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विचारककी वीणाका झङ्कार
विचार सन्तोंका साम्राज्य है । सत्ताका साम्राज्य जमता है, उखड़ जाता है । सन्त- विचार सिर्फ माथेकी उपज नहीं होता । वह द्विजन्मा होता है, मस्तिष्कसे हृदय मे उतरता है, वहा पकनेपर फिर बाहर आता है । उसका शासन इतना मजबूत होता है कि वह मिटाये नहीं मिटता । इसीलिए तो सन्तवाणी अमरवाणी कहलाती है । मैंने उसे वीणाका मंकार कहना इसलिए पसंद किया है कि उससे हृदयका तार मंकृत हो उठता है। माथेकी वाणी मे जहा सौ तर्क-वितर्क उठते है, वहा हृदयकी वाणी से हृदय जुड जाता है । देखिए जातिवादका कितना गहरा सम्बन्ध है ।
आचार्यश्री मेरी दृष्टिमे मस्तिष्कवादी विचारक नहीं हैं 1 इसलिए मैं पाठकोंसे यह अनुरोध करना नहीं चाहूंगा कि वे