमे कहा-यह क्यों ? आपके मुहसे ये शब्द निकले । में नहीं सुनना चाहता ऐसे शब्द ।। अपन कितने वैराग्यसे घर बार छोड़ कर दीक्षित हुए है। लाखोंकी सम्पत्ति, पूरा परिवार, बड़े बड़े मकान क्या इसीलिए थोड़े ही छोड़े है कि हम घर वापिस चलेचले। मैं अधिक क्या कह ? आप स्वयं समझदार है, आखिर आपकी ऐसी भावना हुई क्यों ? यह तो बतायें। पिताने वात को टालते हुए कहा-नहीं, यो ही मैं तेरी परीक्षा करता हू-तेरी भावना कैसी है, तू संयममे कैसा रमा है । ___ थोडे दिन बीते, फिर वही घोडा और वही मैदान । पिताने पुत्रको ललचाने की बातें शुरू कर दी। मीठे-मीठे शब्दोमे कहादेख, अपन वैराग्यसे साधु वने, घर छोड़ा, यहा साधुपन नहीं पल रहा है। फिर व्यर्थ ही क्यों कष्ट सहें ? आत्म-कल्याण गृहस्थीमे जाकर भी कर लेंगे। पुत्रने फिर पिताको समझायाआप अपनी दुर्बलताको साधु-संस्थाके शिर न मढ़। आपको यह काम करना उचित नहीं। थोडी सो कठिनाइयोसे घबड़ाकर शिथिल होना आपको शोभा नहीं देता। मैं आपकी यह बात कभी नहीं मान सकता, चाहे जो कुछ भी हो जाये। पिताका प्रयत्न फिर असफल रहा। उन्हें दीक्षा स्वीकार किये दो-ढाई महीने हुए थे। राजलदेसर की बात है। आचार्यश्री रात्रि-प्रतिक्रमण कर विराज रहे थे। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य सम्पदा १५५ मुनि कनक वहा आये और आचार्यश्रीको अभिवन्दन कर एकात मे उनने आचार्यश्री से पूछा- यदि कोई शंकासहित शासन मे रहे तो कैसे ? आचार्यश्रीने उत्तर देते हुए कहा - शंकासहित शासन मे नहीं रहना चाहिए । आचार्य भिक्षुकी यह मर्यादा की हुई है कि कोई भी साधु सन्दिग्ध भाव या संकोचपूर्वक शासनमे न रहे । आचार्यश्रीने कहा- तू यह क्यों पूछता है ? इसका प्रयोजन क्या है ? उत्तरमें मुनि कनकने प्रार्थना की कि मैं इसे जानना चाहता कन्हैयालालजीकी प्रवृत्तियोंमे व्यग्रता बढती गई । वह बालमुनि उन्हें समझता रहा । आखिर पिताको यह निश्चय हो गया कि मेरे कहने से यह मेरे साथ जानेवाला नहीं है । उन्होने दूसरा प्रयोग प्रारम्भ किया । आचार्यश्रीसे वार वार मुनि कनक के बारेमे पुकार करने लगे- यह अविनीत है, मेरा कहा नहीं मानता । आचार्यश्रीने मुनि कनकको उलाहना दिया और आगे पिताके कहे अनुसार चलनेका निर्देशन किया । ऐसी घटनाएं भी कई बार घटीं । यह एक बड़ी समस्या थी । बालककी प्रवृत्तियोको देखते हुए यह अनुमान तक लगाना कठिन था कि यह अविनीत है । दूसरी ओर पिता पुत्र के अहित की बात सोचता है, यह जानना भी दुरूह था | आखिर 'अन्धेर नहीं कुछ देर है' वाली जनोक्ति चरितार्थ हुई । कन्हैयालालजीको यह ट निश्चय हो गया कि कनक मेरे प्रयत्नोंसे मेरे साथ जानेवाला नहीं। इसलिए उन्होंने ऐसी प्रवृत्ति करनेका सोचा कि Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्राचार्य श्री तुलसी आचार्यश्री इसे बहुत ज्यादा उलाहना दे और उससे घबडाकर यह स्वयं मेरे साथ चलनेको तैयार हो जाये । ___एक रातको उन्होंने आचार्यत्रीकी सेवामे कनककी अविनीत प्रवृत्तियोंकी पोथी पढ़ डाली। आचायवरने मुनि कनकको कुछ कठोर उलाहना दिया और कहा कि तू बापका अविनीत है, इसलिए मैं तुझे पढाना बन्द कर दंगा। इससे बालकका सुकुमार हृदय सिहर उठा। कुछ-कुछ आखे भी गीली हो गई। वह चाहता था कि मैं आचार्यश्रीसे कुछ निवेदन करू, पर उस बुद्धिमान् बालककी पलकों पर 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' वाला वश्य नाच रहा था। एक और वह पिताके हितकी चिन्तामे था, दृसरी ओर आचार्यवरकी अप्रसन्न दृष्टि भी उसके लिए असह्य थी। फिर भी ऐसी परिस्थिति आई कि उसने एक निर्णय किया और वास्तविक स्थितिको आचार्यश्रीके सम्मुख रखना उचित समझा। ___ कुछ क्षणोंके बाद आचार्यश्रीने पूछा-क्या तूं कुछ कहना चाहता है ? स्वीकृतिके स्वरमे उसने प्रार्थना की। आचार्यवरने कहा- कह दे। उसने प्रार्थना की -एकान्तमे निवेदन करूंगा। साधु दूर चले गये। आचार्यावरके सान्त्वनापूर्ण शब्दोंका उसे कुछ संवल मिला और उसने वस्तुस्थिति सामने रखनी प्रारम्भ की। निवेदनकी प्रारम्भिकतासे ही उसने आचार्यश्रीका दृष्टिकोण बदल दिया। उसके पहले शब्द ये थे -- आप मुझे फरमाते है कि मैं कन्हैयालालजी स्वामीके पास जाऊं, उनका कहा मानू और वे मुझे घर ले जाना चाहते है । मै जाना नहीं चाहता । इस Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ शिष्य-सम्पदा . दशामें हमारी कैसे पट सकती है ? आचार्यवरने विस्मय और खिन्नताके शब्दोंमे कहा-यह कबसे ? उत्तरमे कहा-माघसेदो ढाई महीनोंसे। आचार्यश्रीने कहा-पहले तूने क्यों नहीं कहा ? उसने प्रार्थना की-मैंने आचार्यश्रीसे पूछा था- "शंका सहित साधुपनमे रहना चाहिए या नहीं" इसका तात्पर्य यही था। "यदि तू मेरी बातें कहीं कह देगा तो मैं अनशन कर दूंगा”कन्हैयालालजी स्वामीने मुझे यों कई बार कहा, इसलिए मैं स्पष्ट रूपमे कुछ भी कहनेमे संकोच करता रहा। मैने सोचा कि मैं उनको समझा लू गा। किन्तु मेरी चेष्टाएं विफल रहीं। मैं कई चार आपका उलाहना सह चुका, फिर भी मैंने कुछ भी कहना नहीं चाहा, सिर्फ इसलिए कि मेरे संसारपक्षीय पिता ज्यों-त्यो पुनः सुदृढ़ हो जाएं। आचार्यवरने मुनि कनकको आश्वासना दो और उसे संयम-प्रवृत्तिमे पूर्ववत् सजग रहनेकी शिक्षा दी । कन्हैयालालजीको इस बातका पता चला, तब वे अधीर हो उठे। अपनी दुष्प्रवृत्तिको छिपाने के लिए कई कुचेष्टाए की और मुनि कनककी ओरसे सर्वथा निराश होकर गगसे पृथक हो गये। __आचार्यवरने कनकसे कहा-तेरा पिता साधु-संस्थासे पृथक् हो गया है। तेरी क्या इन्छा हे ? यहा तो मर्यादापूर्वक चलना होगा, साधु-जीवनकी कठिनाइया सहनी होगी। उलाहने सहने ोगे। तेरा पिता तुझे ले जाना चाहता है........ ...... । आचार्यवरके ये शब्द सुन चाल-मुनि त्वरासे बोलागुरदेव । आत्म-साधना पधम पिता-पुत्रका सन्न्ध मा ? Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आचार्य श्री तुलमी आप मेरे धर्मपिता है । मैं साधुत्रत कभी भंग नही करूंगा । मैं आपके अनुशासनमे प्रसन्न हू । मैं निरन्तर आपके निर्देशानुसार आत्म-साधना मे अग्रसर होऊ, यही एकमात्र मेरी मनोभावना है गुरुदेव । कठिनाइयां । दीक्षा यह सोच-विचारकर ही ली थी कि साधु-जीवन कठिनाइयों का घर है, मैं उनका हंसहँसकर सामना करूँगा, उन्हे चीरकर आगे बढूगा । उलाहना । त्रुटि हुए विना आप उलाहना देंगे नहीं, मेरी त्रुटिपर मुझे उलाहना मिले, उसमें मैं खिन्न क्यों होऊँ । उसे मैं मेरो त्रुटिका प्रायश्चित्त समझूंगा। गुरुदेव । आप मुझपर वात्सल्य रक्खे और शीघ्रातिशीघ्र में उन्नति करू', ऐसा मार्ग-दर्शन करें । बालकककी विवेकपूर्ण बातोंने अपने प्रति आचार्यश्री के हृदय में एक आकर्षण पैदा कर दिया। नियमित अध्ययन प्रारम्भ होगया । उसके विनय और सौम्य भावनाओंसे आकृष्ट न होता, उसे देख उसकी प्रवृत्तियों को देख, उसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पना न करता, ऐसा कौन था ? अवश्यम्भावी भावकी सत्ता बलवती होती है - यकायक बाल-मुनिको ज्वर आया । किसने जाना कि यह चिरसमाधिका अग्रदूत है । वह सामान्य ज्वर 'भाव' ( मियादी ज्वर ) के रूप मे बदल गया । कफका प्रकोप बढ़ गया। बालजीवन, साधुजीवनकी कठिनाइयाँ, व्याधिकी भीपणता, फिर भी वह मृदुमुस्कान अखण्ड रही, हॅसते हॅसते कष्टोंको भेला ! नहीं सुना कभी किसीने उसके मुँहसे ओह ! हाय ! चू तक । वह अवस्था Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ शिष्य-सम्पदा में वालक था, कौन कह सकता है कि वह कृतियोंमें प्रौढ़ नहीं था। उचित चिकित्सा चली, फिर भी उससे कोई लाभ नहीं हुआ। __ अन्तिम शब्दोंमे आचार्यवरसे उसने प्रार्थना की-मुझे आप महाव्रतोंकी आलोचना कराइये , मैंने कोई त्रुटि की हो उसका प्रायश्चित्त दें। ___ आचार्यश्रीने स्वयं उसे महाव्रतोंकी आलोचना कराई। वह जीवन्मुक्त बालक आचार्यवरके चरण-कमलोंकी उपासना करताकरता समाधिलीन हो गया। उसकी कृतिया समूचे संघ और संघपतिके हृदयमें आज भी अमिट है और रहेंगी। ऐसे प्रौढ बालक दीक्षाके लिए अयोग्य नहीं माने जा सकते । दीक्षाके वारेमें आचार्यश्रीका दृष्टिकोण बहुत साफ है। जयपुर-चातुर्मास (वि० २००६ ) मे बाल-दीक्षाका प्रबल विरोध हुआ। हालाकि वहा होनेवाली दीक्षाओमे १५ वर्षसे कम आयु का कोई न था, फिर भी 'बाल-दीक्षा-विरोधी समिति' ने बड़ा उग्र आन्दोलन चलाया। आचार्यश्रीके अपूर्व कौशल और संघचलके सामने उन्हें सफलता नहीं मिली , किन्तु परिस्थिति जटिल थी, इसमे कोई सन्देह नहीं। सचाई हमारे पक्षमे थी इसलिए परिणाम सदा हमारे अनुकूल रहा। आचार्यधीका वह सूत्र कि "हम किमी अवस्थासे मन्बन्धित दीक्षाफे समर्थक नहीं, योग्य दीक्षाके समर्थक है।' बहत नफल रहा । स्त जानकारी लिए देखिए आपापश्री तुर मोको 'ज . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैनिक कार्यक्रम जीवनका कार्यक्रम निश्चित होना चाहिए, यह एक संगत बात है । किन्तु इसके मूलमे यान्त्रिकता या जडता नहीं होनी चाहिए। मेरे नम्र मतानुसार कार्यक्रमकी निश्चितताका अर्थ यही होना चाहिए कि समय अफल न जाए, मनमे अस्तव्यस्तता न रहे, उसमे चैतन्य बना रहे । शत-प्रतिशत महत्त्ववाले कार्य के लिए अगर गौण कार्यकी समय-तालिका कुछ इधर-उधर हो जाय, तो उसमे अनिश्चितता जैसी क्या त्रुटि है । समयमे से सफलता निकले, यही आचार्यश्री की दिनचर्याका प्रमुख सूत्र है 1 उसकी साधारण रूपरेखा मैं पाठकोंके सामने रख दूं । साधारणतया आप करीबन चार बजे उठते है । सबसे पहला कार्य होता है स्वाध्याय और आत्मचिन्तन । एक मुहूर्त्त Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैनिक कार्यक्रम १६१ रात रहते-रहते आपके पार्श्ववर्ती साधु आपको वन्दन कर संघकी मर्यादाओका आवर्तन करते हैं, वह आप स्वयं सुनते हैं। उसके बाद सूर्योदयसे कुछ पहले तक आत्मालोचन करते है। गावसे बाहर दूर क्षेत्रमे शौच के लिए जाना यह भी एक खास बात है। इसमें श्रम, टहलना-घूमना आदि सहज ही हो जाते है। प्रातःकाल एक घण्टाके लगभग व्याख्यान देनेका समय है। भोजनमे बहुत कम समय लगाते हैं। आपके आहारकी दो बातें विशेष उल्लेखनीय है संख्या और मात्रामे कम चीज और कम बार (सिर्फ दो बार ) खाना तथा उसके स्वाद, अस्वादके विषयमे कुछ न कहना। आप आहारके बाद थोड़े समय हल्का-सा विश्राम करते है । उस विश्राममे भार न बने, ऐसे साहित्यका अवलोकन किया करते है। दिनमे सोनेका विशेष स्थितिके बिना काम नहीं पडता। करीब दो घण्टेका समय साधु-साध्वियोंके अध्यापनमे लगता है। करीव दो-ढाई घण्टे आगन्तुक व्यक्तियोंसे बातचीत, प्रश्नोत्तर आदिके लिए है। सामान्यत दो घण्टे या श्रमके अनुपातमे कमवेशी मौन करते हैं। उस समय नथा शेष समयमे मनन, साहित्य-सृजन आदि निजी प्रवृत्तिया होती हैं। शामको फिर सूर्यास्तके बाद आत्मालोचन, प्रार्थना, कभी-कभी प्रार्थनाप्रवचन और स्वाध्यायके वाढ करीव दश बजे आप शयन करते पाठकों को आश्चर्य होगा, सम्भव कोई भी न माने, किन्तु यह सच है कि संघकी व्यवस्थामे आपका अपेक्षाकृत बहुत क्म समय Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्राचार्य श्री तुलसी लगता है। कारण स्पष्ट है। आपका संघ 'तेरापन्थ' मूलतः आत्मानुशासनकी भित्ति पर रहा हुआ है। इसलिए उसे अपेक्षा आपके नेतृत्वकी ही है। आप स्वयं कई वार कहा करते है___ "हमारे पूर्वाचार्योने बडी सुन्दर नियमावली बनाई है, इसलिए मुझे संघकी देख-रेख तथा विकासके अतिरिक्त व्यवस्था सम्बन्धी बहुत कुछ नहीं करना पडता।" आप दैनिक कृत्योंको विकास और सफलताकी दृष्टि से बहुत महत्त्व देते है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक कार्यक्रम १ वर्ष के दिन होते है करीब ३६० । घड़ियों और पलों की गिनती इससे भी बडी होती है । महापुरुषके कार्यकलाप इससे भी आगे डग भरते है । कल्पना और रूप-रेखाओंकी तो बात ही क्या ? अगर मैं भविष्यद्रष्टा योगी या कल्पना - गृहका कुशल शिल्पी होता तो तूलिकाकी एक रेखामे सारा चित्र खींच डालता, किन्तु मैं वैसा नहीं जानता । छोटा-मोटा आदमी स्थूल जगत्को ही अपना केन्द्र-बिन्दु माने चलता है । "तेते पाव पसारिये जेती लम्बी सोड" - यह मुझे याद है । मैं वारीकीको छोड़ कर चलू, उसमे मेरा उपहास नहीं होगा । आचार्यश्रीका वार्षिक कार्यक्रम एक विशाल पोथी है । उसके Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आचार्य श्री तुलसी कुछ एक पृष्ठों रंग भरूं, वही पर्याप्त होगा । आचायश्रीकी वार्षिक यात्रा नव-कल्पी बिहार के रूपमे पूरी होती है। आजीवन पाद - विहार होता है और कहीं स्थायी आश्रम है ही नहीं । इसलिए चातुर्मास कालमे एक जगह चार areकी स्थिति और शेपकालमे अष्टकल्पी विहार होता हैएक माससे अधिक कहीं नहीं रहते । मृगसर कृष्णा प्रतिपदाका दिन चतुर्मासान्त विहारका और मर्यादा - महोत्सवकी भूमिकाका दिन है । - मर्यादा - महोत्सव तेरापन्थ - संघकी एकता और संगठनका महान् प्रतीक पर्व है । वह माघ शुक्ला सप्तमीको होता है । उस दिन आचार्यश्री मर्यादापुरुषोत्तम आचार्य भिक्षुकी रची हुई मर्यादा सुनाते है । सब साधु-साध्विया उनकी प्रतिज्ञाओको दोहराते है - अपनी सहर्ष सम्मति प्रगट करते है । जहाँ आचार्यश्री होते है, वहाँ साधु-साध्विया आ जाते है । आनेके पहले क्षणमे जो 'सिंघाडा" के मुखिया होते है, वे पुस्तकों और अपने पास रहे साधु-साध्वियों तथा अपनेआपको आचार्यश्री के चरणोंमे समर्पण करते है । समर्पणकी शब्दावली यह होती है - "गुरुदेव । आपकी सेवामे ये पुस्तके प्रस्तुत है, ये साधु या साध्वियाँ प्रस्तुत है, मैं प्रस्तुत हूं, आप मुझे जहा रक्खेगे, वहा रहने का भाव है ।" १ - साधारणतया एक सिघाडेमे ३ साधु अथवा ५ साध्विया होती है । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक कार्यक्रम १६५ बाहर से आये हुये साधु-साध्विया अपना वार्षिक कार्य-क्रम का विवरण-पत्र आचार्यश्री की सेवामे प्रस्तुत करते है । लगभग १२५ विवरण-पत्रोंका आचार्यश्री स्वयं निरीक्षण करते है । उनकी व्यवस्था करते हैं । प्रत्येक 'सिंघाड़े' की चर्या और रहन सहनका मौखिक विवरण सुनते है । शिशिर ऋतु जनता के लिए शरीर पोषणका काल है, तेरापंथ के लिए ऐक्य पोषणका और आचार्यश्री के लिए श्रमका काल है । वसन्त पंचमीसे आगामी वर्षकी व्यवस्था शुरू होती है । वह दृश्य बड़ा मनहारी होता है, जब आचार्यश्री साधु-साध्वियों को आगामी वर्षके विहारका आदेश देते जाते है और वे कर-बद्ध खडे हो उसे स्वीकार करते जाते है । साहित्य-सजन, अध्ययनअध्यापन, लेखन आ.िकी वार्षिक व्यवस्था यहींसे बनती है । एक प्रकारसे महोत्सबके दिन नये वर्षके आदि दिनके प्रतिरूपक है । महोत्सव के बाद आगामी वर्षका जीवन-सम्बल ले साधुसाध्वीगण निर्दिष्ट-यात्राकी ओर कूच कर जाता है । आचार्यश्री के विहारका भी नया क्रम प्रारम्भ हो जाता है जो लोग आचार्यश्रीकी निकट सम्पर्क मे सेवा करना चाहते है, उनके लिए फाल्गुन और चैत्र मास अधिक उपयुक्त होते है । प्रातःकालीन व्याख्यान प्राय १२ मास चलता है । गावके लोगोंको कम मौका मिलता है इसलिए विहार कालमे दोपहर और रातको भी आचार्यश्री स्वयं व्याख्यान देते हैं । सैकड़ों गावोका विहार, हजारो लाखों - - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ प्राचार्य श्री तुलसी लोगोंका आवागमन, हजारों व्यक्तियोसे बातचीत और प्रश्नोत्तर आदि २ प्रवृत्तियां आपके लिए सहज जैसी है। आपको विश्राम करनेकी जितनी प्रार्थना सुननी होती है, उसका शताश भी विश्राम करनेका अवसर नहीं मिलता। आप कहते है-"मैं जो काम करता हूं उसमे मुझे पूरा रस मिलता है। हमारे साधुओंको प्रत्येक कायमे उत्साह और आनन्द होता है-होना चाहिए । इसलिए अलग विश्राम करनेकी फिर क्या आवश्यकता ?" यह बात भगवान् महावीरकी “ननत्थ निजरट्ठयाए" केवल आत्मआनन्दके लिए करो- वाली शिक्षाकी याद दिला देती है। ___आपकी ज्ञान-रश्मियोका आलोक और व्यक्तित्व जनताके लिए महान् आकर्पणके हेतु है। समयकी खींचातानीमे भी कई व्यक्ति आपका सफल समय मात्रासे अधिक लेते है, तब दूसरोको अखरे बिना नहीं रहता। वे अपनी मनोभावना आपके कानों तक पहुंचा देते है। उत्तर मिलता है- "कोई व्यक्ति मेरे साथ हो बातचीत करनेकी विशेष उत्सुकता लिए आता है, तब मै उसे निराश कैसे करूं।" एक विशाल संघके शक्तिसम्पन्न नायक इतने सामीप्यसे बात करें, एक-एक व्यक्तिको समझायें, गणके इतिहाससे लेकर निगूढ रहस्य तक बतायें-यह एक आश्चयकी बात है और कार्यभारको अधिक गुरुत्त्व देनेवाली कथा है । अनेक आध्यात्मिक आयोजनोंका संचालन करनेके रिक्त आप अनेक उन्नायक प्रवृत्तियोके स्रोत भो बनते है। आपकी हार्दिक हिलोरें सचमुच दूसरोंको अचम्भेमे डालनेवाली होती है । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक कार्यक्रम १६७ वे दूसरोंके लिए तभी सम्भाव्य बनती है, जब आपकी सतत साधना उन्हें सम्पन्न किये देती है। चतुर्माससे दो महत्त्वपूर्ण उत्सव होते है-एक भाद्र शुक्ला नवमीको आपके पट्टारोहण-दिनके उपलक्षमे दूसरा भाद्र-शुक्ला त्रयोदशीको आचार्य भिक्षुके चरम-दिनकी पुण्य स्मृतिमे। इनमे साधु-साध्वियोंका वह स्फूर्तिदायक मिलाप नहीं होता, बाकी सारा कार्य-क्रम माघ-महोत्सवकी स्मृतिको ताजा करनेवाला होता है। विशेष बात नवमीको पूर्ववर्ती ८ आचार्योका ससम्मान प्रतिनिधित्व करते हुए आप नो नीति सम्पादन करते है, तब आपका व्यक्तित्व बहुमुखी-सा प्रतीत होता है। तेरसको आप आचार्य भिक्षुको श्रद्धाजलि अर्पण करते-करते स्वयं आचार्य भिक्षु __ बन जाते है। उनकी आत्मा आपमें प्रतिबिम्बित हो उठती है । ___ उनका त्याग और आत्म-उत्सर्ग साकार हो बोल उठता है । जैसा कि श्री हरिभाऊ उपाध्याय ( अजमेर राज्यके मुख्य मन्त्री) ने अपने एक *पत्रमे लिखा है 'पूज्य स्वामी भिक्षुजीके चरित्र और आपका आजका तद्विषयक व्याख्यान मुझे बहुत प्रभावकारी मालूम हुआ । ऐसा लगा मानो उनकी आत्मा आपमें बोल रही हो।" आचार-विचार, साहित्य-संस्कृति, कला-कौशलका उन्नयन करनेके साथ-साथ कठोर चर्या, उत्कट अनासक्ति, उपवास, मौन --- ---- * ता - - .९-५१ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आचार्य श्री तुलसी अल्प-आहार आदि अनेक सात्त्विक प्रेरणाओंको संजीवन दिये महान् वर्ष पूरा हो जाता है और आगेके लिए अविक अवकाश और अधिक संभावनाय छोड जाता है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-निष्ठा आप प्रत्येक व्यक्तिको, चाहे वह कैसा ही हो, अपने मन्तव्य बडी निर्भीकतासे बताते हैं। लोग दया-दानकी प्रवृत्तिको लेकर आपकी परम्पराप्राप्त विचार-पद्धतिपर आक्षेप करते है, उसे आप आगन्तुकके सामने सहज भावसे रखते हैं। सर पेट्रिक स्पेशको आपने दया-दान सम्बन्धी विचार वताये, तव कई कट्टरपन्थी लोगोंको भी यह कहते सुना कि आचार्यश्री अपने विचार रखनेमे नहीं चूकते, चाहे कोई भी आये। ___ अभी थोडे समयकी बात है, कलकत्ता विश्वविद्यालयके प्रोफेसर डा० नवलक्षनाथ दत्त एम० ए०, वी० एल० पी० आरएस०, पी० एच० डी०, डी०लिट् आचायश्रीके दर्शन करने आये। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आचार्य श्री तुलसी वार्तालापके दौरानमे आचार्यश्री ने दान-दयाका विवेचन करते हुए बतलाया। ____ "पापाचरणसे अपनेको बचाना, दूसरोंको बचाना यही नैश्चयिक दया है-आध्यात्मिक अनुकम्पा है। दीन-दुःखियों पर दया दिखाकर उनकी भौतिक सहायता करना, जीवन-रक्षा करना सामाजिक तत्त्व है। समाजके व्यक्ति जीवित रहे, सुखी रहें, सुखसे जीएं-- यह सामाजिकोंका दृष्टिबंध है। अतः अपने दूसरे सामाजिक भाईकी सहायता करना सामाजिक कर्तव्य है । उसे धर्मसे क्यों जोडा जाय ? धर्ममे जीने जिलानेका महत्व नहीं है। उसमे उठने उठानेका महत्त्व है। आज सर्वत्र 'जीओ और जीने दो, की तूती बोलती है, किन्तु हमारा नारा इससे प्रतिकूल है। वह है-उठो और उठाओ-स्वयं उठो-आत्मोत्थान करो और दूसरोको उठनेकी प्रेरणा दो, उनके सहायक बनो। एक व्यक्ति कहीं जा रहा है। रास्तेमे चींटी आ गई । 'चीटी को कुचलकर मेरी आत्मा पापलिप्त न हो जाय' यह सोच वह अपना पैर खींच लेता है। उसकी आत्मा उस सम्भावित हिंसाजन्य पापसे बच जाती है, साथमे प्रासंगिक रूपसे चींटीके प्राण भी बचते है। अब प्रश्न होता है कि उस व्यक्तिने अपने प्रति दया की या चीटीके प्रति १ अपनेको पापसे बचाया, यह दया है *जन भारती वर्ष १२ अक १३ मार्च १९५१ 'आत्मा और दयादान' शीर्षक लेखसे । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-निष्ठा १७१ अथवा चीटीके प्राण वचे, वह दया है ? यदि कोई कहे कि चींटी का वचना दया है, तो कल्पना कीजिए उस समय तूफान (आधी) आ गया, चींटी उड़ गई अथवा उसी समय वह चींटी किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा कुचल दी गई, तो क्या उसकी दया नष्ट हो गई ? गम्भीरतासे सोचने और मनन करनेका विषय है, वास्तव मे उसने अपने आप पर दया की।" प्रोफेसर-यह वस्तुतः बडा मौलिक और तात्त्विक सिद्धान्त है। अवतक हम यही सुनते, समझते और पढते आये हैं-'स्वयं जीओ और जीने दो,' किन्तु आज आपसे यह समझकर प्रसन्नता हुई कि वास्तविक दृष्टि कुछ और है। जीने, जीने देने और जिलानेका क्या महत्त्व है, वास्तविक महत्त्व तो उठने तथा उठानेका ही है, तथा इसी प्रकार तत्त्वतः दया अपनेआपके प्रति ही होती है। आचार्यश्री-धार्मिक जगत्मे लोगोंने 'दान' का वडा दुरुपयोग किया। जिस किसीको दे देना ही दान है-धर्मपुण्यका हेतु है, यह धारणा धार्मिक जगत्मे बद्धमुल हो गई। किन्तु जैन-विचारधारा इसके प्रतिकूल है। आचार्य भिक्षुने वताया है-दानके सच्चे अधिकारी सन्यासी-संयमी साधु हैं, जो आत्म-साधनाके महान् लक्ष्यको पूरा करनेमे लगे रहते है, जो पचनपाचन तथा उत्पादन अदिसे निरपेक्ष और नि संग Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आचार्य श्री तुलसी है। उनके संयमी जीवनके लिए उपयोगी अन्न, वस्त्र आदि सामग्री (स्वयं अपने लिए संकोच कर) देना धर्म-दान है। प्रोफेसर-ऐसा लगता है, आपका दान विपयक विचार पुरातन कालीन जैन परम्परासे विपरीत जाता है। आचार्यश्री-पुरातनकालीनसे नही, मध्यकालीन से। पुरानी जैन परम्परा तो यही थी। संयमोपवर्द्धक दानके अति रिक्त अन्य किसी भी दानको उसने अध्यात्सदान नहीं माना। किन्तु मध्ययुगमे ऐसी स्थिति आई, जबकि येन केन प्रकारेण याचकोंको कुछ न कुछ दे देना ही धर्म-कोटिसे माना जाने लगा। सम्भव है समाजशास्त्रियोंने समाजको आवश्यकताओं की पूर्तिके लिए इसको धर्मसे जोड़ दिया हो। प्रबल परिस्थितियोंके वेग तथा अन्य संस्कृतियोके प्रसारपूर्ण वातावरणसे जैन भी अपनेको अछता नहीं रख सके। उनको भी लोक-प्रवाहमे बहना पडा। दीन दुखियोंको दिये जानेवाले दानको उन्होने भी पुण्य दानमे समाविष्ट कर लिया। प्रोफेसर-ये सिद्धात बडे सूक्ष्म एवं वारीकीपूर्ण हैं। आपकी दान-परम्परा भिक्षाविरोधी युगके लिए बहुत उपयोगी है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुट प्रसंग आचार्यश्री के दैनिक क्रममे योगासन भी एक प्रवृत्ति है। योगासन र समयकी खींचातानमें आप प्रायः उसके लिये भासन-प्रयोग समा समय निकालते है। हलासन, सर्वांगासन, पद्मासन, बद्धपद्मासन, ये आपके प्रिय आसन है। ___ अधिक औषध-सेवन को आप बहुत बुरा मानते हैं। यथासंभव आप औषधि नहीं लेते। जुकाम, ज्वर आदि साधारण स्थितिका प्रतिकार प्राकृतिक साधनोसे ही करते है। प्राकृतिक चिकित्साके प्रति आपका विश्वास है। आप बहुत वार साधु-परिपर्दो यह समझाते है कि अगर मात्रा और संज्यामे कम वस्तुएँ खाईजाएं तो दोपज रोग होने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आचार्य श्री तुलमी की विशेप संभावना ही नहीं रहती। आप अधिक बार संख्या मे ५-७ चीजोंसे अधिक नहीं खाते-पीते है। उनकी भी मात्रा ___ इतनी परिमित होती है कि दूसरों को आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। व्यवहारमे उपवासकी अपेक्षा ऊनोटरी* करना कठिन है। आपके लिए वह सहज वनगया, इसमे कोई सन्देह नहीं। __ बीकानेर स्टेटमे ओसवाल समाजमे 'देशी-विलायती' का ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण सामाजिक कलह पैदा हुआ, जिससे समाजको ___अकल्पनीय क्षति उठानी पड़ी। और क्या, असंगठन की उससे समाजकी शृङ्खला टूटगई, नींव हिल-सी चिकित्सा- गई। वर्षो बाद वह ठण्ढा पड़गया, फिर भी क्षमायाचनाका उसके बीज निर्मूल नहीं हुए। सामूहिक भोजन महान् प्रयोग आदिके भेद-भाव नहीं मिटे। आखिर उसकी समाधि के दिन आये। ६६ के चूरू-चौमासेमे आपने इस कार्यको हाथमे लिया। लोगोंको समझाया। एकता और संगठनकी आवश्यकता बताई। आपने कहा-और सब जाने दो, विश्वमैत्रीके महान् प्रतिष्ठाता भगवान् महावीरके अनुयायी यों अमैत्री रफ्खे, यह शोभा नहीं देता। भगवान महावीरने हमे अमैत्रीको मिटानेका ऐसा सुन्दर मार्ग दिखाया है, जिसमे किसीको मानसिक असुविधा भी नहीं होती। सूत्रोंकी भाषामें वह है 'क्षमत-क्षमापणा'। सीधे * भूख से कम भोजन Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ स्फुट प्रसग शब्दों मे-अपना रोष शान्त करना और अपने प्रति रोष हो, उसे मिटाने की प्रार्थना करना। दोनों व्यक्ति समान भूमिका पर क्षमत और क्षमापण करें। वहाँ हल्की-भारी, ऊँची-नीची रही, इसका कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ___ दोनों दलों के व्यक्ति आचार्यश्री से मार्ग-दर्शन पा कलह का अन्त करने को तैयार हो गये। थोड़े दिनों बाद आचार्यश्री के समक्ष दोनों ओर के व्यक्ति आगये। आचार्यश्री ने उन्हे फिर 'मैत्री' का महत्त्व समझाया। एक गीतिका रची। उसके द्वारा लोगोंको मैत्री के संकल्प को दृढ बननेकी प्रेरणा दी। उसके कुछ पद्य यों हैं. "क्षमत-क्षमापण सप्ताक्षरनो, अर्थ अनोखो झाको। परनो खमण नमण तिम निजनो, भ्रमण मिट उभया को ।। भूलो भूतकालनी भूलो, आगामी अनुकूलो। थारी म्हारी हल्की भारी, मत को झगडं झूलो ।। कादा छूत उखेल्या सेती, मूल हाप नहिं नावं । होय सरल चित सद्गुरु प्रागल, गुणिजन गुनह खमा ।" Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी आचार्यश्री की अन्तर आत्मा ने लोगों को इतना खींचा कि सब पिछली काली पंक्तियोंको भूलकर एकमेक हो गये । चारो ओर 'खमत-खामणा' की ध्वनि गूँज उठी । समाजके शिरकी वह अशुक्ल रेखा सदाके लिए मिट गई । वह आश्विन शुक्ला १३ का दिन था। वह कलह चूरूसे ही उठा था और उसकी अन्त्येष्टि भी वहीं हुई, यह एक स्मरणीय बात है । आचार्यश्रीका जीवन आध्यात्मिक तथ्योंके परीक्षणकी एक विशाल प्रयोगशाला है । बोल-चाल, रहन-सहन, वात-व्यवहार, खान-पान आदि संयमका अनुत्तर विकास कैसे आध्यत्मिक किया जाय ? यह प्रश्न आपके मनकी परिधि प्रयोग का मोह छोड़ता नहीं । अपनी वृत्तियोसे दूसरो को कष्ट न हो, इतना ही नहीं किन्तु अपने आप में भी इन्द्रियाँ और मन अधिक समाधिवान् रहें, इसी भावना से आपका चिन्तन और उसके फलित प्रयोग चलते ही रहते है । यो तो आपने समूचे गणको ही प्रयोग-केन्द्र बना रक्खा है | 1 गणकी व्यवस्था करनेमे प्रायश्चित्त और प्रोत्साहन ये साधन उपयोग में आते है । गलती करनेवालेको उलाहना कम या अधिक, सूखे शब्दोंमे या मृदु शब्दों में, एकान्तमे या सबके सामने कैसे दियाजावे -- इन विकल्पों का आप एक-एक गण - सदस्यपर प्रयोग करके देखते है । जिस प्रयोगका जिसपर स्थायी असर होता है, अपनी भूलोंसे छुट्टी पाने की शक्ति पाता है, उसकी विशुद्धिमे उसी का प्रयोग होता है । तपस्या, उपवास आदि प्रायश्चित्त के विविध १७६ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुट प्रसग १७७ पहलुओं की भी यही बात है । कईबार इस तथ्यको पकड़ने मे साधुओं को भी सन्देह हो जाता है । कठोरताकी आशंकामे मृदुता और मृदुता की आशंकामे कठोरता या वे कभी-कभी सोचने लगते हैं कि क्या बात है ? आचार्यश्री कठोरताको काम मे ही नहीं लात, और कभी-कभी यह अनुभव होने लगता है कि आपके पास मृदुता नामकी कोई वस्तु है ही नहीं । प्रोत्साहनके दोनो अंग प्रशंसा और अनुग्रहकी भी यही गति है। किसीको साधारण कार्यपर ही प्रशंसा या अनुग्रह अथवा दोनोंसे प्रोत्साहित कर देते है तो कोई असाधरण कार्य करके भी कुछ नहीं पाता । आचायश्री ने एक बार अपनी कार्यप्रणाली पर प्रकाश डालते हुए कहा " मेरे कार्यक्रमका मूल आधार है व्यक्ति का विकास। मैं जिसप्रकार जिस व्यक्तिके लाभ होता देखता हू, उसके साथ उसी तरीके से वरतता दूँ । इसलिए इसमे किसीको अधिक कल्पना करने की जरूरत नहीं है ।" आहारसे प्रयोग निरन्तर चलते है । कईबार दो-दो सप्ताह तक आपके आहारमे सिर्फ शाक-रोटी ही होती है । अमुक खाने या न खानेसे शरीर तथा मन पर वस्तु पाहार- प्रयोग क्या असर होता है, इसकी एक लम्बी सूची अनुभव मे है । स्वाद-वृत्ति साधुके लिए निषिद्ध है. वह तो है ही, उसके आपके Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ प्राचार्य श्री तुलसी अतिरिक्त आपने खान-पानके सम्बन्धमे वाणी और मन पर जो नियन्त्रण कर रखा है, वह 'तचित्रम्' जैसा है। शाकमें नमक अधिक या कम हो, दूसरी कोई वस्तु कैसी ही हो, उसके बारेमे आहार कर चुकनेसे पहले कुछ कहना तो दूरकी बात किन्तु भाव तक नहीं जताते। आपकी शिक्षामे बार-बार यही स्वर मिलता है : "भोजनके सम्बन्धमे अधिक चर्चा करना- अच्छा बुरा कह __ गृद्ध होना, नाक-भौंह सिकोड़ना मैं गृहस्थके लिए भी ठीक नहीं मानता, साधुके लिए तो यह सर्वथा अवाञ्छनीय है।" आत्म-निरीक्षणसे आचार्यश्रीका नैसर्गिक प्रेम है। आपने आत्म-निरीक्षण एक बार बाल साधुओंको शिक्षा देते हुए कहा :-- "छद्मस्थसे भूल हो जाय, यह कोई आश्चर्य नहीं। आश्चर्य वह है, जो भूलको भूल न समझ सके। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सम्हाले, अपनी भूलोंको टटोले । भूल सुधारका यही सर्वश्रेष्ठ साधन है। भगवान् महावीरके शब्दोंमे : 'से जाणमजाण वा, फट्ट आहम्मिय पय । सदरे खिप्पमप्पाण, वीक त न समायरे ।। अर्थान जानमे, अजानमे कोई अनाचरणीय कार्य हो जाय ___ तो साधुको चाहिए कि तुरन्त अपनी भूल देखे, आत्माका संवरण Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुट प्रसग करे, भविष्य में फिर वह कार्य कभी न करे ।" आत्म-नियन्त्रणके लिए आपने 'दशवैकालिकसूत्र' की दो चूलिकाएं नियुक्त की । संयमीके लिए उनका वह स्थान है, जो घोडेके लिए लगाम, हाथीके लिए अंकुश और नौकाके लिए पताका का है । आपका मानस समुद्रके समान है, जो कि मर्यादामे रहते हुए भी उत्ताल उर्मियोंका साथ नहीं छोड़ता । पौद्गलिक पदार्थों के प्रति आप जितने सन्तुष्ट है, उससे कहीं आत्म जागरण के प्रति असन्तुष्ट हैं । इसी असन्तुष्टिसे 'आत्मचिन्तनम्', 'चिन्तनके तेरह सूत्र' और 'कर्तव्य - पट् - त्रिशिका' जैसे प्रसन्न मार्ग आपके द्वारा साधुओं को मिले । गृहस्थोंके प्रति भी आप उदासीन नहीं है । उनके लिए भी आपने 'आत्म-निरीक्षणके तिरेपन वोल' लिखे । आपके अविरत प्रयत्नोंसे इस दिशा मे एक नया स्रोत चला है । सिद्धान्तकी भाषा मे कहूं तो आध्यात्मिक चेतनाकी उत्क्रान्ति हुई है । विरोधको हंसते-हंसते सहना यों तो तेरापन्थका नसर्गिक भाव है, उसमे भी आचार्यश्रीकी अपनी निजी विशेषता है । आप न विरोधसे घबडाते हैं और न उसे बढ़ावा विरोध के प्रति देते । किन्तु उपेक्षा के द्वारा उसे निस्तेज बना देते है । मंत्री क्षमा और शान्तिके उपदेशका दूसरो पर कैसा असर होता है, वह आप एक छोटी सो घटनासे जान सकेंगे : आचार्यश्रीने धर्मप्रचारके लिए काठियावाड (मौराष्ट्र ) में १७९ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आचार्य श्री तुलसी डाले हुए था। २५वें दिन यह रहस्य खुला। काठियावाड (सौराष्ट्र) से समाचार आये-लोगोंकी भावनामे यकायक __ परिवर्तन आया है, चातुर्मासके लिए वाकानेर और जोरावर नगरमे स्थानका प्रबन्ध हो गया। साध्वी रुपाजीको पहले ही चूड़ामें स्थान मिल चुका है। और सब व्यवस्था ठीक है । आचार्यश्रीने साधु-साध्वियोंके बीच वहाँके साधु-साध्वियोंके साहसकी सराहना करते हुए कहा-देखो वे कितने कष्ट झेल रहे है। हमें यहाँ बैठे-बैठे वैसा मौका नहीं मिलता। फिर भी हमारो और उनकी आत्मानुभति एक है। इन कई दिनोंसे मेरे अल्पाहारको लेकर एक प्रश्न चल रहा। किन्तु मै पूरा आहार लेता कैसे ? मेरे साधु-साध्वियां वहाँ जो कठिनाई सह रहे है, उनके साथ हमारी सहानुभूति होनी ही चाहिए। ___ आचार्यश्रीकी सात्त्विक प्रेरणासे वहाँकी भूमि प्रशस्त हुई, यह पहले किसने जाना। ___ रतननगरमें : विद्यार्थी साधुओंने आचार्यके पास व्याकरणकी साधनिका शुरू की। दिनमे समय कम मिलता था, इसलिए वह मनोविनोद रातको चलती थी। साधनिका प्रारम्भ करते हुए आचार्यश्रीने एक श्लोक रचा : "नव मुनयो नवमुनय , कर्तु लग्ना नवा हि साधनिकाम् । नवमाचार्यसमक्षे, नहि लप्स्यन्ते कथ नव ज्ञानम् ।।" Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुट प्रसग १८१ डूंगरमलजी ये दो सिंघाडे काठियावाड सौराष्ट्र) मे थे । विरोध काफी प्रबल था । चौमासा नजदीक आगया, फिर भी स्थान न मिला। चौमासा कहाँ हो, इसकी वडी आत्म-वल और चिन्ता हो रही थी । वहाँसे कई व्यक्ति चाडवास सात्विक प्रेरणाएँ पहुंचे। आचार्यश्रीसे सबकुछ निवेदन किया । आप कुछ क्षण मौन रहे । उनके मनोभाव कुछ असमञ्जस थे। क्या होगा ? इसकी कुछ चिन्ता भी थी । किन्तु आचार्यश्री ने इस भावनाको तोड़ते हुए कहा - “यद्यपि वहाँ साधु-साध्वियोको स्थान और आहार- पानीके लिए बड़ी कठिनाइयों झेलनी पडरही है, फिर भी उन्हे घबडाना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है, मेरे साधु-साध्विया घबडाने वाले है भी नहीं। उन्हें भिक्षुस्वामी के आदर्शको सामने रखकर ताके साथ कठिनाइयोका सामना करना चाहिए। जहां कहीं जैन, अर्जेन, हिन्दू, मुस्लिम कोई स्थान दें, वहाँ रहजाए अगर कहीं न मिले तो श्मशानमे रह जाएँ। उन्हें वही रहना है, सत्यअहिंसात्मक धर्मका प्रचार करना है ।" आचार्यश्री के इन स्फूर्तिभरे शब्दोंने न केवल खिन्न श्रावको मे चेतन्यही उडेल दिया, बल्कि साधुओको भी इससे बडी प्रेरणा मिली। वे सब कठिनाइयो के बावजूद भी अपना लक्ष्य साधते रहे। चौबीस दिन पूरे वीतये । फिर भी पावतीं माधु छ समझ नहीं सके । आचार्या अल्पाहार वि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आचार्य श्री तुलसी डाले हुए था। २५वें दिन यह रहस्य खुला। काठियावाड (सौराष्ट्र) से समाचार आये लोगोंकी भावनामें यकायक परिवर्तन आया है, चातुर्मासके लिए बाकानेर और जोरावरनगरमे स्थानका प्रबन्ध हो गया। साध्वी रुपाजीको पहले ही चूडामें स्थान मिल चुका है। और सब व्यवस्था ठीक है। आचार्यश्रीने साधु-साध्वियोंके बीच वहांके साधु-साध्वियोंके साहसकी सराहना करते हुए कहा- देखो वे कितने कष्ट झेल रहे है। हमे यहाँ बैठे-बैठे वैसा मौका नहीं मिलता। फिर भी हमारो और उनकी आत्मानुभति एक है। इन कई दिनोंसे मेरे अल्पाहारको लेकर एक प्रश्न चल रहा। किन्तु मै पूरा आहार लेता कैसे ? मेरे साधु-साध्वियां वहां जो कठिनाई सह रहे है, उनके साथ हमारी सहानुभूति होनी ही चाहिए। ___ आचार्यश्रीकी सात्त्विक प्रेरणासे वहाँकी भूमि प्रशस्त हुई, यह पहले किसने जाना। ___ रतननगरमें विद्यार्थी साधुओंने आचार्यके पास व्याकरणकी साधनिका शुरू की। दिनमे समय कम मिलता था, इसलिए वह मनोविनोद रातको चलती थी। साधनिका प्रारम्भ करते हुए आचार्यश्रीने एक श्लोक रचा : "नव मुनयो नवमुनय , कर्तु लग्ना नवा हि साघनिकाम् । नवमाचार्यममक्षे, नहि लप्स्यन्ते कथ नव ज्ञानम् ।।" Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फूट प्रसंग १८३ पाठक जानते है कि संस्कृत - व्याकरण नये छात्रोंके लिए अति रूखा विषय है। कालुगणीके शब्दमे 'अलूणी शिला' चाटना है । किन्तु नीरसमे रस भरनेकी कला आचार्यश्रीका नैसर्गिक गुण है। साधनिकाके साथ साथ नित नए मनोविनोद चलते रहते। जिससे मिठासके कलेवरमे कडवी घट भी अरुचिकर नहीं होती। इस प्रसगमे आचार्यश्रीने विद्यार्थी साधुओं का उत्साह बढानेको तत्काल १३ श्लोक रचे, वे बड़े स्फूर्तिदायक हैं । मनोविनोदके साथ प्रेरणा से भरेपूरे है । यथा: गुप्तिव्योमा भ्रनेत्राब्दे, मासे फाल्गुननामके । प्रारब्धा रत्ननगरे, भूतेष्टया दलेऽसिते ||१|| निशायां कालकोमुद्या, जायते साधुसाधन। | तुलसीगणिन पार्श्वे, रामदुर्गे पुरेऽधुना ॥ २ ॥ नवानाञ्चापि शिष्याणा क्रियते नामकीर्तनम् । येनोत्साहो विवर्द्धत, वाळाना पठने ध्रुवम् ||३|| फन्हैयालाल एकस्तु, शुभकर्णः शुभेच्छुक | स्मेरानन सुमेरश्च, मोहनो मुदिताशय ॥४॥ ताराचन्द्रस्तु तूष्णीको, मागीलालोऽल्पलालस | गुणमुक्तादनो हस, सुखलाल सुखाभिक ||५|| रूपोऽन्वेष्टा स्वरूपस्य सर्वे सम्मिलिता नव । प्राप्तु विद्योदघेरन्त, ग्रावुवुञ्जते सदा ||६|| ज्येष्ठभ्राता सुविश्वम्पो, बालाना पादहेतवे । प्रयत्न कुरुते नित्य, शिक्षाञ्चापयतीप्सिताम् ॥७॥ " Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी शिष्या समागता सर्वे, कि कर्तु साधना शुभाम् । भाविनी प्रार्थना पश्चा - दल्पोऽनेहा निरीक्ष्यते ||८|| यदा चित्त प्रसत्ति स्यात्, सुलभा श्लोकनिर्मिति । विपर्यासोऽन्यथा स्पष्ट, कि शिष्यंरपि नेक्ष्यते || ९ || मध्याह्न े समधीयाते, साध्व्यो व्याकरण सदा । तयोर्धन कुमार्येका, चान्या रत्नकुमारिका ॥ १० ॥ वृत्तिश्चापरवेलाया—माचाराङ्गस्य पठ्यते । , सम्मील्य बहुसाध्वीभि का कामास्या वदाम्यहम् ॥ ११ ॥ लाडा सत्यग्रणी तासा, साहाय्य कुरते सदा । साहाय्यमन्तरेणात्र, विद्यावोधि सुदुर्लभा ॥ १२ ॥ त्रयोदशाना श्लोकाना, निर्माण कृतवानिदम् । शीघ्र मनोविनोदाय, शिष्यबोधाय साग्रहम् ||१३|| व्यक्ति बड़ा नहीं होता । वडा होता है उसका व्यक्तित्व । वह क्या है ? इसे शब्दोंकी सीमा और परिधिमे वाधना सहज नहीं । फिर भी उपयोगिताकी दृष्टिसे हम मान लेते है - व्यक्तित्व यानी जीवनका उपयोग । दुनिया स्वार्थी ठहरी । वह उसीका व्यक्तित्व स्वीकार करती है, जिसके जीवनका उसके लिए उपयोग हो । जिसमे उच्च प्रतिभा चरित्र-वल और आकर्षण नहीं होता, वह अपने जीवन - पुष्पको उपयोगके धागेसे नहीं जोड सकता । इसलिए हमे व्यक्तित्वका फलित अर्थ करना चाहिए - प्रतिभा, चरित्र और आकर्षणकी महान् व्यक्तित्व असाधारणता । १८४ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ स्फुट प्रसग आचार्यश्री तुलसीका व्यक्तित्व, जो बहुत वर्षों तक अपने आपमे समाये रहा, निखरता जा रहा है । सव क्षेत्रोमे उसके प्रति पूजा, प्रतिष्ठा और सम्मानकी भाग्ना है। पर क्यों है ? इस पर भी एक सरसरी दृष्टि डाललेनी चाहिए। आप एक सन्त है, आचार्य है, आध्यात्मिक क्रान्तिके वाहक नेता और अहिंसक समाजके अग्रणी है। हमे उनका व्यक्तित्व स्वीकार करनेसे पहले मुडकर देखना होगा कि क्या इस भौतिक युगमे आपके जीवनका कुछ उपयोग है ? क्या विद्युत्-यन्त्रोंकी चकाचौंधमे अध्यात्मकी किरणें कुछ कर सकेंगी ? इसका उत्तर देना कठिन है, यह नहीं मानना चाहिए। परिस्थितियोके उतार-चढ़ावमे रथका पहिया किधर घूमेगा, यह कौन जान सकता है। ___ आचार्यश्रीने जनताके जीवन-शोधनके लिए चारित्र्यका आश्रयण नहीं किया है । आपके सहज जीवन-शोधनसे जनताको उसकी प्रेरणा मिली है। इसीलिए यह परमार्थकी भूमिकामं रहकर भी जन-जीवनको जगानेवाला महामन्त्र है । अन्न, वस्त्र, मकान आदि सुलभ करनेवाला ही जनताके लिए उपयोगी है, यह मानना इतनी बडी वनभूल है, जितनी कि एक वनमृर्स ही कर सकता है। चारित्र-बल के बिना उक्त पदार्थों से मिफ जीवन चल सकता शान्ति नहीं मिल सकती। मानवका पंच पहावी तरह जीवन रताना ही नहीं होता। उसके लिए शान्ति और विराम द्वार वरं रहते है । हम इन तत्त्वको समन गये तो आचार्ण जीवन Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ माचार्य श्री तुलसी का उपयोग समझना बाकी नहीं रहेगा। भूतवादने मनुष्यको शान्तिकी रट लगानेमे पागल बना रक्खा है। शान्तिके लिए वह युद्धकी चक्कीमे पिसता जा रहा है। युद्धसे मेरा तात्पर्य, दो शत्रु देशोंके बीच होनेवाले युद्धसे नहीं, जीवनव्यापी दैनिक युद्धसे है । एक देश, एक समाज और परिवारके व्यक्ति भी परस्पर गिद्धष्टि लगाये बैठे है। एक दुसरेका शोपण और प्रताडन कर रहे है । यह सबसे खतरनाक युद्ध है। वडे युद्ध की आदत इसीसे पडती है । खेद । राष्ट्रवादकी चहारदीवारीमे पलनेवाले बड़े-बड़े दिमाग इस ओर नहीं मुडे। सुडनेकी बात ही फ्या, दिशा-यन्त्रकी सुई दूसरी ओर घूम रही है । आत्म-शोधनका लक्ष्य नहीं, सिर्फ शासन-सूत्रको ठीक ढंगसे चलाने के लिए चरित्र वल चाहिए । अपने बचावके लिए अहिंसा तथा शोपणका जुआ दूर फेकने के लिए अपरिग्रह भी वडा मीठा लगता है। दूसरो पर आक्रमण और शोपण करते समय वे याद तक नहीं आते। यही भूतवाद और अध्यात्मवादमे मौलिक भेद हे । अध्यात्मवादमे वे--अहिंसा और अपरिग्रह आत्मौपम्यकी भूमिका पर अवस्थित है। दूसरोके हित-अहितको अपने हित अहितसे तोलना जहाँ अध्यात्मवादकी सूझ है, वहा अपने हितो की रक्षाके लिए अहिंसा, अपरिग्रह और विश्वशान्तिकी बात करना दसराक हितको कुचलते समय उन्हे भूल जाना, यह भूतवादकी देन है। आचार्यश्री तुलसी अपनी सत्प्रेरणाओं द्वारा मनुष्य समाजको Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुट प्रसंग १८७ अध्यात्मवादी, दूसरे शब्दो मे आत्मौपम्यवादी बनाना चाहते हैं । यहीं से उनके जीवनका दिव्य आलोक निखरता है, यहींसे युगको बदलनेवाली व्यक्तिताकी निगृढ सम्भावनाएं हमारी धारणाओंको पहति करती है । हिन्दी जगत् के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और विचारक श्री जैनेन्द्रकुमारने आचार्यश्री के व्यक्तित्वका नपे-तुले शब्दो मे विश्लेषण करते हुए कहा : - "जैन आचार्य श्री तुलमोगणीसे में मिला और उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि प्रति शीघ्र उनके सम्पर्क में था गया । मे तेरापन्थी नही हू प्रोर जैन भी हू या नहीं, इसे जंन ही वतला सकते ई | कोई वाद या मत लेकर नहीं, वरन् केवल इन्शान के रूपमें तुलसीजो के सामने में गया पर उनके अन्तरगको छाप मुझ पर एसी पट्टी कि में अपनेको भूल सा गया । तुलसीजी शान्तिप्रिय और बिना किसी वादके व्यक्ति है | उनका व्यक्तित्व इस श्रद्धाम पना हना है कि ग्रहिमा मे ही सारी समस्यायें हल हो सकती है । पहले तो मुझ का होतो थो कि हमसे ही सारी समस्याओ का समाधान फेने नभव है परंतु इनकी तह तक पहुचने पर मेरी दावा दूर हो गई। तुत्सीजन यह विश्वास है कि जीवनमा माग महिला द्वारा है, जिसका एक प है । उनी मी दिवान्धारावी छाप मेरे उपर साप । मेरी श्रद्धा से ही हमी गई। भारत वर्ष १२ मा जनवरी १९५२ 1 द Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री तुलसी अहिंसा धर्म है और धर्म पर ही दुनियाकी सारी चीजें आधारित है । यदि धर्मका नाश हो जाय तो चमकनेवाले चाद और सूर्यका भी नाश होय । मेरे पास ओर कुछ नहीं, एक यही लगन है कि श्रहिंसा से ही कुछ होनेवाला है । में जी रहा हू केवल इसी श्रद्धाके बल पर । तुलसीजी से हमारे सर्वस्वकी रक्षा हो गई। जो अपनेको तुलसीजी का अनुयायी मानते है, वे स्वयं अनुभव करते होगे कि तुलसीजीमे उन्हे कितनी शक्ति मिलती है और यदि वे ऐसा नहीं समझते तो इसका मतलब होगा कि वे तुलसीजीके पास पहुचने के लिए भेडियाघसान करते है । उनके अनुयायी यह समझते होगे कि उनसे उन्हे कितनी शक्ति मिलती है | उन्हे चाहिए कि वे उनकी शक्तिको अपने में सन्निहित करे क्योकि शक्तिका ही सम्पूर्ण विश्वमे प्रभाव है । उनमे महाशक्ति है | हमे चाहिए कि शक्ति प्राये तो हम उसे सोखले, हम उसका स्पर्श करे । उसी शक्ति से हम अपना भोग प्राप्त करे। हमे चाहिए कि हम उन महापुरुपकी शक्ति अपनी शक्तिको भी मिला दे । जिस प्रकार अन्य नदियोंके मिलने से गङ्गामे महाशक्ति या जाती है और ग्रन्य नदिया भी गगासे शक्ति प्राप्त करती है, उसी प्रकार आचार्यश्री तुलसीकी शक्ति यदि हम अपना शक्ति भी मिला द तो महाशवित हा जायगी ।" १८८ महापुरुष के जीवन-सरोवरमे हंस होकर तैरना, क्षीर- नीर विवेक करना सहज नही होता। फिर भी इससे प्रधान भाव मानसकी गतिका है । हम प्रत्येक वस्तुको अपपूण दर्शन नानेसे पूर्व उसके औचित्यको हृदयङ्गम कर लेते Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ स्फुट प्रनग हैं। बाकी रहती है बात वाणी द्वारा व्यक्त करने की । मानवका जीवन - प्रासाद आचार-विचारके विशाल खम्भों पर बनता है। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अनाशक्ति ये एक कोटिके है । दूसरी कोटिके है - क्षमा, धर्य, औदार्य, नम्रता, सरलता आदि आदि । आपसे दोनों प्रकारके गुण इस प्रकार छला - छल भरे है कि उन्हें समझने के लिए कविकी कल्पना और दार्शनिकका चिन्तन अधीर हो उठता है । नैरन्तरिक कठोर श्रम, सुदृढ़ अध्यवसाय देखते ही बनते हैं । रातके चार बजेसे कार्यक्रम शुरू होता है, वह दूसरी रातके दश वजे तक चलता रहता है । आहारका समय भी किसी अध्यवसाय या चिन्तनसे अधिक बार खाली नहीं जाता। स्वाध्याय, मनन, चिन्तन, अध्यापन, व्याख्यान, आगन्तुक व्यक्तियोंसे वातचीत, इस प्रकार एकके बाद दूसरे कार्यकी ला जुडी रहती है । आपमें जन-उद्धारकी विभिन्न उमंगे इस प्रकार उछाले भरती है, मानो आकाश-मण्डलको पखारने के लिए समुद्रकी उमिया हल रही हों । परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता अपना अलग महत्व रखती है। आपने इस पन्द्रवर्षीय नेतृत्वमे संपके उपर छाई अनेक परिस्थितियोंका अपूर्व कौशल के साथ सामना चिा है । इस विषय में 'कम बोलना, कार्य करते रहना' आपकी यह नीति बहुत सफल हुई है । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० आचार्य श्री तुलसी बालक, युवा, वृद्ध, सभ्य और ग्रामीण सबके साथ उनके जैसा बनकर व्यवहार करना, यह आपकी अलौकिक शक्ति है। ___ आप आदर्शवादी होते हुए भी व्यवहारकी भूमिकासे दूर नहीं रहते । आज नई और पुरानी परम्पराओंका संघर्प चल रहा है। आधुनिक आदमी पुरानी परम्पराको रूढ़ि कहकर उसे तोडना चाहता है। उधर पुराने विचारवाले नये रीति-रिवाजोको पसन्द नहीं करते, यह एक उलझन है। आचार्यश्री इनको मिलानेवाली कड़ी है। आपमे नवीनता और प्राचीनताका अद्भुत सम्मिश्रण है इसे देखकर हमे महाकवि कालीदासकी सूक्तिका स्मरण हो आता है : "पुराणमित्येव न साधु सर्व, न चापि नवमित्यवद्यम् । सन्त परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते, मूढ परप्रत्ययनेयबुद्धि । एक विपयको दश बार स्पष्ट करते-करते भी आप नहीं मल्लाते, तब आपकी क्षमा वृत्ति दर्शकोंको मन्त्रमुग्ध किये बिना नहीं रहती। आपके उदात्त विचार जनताके लिए आकर्षणके केन्द्र है।। कथनी और करनीमे समानता होना 'यथावादी तथकारी' के जैनत्वका द्योतक है । अध्यात्मवादी विन्दुके आस-पास घूमनेवाले * मालविकाग्निमित्र Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुट प्रसग 191 विचार व्यावहारिक नहीं होते, यह तथ्यहीन धारणा है। आपने इसे बदलनेको प्रचुर विचार-सामग्री दी है। वह संकलित हो जनताका सही पथ-दशन कर सकेगी, हमे ऐसा विश्वास है। ____आपने जात-पातके भेद भावसे दूर विशुद्ध आध्यात्मिक भावना की आवाज बुलन्द कर धर्मके लिए नई भूमिका तैयार की है। धर्म से दूर भागनेवाला आजका क्रान्तिकारी युवक एक बार फिर उसकी ओर देखनेके लिए वाध्य हुआ है। साधु समाजके लिए उपयोगी नहीं है, इस भावना पर आपने अणुव्रतो संघकी स्थापना पर करारा प्रहार किया है। नैतिक व चारित्रिक बलका सहयोग देनेवाला वर्ग समाज के लिए भार नहीं, अपितु उनका उन्नायक होता है। ____ आपने अपनी व संघ (तेरापन्थ ) की नाहित्य-नाचना, शिक्षा तथा व्यापक प्रचारक द्वारा पूर्ववर्ती जन-सन्त के गौरवका पृग प्रतिनिधित्व किया है। इस प्रकार आचार्यकरके जीवनकी एक. भोकी हमारे लिए आनन्द और उहालका विषय है। जोवनमा पूर्ण दर्शन शहाली में नहीं होता। आप चिरकाल तक हमारा नेतृत्व करें। रिना-धर्म आलोकसे विश्वको आलोक्ति करें।