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प्राचार्य श्री तुलसी आचार्यश्री इसे बहुत ज्यादा उलाहना दे और उससे घबडाकर यह स्वयं मेरे साथ चलनेको तैयार हो जाये । ___एक रातको उन्होंने आचार्यत्रीकी सेवामे कनककी अविनीत प्रवृत्तियोंकी पोथी पढ़ डाली। आचायवरने मुनि कनकको कुछ कठोर उलाहना दिया और कहा कि तू बापका अविनीत है, इसलिए मैं तुझे पढाना बन्द कर दंगा। इससे बालकका सुकुमार हृदय सिहर उठा। कुछ-कुछ आखे भी गीली हो गई। वह चाहता था कि मैं आचार्यश्रीसे कुछ निवेदन करू, पर उस बुद्धिमान् बालककी पलकों पर 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' वाला वश्य नाच रहा था। एक और वह पिताके हितकी चिन्तामे था, दृसरी ओर आचार्यवरकी अप्रसन्न दृष्टि भी उसके लिए असह्य थी। फिर भी ऐसी परिस्थिति आई कि उसने एक निर्णय किया और वास्तविक स्थितिको आचार्यश्रीके सम्मुख रखना उचित समझा। ___ कुछ क्षणोंके बाद आचार्यश्रीने पूछा-क्या तूं कुछ कहना चाहता है ? स्वीकृतिके स्वरमे उसने प्रार्थना की। आचार्यवरने कहा- कह दे। उसने प्रार्थना की -एकान्तमे निवेदन करूंगा। साधु दूर चले गये। आचार्यावरके सान्त्वनापूर्ण शब्दोंका उसे कुछ संवल मिला और उसने वस्तुस्थिति सामने रखनी प्रारम्भ की। निवेदनकी प्रारम्भिकतासे ही उसने आचार्यश्रीका दृष्टिकोण बदल दिया। उसके पहले शब्द ये थे -- आप मुझे फरमाते है कि मैं कन्हैयालालजी स्वामीके पास जाऊं, उनका कहा मानू और वे मुझे घर ले जाना चाहते है । मै जाना नहीं चाहता । इस