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कविकी तूलिका के कुछ चित्र
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भावनाका मेवाडकी मेदिनीमे आरोप कर आपने बड़ा सुन्दर
चित्रण किया है
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* " पतित उधार पधारिये, सगे सबल लहि थाट ।
मेदपाट नी मेदिनी, जोवे
खडि खडि बाट ||
सघन शिलोच्चयनै मिषे, ऊचा
करि करि हाथ ।
चचल दल शिखरी मिषे, दे
जगनाथ ||
नयणा विरह तुमार, भरें निभरणा जास । भ्रमराराव भ्रमे 'करी, लह लाबा नि श्वास || काकिल- कूजित व्याज थी, व्रतिराज उडावं काग | अरघट खट खटका करी, दिल खटक दिखावै जाग ||
अबला अचला रही, किम पहुचे मम सन्देश । इम झुर झुर मनु झूरणा, सकोच्यो तन सुविशेष ॥ " इसमे केवल कवि हृदयका सारस्य ही उद्व ेलित नहीं हुआ है किन्तु इसे पढ़ते-पढ़ते मेवाड़ के हरे-भरे जंगल, गगनचुम्बी पर्वतमाला, निर्भर, भँवरे, कोयल, घडियाल और स्तोकभूभागका साक्षात् हो जाता है। मेवाडकी ऊंची भूमिमे खड़ी रहने का, गिरिशृङ्खलामे हाथ ऊंचा करने का, वृक्षोंके पवन -चालित दलों आह्वान करने का, मधुकर के गुञ्जारवमे दीर्घोष्ण निःश्वास का, कोकिल - कुजनमे काक उड़ानेका आरोपण करना आपकी कविप्रतिभाकी मौलिक सूझ है । रहॅटकी घड़ियोंमे दिलकी टीसके
* कालु यशोविलास
झाला