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________________ १७८ प्राचार्य श्री तुलसी अतिरिक्त आपने खान-पानके सम्बन्धमे वाणी और मन पर जो नियन्त्रण कर रखा है, वह 'तचित्रम्' जैसा है। शाकमें नमक अधिक या कम हो, दूसरी कोई वस्तु कैसी ही हो, उसके बारेमे आहार कर चुकनेसे पहले कुछ कहना तो दूरकी बात किन्तु भाव तक नहीं जताते। आपकी शिक्षामे बार-बार यही स्वर मिलता है : "भोजनके सम्बन्धमे अधिक चर्चा करना- अच्छा बुरा कह __ गृद्ध होना, नाक-भौंह सिकोड़ना मैं गृहस्थके लिए भी ठीक नहीं मानता, साधुके लिए तो यह सर्वथा अवाञ्छनीय है।" आत्म-निरीक्षणसे आचार्यश्रीका नैसर्गिक प्रेम है। आपने आत्म-निरीक्षण एक बार बाल साधुओंको शिक्षा देते हुए कहा :-- "छद्मस्थसे भूल हो जाय, यह कोई आश्चर्य नहीं। आश्चर्य वह है, जो भूलको भूल न समझ सके। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सम्हाले, अपनी भूलोंको टटोले । भूल सुधारका यही सर्वश्रेष्ठ साधन है। भगवान् महावीरके शब्दोंमे : 'से जाणमजाण वा, फट्ट आहम्मिय पय । सदरे खिप्पमप्पाण, वीक त न समायरे ।। अर्थान जानमे, अजानमे कोई अनाचरणीय कार्य हो जाय ___ तो साधुको चाहिए कि तुरन्त अपनी भूल देखे, आत्माका संवरण
SR No.010846
Book TitleAcharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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